Monday 30 March 2020

मैँ शर्मिंदा हूँ


कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि आप कुछ ऐसा लिख जाते हैं जिसे कुछ समय बाद आप जब खुद पढ़ते हैं और ठंडे दिमाग से समझते हैं तो लगता है यह मैं क्या लिख गया । मन में कभी ग्लानि होती है तो कभी पछतावा । मुझे तो इस समय खुद अपने ऊपर शर्मिंदगी भी हो रही है । चलिए ज्यादा पहेलियाँ न बुझाते हुए सीधे असल बात पर आता हूँ । 

आजकल जब मैं यह किस्सा लिख रहा हूँ पूरे विश्व में कोरोना वायरस की महामारी का जान लेवा संकट सब के सर पर मंडरा रहा है । हमारे देश में भी लॉक -डाउन घोषित किया जा चुका है । इस ताला बंदी ने सारे समाज को आइस क्रीम की तरह से जमा कर रख दिया । जहाँ तक नजर दौड़ाते हैं सब कुछ बंद – इंसान घर में बंद, सड़कों पर ट्रेफिक बंद, कारखाने बंद, दुकाने बंद और इन सब की वजह से वातावरण में प्रदूषण बंद, शोर बंद । घर की छत पर बैठ कर मैं नीले आकाश को निहार रहा था । पंछी सामने के पार्क में चहचहा रहे थे । रात के समय आसमान में फिर से तारे भी नज़र आने लगे थे जो महानगर के प्रदूषित वातावरण से कभी के गायब हो चुके थे । हद तो तब हो गई जब नोएडा की वीरान पड़ी सड़कों पर नील गाय को भी घूमते पाया । लगता था जैसे दुनिया अब से तीस साल पहले के समय में पहुँच गई हो जब साँस लेने के लिए साफ हवा भी नसीब हो जाती थी । इस बदली हुई आबो-हवा में तरो-ताजगी महसूस करते हुए कुछ दिनों पहले मैंने एक कविता लिखी : 


दिल की आवाज

सच में मैंने आज गौर से,
रूप नया दुनिया का देखा,
सारे दिन जो व्यस्त रहे थे,
उन्हें भी कविता लिखते देखा,

नील गगन पर सुबह - सवेरे
स्वर्णिम सूरज उगते देखा ।
नजर नहीं आया करते,
उन पंछी को भी उड़ते देखा।

भूली बिसरी यादों के
मीठे सपनो को फिर से देखा।
छत के नीचे अपनों को
प्यार से गपशप करते देखा।
अम्मा - दादी के साथ बैठ कर,
वक्त बिताते हंसते देखा ।

लेकिन फिर भी
हाथ जोड़ कर
दुआ मांगता
मालिक से,
दीन दुखी की रक्षा करना,
संकट हरना विपदा से ।


इस कविता को मैंने सोशल मीडिया पर भी पोस्ट कर दिया । दोस्तों को पसंद भी आई , अच्छे-अच्छे कमेंट्स भी मिले । पर आज मुझे लगता है कि कुछ दोस्तों ने शायद इस कविता को पढ़ कर खामोश रहना ही उचित समझा होगा । उन्होंने शायद सौजन्यता-वश अपने दिल की बात दिल में ही दबा ली होगी क्योंकि सच्चाई कड़वी जो होती है । लेकिन उनकी इस खामोशी की भाषा ने भी मुझे बता दिया कि दर्द बयाँ करने के लिए जुबान की जरूरत नहीं है । 


दरअसल मेरे दिल को गहरी चोट तब लगी जब समाचारों के जरिए रोज़ की रोटी रोज़ कमाने वाले गरीब मजदूरों की बेबसी को जाना । जीविका की तलाश में दिल्ली -मुंबई जैसे महानगरों में बसेरा किए हुए रिक्शा चलाने वाले, खोमचा -फेरी लगाने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, फैक्ट्रियों के कामगार – सभी एक ही झटके में आसमान से गिरे पंख-कटे पंछी की तरह से फड़फड़ा रहे थे । उन गरीबों की तड़प थी – मजदूरी छिनने की, रोटी छिनने की , घर -बार-बसेरा छिनने की । इक्कीस दिनों तक घर का गुजारा कैसे होगा यह उनकी खाली जेब और पेट की समझ में नहीं आ रहा था । इक्कीस दिनों के बाद भी क्या हालात होंगे यह भी तो कुछ पक्का नहीं था । ताला -बंदी की लक्ष्मण रेखा के बावजूद भी भूखे पेट ने मजबूर कर दिया उन दीन -हीन इंसानों को घर के बाहर कदम रखने को । जब सरकारी भोंपुओं के झूठे वादे भी रोटी का जुगाड़ नहीं कर सके तब सर पर पोटली और गोद में छोटे-छोटे बच्चों को उठाए उन बदनसीबों का कारवां निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर । यह मंजिल थी सैकड़ों मील दूर बसे वे गाँव जिनमें आज भी उनके सगे-संबंधी रहते हैं । वही गाँव जिन्हें रोज़ी -रोटी की मजबूरी में छोड़ कर आना पड़ा था पर आज भी यह यकीन है कि वापिस पहुंचेंगे तो दो रोटी तो जरूर दे देंगें । महानगरों की तरह कम से कम भूखा तो नहीं मरने देंगे । पेट की आग और अपने गाँव पहुँचने की चाह ने उनके कमजोर शरीर में भी वह ताकत भर दी जिसे ना तो पुलिस के डंडे रोक पाए और ना ही तपती धूप में पैदल चलने की मजबूरी । रेल नदारत , बस नदारत – यातायात का कोई साधन नहीं फिर भी निकल पड़े भूखे -प्यासे लंबे सफ़र पर । मैं अंदर तक हिल गया जब ऐसे ही किसी मजबूर इंसान को यह कहते सुना कि कोरोना तो बाद में मारेगा उससे पहले तो हम भूख से ही मर जाएंगे ।

सच मुझे शर्मिंदगी हुई अपनी स्वार्थी सोच पर । मैं कविता की दुनिया में क्यों इनके दर्द को महसूस नहीं कर पाया । क्यों मुझे केवल स्वच्छ नीला आसमान और उड़ते पंछी ही नजर आए – सड़क पर भीड़ में लँगड़ाते हुए अपने गाँव जाता अपाहिज इंसान क्यों नहीं दिखा । मेरी आँखों पर क्यों पट्टी बँध गई थी उस वक्त – यही सोच कर मैं शर्मिंदा हूँ । 
चलते -चलते , जो गलती मुझ से हुई वह आप मत करिएगा । कोरोना की मार के आगे सब एक समान हैं । यह चुटकले बाजी और लतीफों का पुलिंदा नहीं है । मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ – यह बहुत भारी मुसीबत है – मौत की दस्तक है । इसे हल्के में मत लीजिए, मौत से मज़ाक मत कीजिए । यह मुसीबत का समय सभी पर अपनी छाप छोड़ेगा – चाहे अमीर या गरीब । सवाल केवल वक्त का है । गरीब पर मार तुरंत हो रही है – पर जो समाज के ऊंचे तबके के लोग हैं वह प्रभावित तो होंगें पर जरा देर से । इसलिए समझदारी इसी में है कि दूसरों के दुख: दर्द में शामिल रहें, आने वाले कल में आपको भी हमदर्दी की जरूरत हो सकती है ।

Thursday 5 March 2020

गुंजन की गूंज

कहानी का ऑडियो संस्करण  यूट्यूब पर देखने के लिए नीचे ➤ के निशान पर क्लिक करें 

कविता एक ऐसा झरना है जो पहाड़ की किसी भी चोटी से, जंगलों के बीच, चट्टानों के पीछे से किसी शरारती बच्चे की तरह खिलखिलाते हुए प्रकट हो जाता है । उसे चाहिए बस अनुकूल आबो-हवा और उचित वातावरण जिसके अभाव में वह सूख कर अदृश्य भी जाता है। इन कविताओं को रचने वाला किसी खास साँचे में नहीं ढला होता । वह आपको आम ज़िंदगी में मौजूद किसी भी सीधे-सादे सरल इंसान के रूप में नजर आ जाएगा । कभी वह मुझे अपने पिता श्री रमेश कौशिक में मिला, कभी प्रशासन की चक्की चला रहे विपिन वत्स, डा० चंद्रभान आनंद में और कभी विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक- प्रोफेसर डा० वीर सिंह में । यह सभी मेरे ब्लाग की दुनिया के जीते-जागते पात्र रह चुके हैं ।  इस बार मुझे सच में आश्चर्य हुआ जब जिन हाथों में सर्जरी का नश्तर होता है उन्ही हाथों  में कलम को भी बखूबी कमाल करते देखा । आज आपको एक छोटी सी झलकी दिखाता हूँ एक ऐसी ज़िंदगी की जो अपने ही ढंग से इस समाज की सेवा कर रही है – कर्म से भी और विचारों से भी । 
डा ० गुंजन नगरकोटी 
कंप्यूटर के की-बोर्ड पर फर्राटे से दौड़ती उँगलियाँ सामने मानीटर पर शब्दों और भावनाओं का रूप लेते जा रहे थे । वे भावनाएं जो गुंजन की अंतरात्मा को अक्सर रह-रह कर कचोटती रहती थी । अपने ही लिखे को गुंजन ने एक बारगी फिर से पढ़ा, गहरी साँस ली और सोच में पड़ गई – क्यों होता है ऐसा ???

जब सीता का तिरस्कार हुआ,
सब तब भी थे सिर्फ मूक श्रोता,
तो फिर क्या सतयुग, क्या द्वापर, क्या त्रेता .. 
अग्नि परीक्षा दी सीता ने,
तब, जब वो “मैया” थी....
मर्यादा पुरुषोत्तम की पत्नी,
वो तो बस एक “गैया” थी । 

एक अनजान पुरुष ने लांछन लगाया,
मां के दर्द को झूठ बताया । 
क्रोधित तो वो भी थी .. 
इतनी कि, धरती की बेटी थी, धरती में समा गई । 

जब उस मर्यादा वाले युग में भी, नारी के चरित्र पर वार हुआ ,
उसकी मर्यादा को प्रमाणित करने के लिए, अग्नि का आवाह्न् हुआ,
तो यह तो बस कलयुग है,
नारी आज तो ना है देवी,
ना मैया, और ना ही है गैया .. 

आज भी उस पर लांछन लगते,
आज भी उस पर लोगों के शब्द हैं चुभते,
बचती- बचाती खुद को छुपाती,
मर्यादा की लकीरों में खुद को दबाती,
क्रोधित तो वो भी है,
क्रोध इतना कि व्योम को चीर दे,
चीख ऐसी जो समस्त संसार को भेद दे,
पर वो मैया नहीं कि अग्नि में चढ़ जाए,
या धरती में समा जाए .. 
मैया नहीं है वो,
बस एक साधारण नारी .. 
क्रोधित, घायल और आहत । 

गुंजन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सिर्फ एक नारी नहीं है , नारी के साथ -साथ वह अत्याधिक संवेदनशील है । उस संवेदना ने ही उसके अंदर के रचनात्मक पहलू को कवयित्री के रूप में उभारा है जिसके परिणामस्वरूप वह आज की नारी का ही नहीं , आज से हजारों वर्ष पूर्व की सीता का दु:ख और वेदना भी बहुत गहराई से महसूस करती है । दर्द को महसूस करना एक बात है और उसका निदान ढूँढना अलग बात । आश्चर्य की बात यह है कि गुंजन इन दोनों ही कसौटियों पर खरी उतरती है । वह खुद एम.बी.बी.एस डाक्टर है । एम.डी की पढ़ाई भी कर रही है और आजकल देहरादून के श्री महंत इंद्रेश हॅास्पिटल में सीनियर रेजिडेंट डाक्टर है । वह अपने आस-पास की दुनिया की व्यथा को भरसक दूर करने का प्रयत्न करती है – अपने डाक्टरी के ज्ञान के जरिए । समाज में व्याप्त कुरीतियों को भी वह दर्पण दिखा देती है अपनी कविताओं के माध्यम से । आप यह भी कह सकते हैं कि उसने बीड़ा उठाया हुआ है मानव के तन और साथ ही साथ मन का भी उपचार करने का । उसके साथ केवल एक दिक्कत है – उसके अंदर मौजूद कवयित्री कभी उसे चैन से नहीं बैठने देती । हर किसी का दु:ख-दर्द इस हद तक महसूस कर लेती हैं कि साथी डाक्टर भी अक्सर समझाते हैं कि डाक्टर – मरीज़ का आपसी रिश्ता एक सीमा तक ही ठीक है । अपने को लाख संभालने के बावजूद भी इस डाक्टर को अपने घर में भी मरीजों का कष्ट अक्सर परेशान करता है । अस्पताल में सुबह ड्यूटी नौ बजे से शुरू होती है पर डाक्टर गुंजन पहुँच जाती है सुबह सात बजे ही । वजह - दूर-दराज के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों से पहुँचने वाली गरीब, अशिक्षित महिला मरीज़ जो अपनी इस डाक्टर दीदी के इंतजार में बैठी होती हैं । उन मरीजों को वापिस अपने गाँव पहुँचने की भी जल्दी होती है । जल्दी इसलिए कि गाँव में उन्हें घर के काम -काज निबटाने हैं, पशुओं को संभालना है और सबसे जरूरी – घर के बुजुर्गों की देखभाल करनी है । डा० गुंजन का मानना है कि आज भी पहाड़ों की बहु-बेटियाँ समाज में दबी - कुचली ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं । कुछ तो पहाड़ों पर स्वास्थ-सेवा का वैसे ही अभाव है पर ग्रामीण महिलाओं के इलाज में खुद उनका अपना परिवार भी उदासीनता बरतता है । इक्कीसवी सदी में यह बात विचित्र जरूर लगती है पर है सौलह आना सच । गुंजन खुद इसी पहाड़ की बेटी है इसीलिए वह यह दर्द भली -भाँति समझती है । यही वजह है कि इतने काम के बोझ को बहुत ही जिम्मेदारी के साथ खुशी – खुशी निभा रही है यह डाक्टर । 
डा ० गुंजन और उनका प्यारा सा एक मरीज़ 
भविष्य के लिए गुंजन के बहुत ही आशावादी और आदर्शवादी सपने हैं जिसकी प्रेरणा पिता श्री हरेन्द्र नगरकोटी से मिली । वह कहा करते हैं “ हजारों की भीड़ में खो मत जाना, बस भले काम करना और नाम कमाना"। इसी ब्रह्मवाक्य को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है इस डाक्टर ने । आज से दस वर्ष के अनुभव के बाद वह नैनीताल के पास बसे अपने पुश्तैनी गाँव लामगढ़ में एक छोटा सा ऐसा अस्पताल बनाना चाहती हैं जहाँ इलाज की मूलभूत सुविधाएं सरकारी रेट पर मिल सकें । उसे विश्वास है इस नेक काम के लिए उसे अपने जैसे ही अन्य नेकदिल लोगों का सहयोग जरूर मिलेगा । 

डाक्टर गुंजन अपने परिवार से बहुत घनिष्ठता से जुड़ी है । नाते-रिश्तेदारों और बुजुर्ग सास-ससुर से भरा-पूरा ऐसा कुनबा जिसे संयुक्त परिवार कहते हैं - उसीमें गुंजन की जान बसती है । मानवीय मूल्यों को इस हद तक वरीयता देती है कि अपने हम-पेशा डाक्टर बिरादरी को भी तिलांजली देते हुए एक सीधे-सरल इंसान – प्रतीक डालाकोटी, (एक प्रतिष्ठित व्यवसायी)  को अपना जीवन साथी चुना। 
प्रतीक डालकोटी 
गुंजन की कहानी केवल एक कविता नहीं है – यह एक महा-काव्य है। जो कुछ मैं थोड़ा बहुत आपको बताया पाया हूँ वह बस एक छोटी सी बानगी भर है । कभी मौका मिला तो आपको उसके आदर्शवादी जीवन के अन्य रोचक किस्से भी आप तक पहुंचा दूंगा ।