Thursday 5 March 2020

गुंजन की गूंज

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कविता एक ऐसा झरना है जो पहाड़ की किसी भी चोटी से, जंगलों के बीच, चट्टानों के पीछे से किसी शरारती बच्चे की तरह खिलखिलाते हुए प्रकट हो जाता है । उसे चाहिए बस अनुकूल आबो-हवा और उचित वातावरण जिसके अभाव में वह सूख कर अदृश्य भी जाता है। इन कविताओं को रचने वाला किसी खास साँचे में नहीं ढला होता । वह आपको आम ज़िंदगी में मौजूद किसी भी सीधे-सादे सरल इंसान के रूप में नजर आ जाएगा । कभी वह मुझे अपने पिता श्री रमेश कौशिक में मिला, कभी प्रशासन की चक्की चला रहे विपिन वत्स, डा० चंद्रभान आनंद में और कभी विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक- प्रोफेसर डा० वीर सिंह में । यह सभी मेरे ब्लाग की दुनिया के जीते-जागते पात्र रह चुके हैं ।  इस बार मुझे सच में आश्चर्य हुआ जब जिन हाथों में सर्जरी का नश्तर होता है उन्ही हाथों  में कलम को भी बखूबी कमाल करते देखा । आज आपको एक छोटी सी झलकी दिखाता हूँ एक ऐसी ज़िंदगी की जो अपने ही ढंग से इस समाज की सेवा कर रही है – कर्म से भी और विचारों से भी । 
डा ० गुंजन नगरकोटी 
कंप्यूटर के की-बोर्ड पर फर्राटे से दौड़ती उँगलियाँ सामने मानीटर पर शब्दों और भावनाओं का रूप लेते जा रहे थे । वे भावनाएं जो गुंजन की अंतरात्मा को अक्सर रह-रह कर कचोटती रहती थी । अपने ही लिखे को गुंजन ने एक बारगी फिर से पढ़ा, गहरी साँस ली और सोच में पड़ गई – क्यों होता है ऐसा ???

जब सीता का तिरस्कार हुआ,
सब तब भी थे सिर्फ मूक श्रोता,
तो फिर क्या सतयुग, क्या द्वापर, क्या त्रेता .. 
अग्नि परीक्षा दी सीता ने,
तब, जब वो “मैया” थी....
मर्यादा पुरुषोत्तम की पत्नी,
वो तो बस एक “गैया” थी । 

एक अनजान पुरुष ने लांछन लगाया,
मां के दर्द को झूठ बताया । 
क्रोधित तो वो भी थी .. 
इतनी कि, धरती की बेटी थी, धरती में समा गई । 

जब उस मर्यादा वाले युग में भी, नारी के चरित्र पर वार हुआ ,
उसकी मर्यादा को प्रमाणित करने के लिए, अग्नि का आवाह्न् हुआ,
तो यह तो बस कलयुग है,
नारी आज तो ना है देवी,
ना मैया, और ना ही है गैया .. 

आज भी उस पर लांछन लगते,
आज भी उस पर लोगों के शब्द हैं चुभते,
बचती- बचाती खुद को छुपाती,
मर्यादा की लकीरों में खुद को दबाती,
क्रोधित तो वो भी है,
क्रोध इतना कि व्योम को चीर दे,
चीख ऐसी जो समस्त संसार को भेद दे,
पर वो मैया नहीं कि अग्नि में चढ़ जाए,
या धरती में समा जाए .. 
मैया नहीं है वो,
बस एक साधारण नारी .. 
क्रोधित, घायल और आहत । 

गुंजन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सिर्फ एक नारी नहीं है , नारी के साथ -साथ वह अत्याधिक संवेदनशील है । उस संवेदना ने ही उसके अंदर के रचनात्मक पहलू को कवयित्री के रूप में उभारा है जिसके परिणामस्वरूप वह आज की नारी का ही नहीं , आज से हजारों वर्ष पूर्व की सीता का दु:ख और वेदना भी बहुत गहराई से महसूस करती है । दर्द को महसूस करना एक बात है और उसका निदान ढूँढना अलग बात । आश्चर्य की बात यह है कि गुंजन इन दोनों ही कसौटियों पर खरी उतरती है । वह खुद एम.बी.बी.एस डाक्टर है । एम.डी की पढ़ाई भी कर रही है और आजकल देहरादून के श्री महंत इंद्रेश हॅास्पिटल में सीनियर रेजिडेंट डाक्टर है । वह अपने आस-पास की दुनिया की व्यथा को भरसक दूर करने का प्रयत्न करती है – अपने डाक्टरी के ज्ञान के जरिए । समाज में व्याप्त कुरीतियों को भी वह दर्पण दिखा देती है अपनी कविताओं के माध्यम से । आप यह भी कह सकते हैं कि उसने बीड़ा उठाया हुआ है मानव के तन और साथ ही साथ मन का भी उपचार करने का । उसके साथ केवल एक दिक्कत है – उसके अंदर मौजूद कवयित्री कभी उसे चैन से नहीं बैठने देती । हर किसी का दु:ख-दर्द इस हद तक महसूस कर लेती हैं कि साथी डाक्टर भी अक्सर समझाते हैं कि डाक्टर – मरीज़ का आपसी रिश्ता एक सीमा तक ही ठीक है । अपने को लाख संभालने के बावजूद भी इस डाक्टर को अपने घर में भी मरीजों का कष्ट अक्सर परेशान करता है । अस्पताल में सुबह ड्यूटी नौ बजे से शुरू होती है पर डाक्टर गुंजन पहुँच जाती है सुबह सात बजे ही । वजह - दूर-दराज के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों से पहुँचने वाली गरीब, अशिक्षित महिला मरीज़ जो अपनी इस डाक्टर दीदी के इंतजार में बैठी होती हैं । उन मरीजों को वापिस अपने गाँव पहुँचने की भी जल्दी होती है । जल्दी इसलिए कि गाँव में उन्हें घर के काम -काज निबटाने हैं, पशुओं को संभालना है और सबसे जरूरी – घर के बुजुर्गों की देखभाल करनी है । डा० गुंजन का मानना है कि आज भी पहाड़ों की बहु-बेटियाँ समाज में दबी - कुचली ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं । कुछ तो पहाड़ों पर स्वास्थ-सेवा का वैसे ही अभाव है पर ग्रामीण महिलाओं के इलाज में खुद उनका अपना परिवार भी उदासीनता बरतता है । इक्कीसवी सदी में यह बात विचित्र जरूर लगती है पर है सौलह आना सच । गुंजन खुद इसी पहाड़ की बेटी है इसीलिए वह यह दर्द भली -भाँति समझती है । यही वजह है कि इतने काम के बोझ को बहुत ही जिम्मेदारी के साथ खुशी – खुशी निभा रही है यह डाक्टर । 
डा ० गुंजन और उनका प्यारा सा एक मरीज़ 
भविष्य के लिए गुंजन के बहुत ही आशावादी और आदर्शवादी सपने हैं जिसकी प्रेरणा पिता श्री हरेन्द्र नगरकोटी से मिली । वह कहा करते हैं “ हजारों की भीड़ में खो मत जाना, बस भले काम करना और नाम कमाना"। इसी ब्रह्मवाक्य को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है इस डाक्टर ने । आज से दस वर्ष के अनुभव के बाद वह नैनीताल के पास बसे अपने पुश्तैनी गाँव लामगढ़ में एक छोटा सा ऐसा अस्पताल बनाना चाहती हैं जहाँ इलाज की मूलभूत सुविधाएं सरकारी रेट पर मिल सकें । उसे विश्वास है इस नेक काम के लिए उसे अपने जैसे ही अन्य नेकदिल लोगों का सहयोग जरूर मिलेगा । 

डाक्टर गुंजन अपने परिवार से बहुत घनिष्ठता से जुड़ी है । नाते-रिश्तेदारों और बुजुर्ग सास-ससुर से भरा-पूरा ऐसा कुनबा जिसे संयुक्त परिवार कहते हैं - उसीमें गुंजन की जान बसती है । मानवीय मूल्यों को इस हद तक वरीयता देती है कि अपने हम-पेशा डाक्टर बिरादरी को भी तिलांजली देते हुए एक सीधे-सरल इंसान – प्रतीक डालाकोटी, (एक प्रतिष्ठित व्यवसायी)  को अपना जीवन साथी चुना। 
प्रतीक डालकोटी 
गुंजन की कहानी केवल एक कविता नहीं है – यह एक महा-काव्य है। जो कुछ मैं थोड़ा बहुत आपको बताया पाया हूँ वह बस एक छोटी सी बानगी भर है । कभी मौका मिला तो आपको उसके आदर्शवादी जीवन के अन्य रोचक किस्से भी आप तक पहुंचा दूंगा ।

4 comments:

  1. ऐसे समय में जब डाक्टर को सफेद कपड़ों में भगवान माना जा रहा है, डॉ गुँजन की कहानी इतने भावभीने ढंग से सबके सामने लाना प्रशंसनीय है । ऐसे डाक्टर जो व्यापारी बन बैठते हैं, उनके लिए डाॅ गुँजन प्रेरणा स्रोत हैं ।

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  2. एक संवेदनशील डॉक्टर की कहानी को समाज के सामने प्रेरक रूप में प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक आभार।

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  3. मंजुल थरेजा26 March 2020 at 17:57

    एक संवेदनशील डॉक्टर की कहानी को प्रेरक रूप में प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक आभार।

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  4. मंजुल थरेजा26 March 2020 at 18:00

    एक संवेदनशील डॉक्टर की कहानी को प्रेरक रूप में प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक आभार।

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