बात है मेरे कॉलेज के दिनों की | वह ज़माना इंटरनेट और व्हाट्स -एप का तो था नहीं इसलिए कॉलेज पहुँच कर भी बचपन के अवशेष प्रचुर मात्रा में मौजूद थे | आजकल तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से छोटे-छोटे बच्चों के भी पेट में दाढ़ी मौजूद होती है |मोदीनगर के एम.एम कालेज के हॉस्टल में रहा करता था | हॉस्टल में कुछ पढ़ाकू किस्म के छात्रों की एक विशेष प्रजाति भी निवास करती थी | ये निशाचर प्राणी दिन में उधम मचाते रहते , न खुद पढ़ते और ना ही किसी दूसरे बन्दे को किताबों को हाथ लगाने देते | हाँ – रात को जब सब निखट्टू सोने चले जाते तब ये चुपचाप अपने कमरे में जाकर तपस्वी की भाँति अध्यन- साधना में लीन पाए जाते | जाहिर है मुझ जैसे सभी नालायकों की नज़र में ऐसे सभी पढ़ाकू आँखों की किरकिरी बने रहते थे | एक मित्र तो जब तक दारु की बोतल से अच्छा ख़ासा अमृतपान नहीं कर लेते, उनके ज्ञान-चक्षु नहीं खुलते | यह बात अलग है कि आज वह मित्र एक नामी-गिरामी विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफ़ेसर और वैज्ञानिक हैं | हमें कभी उनके साथ बैठने का मौक़ा मिला नहीं इसीलिए दिमाग उतना विकसित हो नहीं पाया | खैर अब पछताने से क्या फायदा | उब दिनों हम तो बस मौके की तलाश में रहते कि दिल में बसी सदाबहार खुंदक को बाहर कैसे निकाला जाए | बदकिस्मती से मेरा एक और दोस्त भी उसी निशाचर -पढ़ाकू श्रेणी का छात्र था | मेरे कमरे से चार-पांच कमरे छोड़ कर ही रहता था | एक बार देर रात मेरी नींद खुल गयी | काफी देर तक करवटें बदलता रहा, जब फिर भी नींद नहीं आयी तो कमरे से बाहर निकल कर गलियारे में टहलने लगा | अपने पढ़ाकू निशाचर-मित्र के कमरे की और देखा – लाईट जल रही थी | कमरे तक जाकर देखा , मित्र कुर्सी पर बैठे-बैठे ही गहरी नींद में सो रहा था, सामने किताब खुली हुई थी | नज़ारा देखकर एक बारगी तो हंसी भी आयी पर साथ ही शरारत भी सूझी | वापिस अपने कमरे पर लौटा | अलमारी में रखा हुआ पुराना फ्यूज बल्ब लिया और फिर वापिस अपने कुम्भकर्णी मित्र के कमरे में | दबे पाँव कमरे में प्रवेश किया पर कुर्सी पर बैठे खुर्राटें लेते पढ़ाकू को तब भी कुछ खबर नहीं जब मैं उसके ठीक सामने रखी स्टडी टेबिल पर पाँव रख कर खडा हो गया | जलते बल्ब को रुमाल से पकड़ कर निकाल बाहर किया और उसकी जगह अपना पुराना फ्यूज बल्ब लगा कर चुपचाप कमरे से बाहर खिसक लिया | मन के शरारती कोने में एक परोपकार की भावना उबाल मार रही थी कि अब मित्र की नींद बल्ब की तेज लाईट की वजह से डिस्टर्ब नहीं होगी | “सो जा राज दुलारे सो जा” मन ही मन में गुनगुनाता हुआ बिल्ली के से सधे हुए खामोश कदमों से अपने कमरे में वापिस दाखिल हो गया और एक शरीफ बच्चे की तरह से सो गया |
अब अगले दिन सुबह -सुबह कमरे के बाहर ही चहल-कदमी करते मित्र के दर्शन हो गए | राम -राम , श्याम -श्याम के बाद इधर-उधर की गपशप होने लगी | बातों ही बातों में कुछ देर के बाद मित्र बोला “यार आजकल तो लोग इतने बदमाश हो गए हैं कि कमरे का बल्ब ही चुरा डालते हैं | रात तक मेरा बल्ब ठीक-ठाक था पर अब जल ही नहीं रहा |” इसके बाद श्रीमान जी ने उस अज्ञात तथाकथित चोर की सात पुश्तों को लगे हाथों कोसना भी शुरू कर दिया | अब चतुराई दिखाने की बारी हमारी थी | मैंने निहायत ही मासूमियत का मुखोटा ओढ़ कर समझाया क्या फालतू की बात पर शक करते हो | अरे भाई – बिजली का बल्ब ही तो है , रात को वोल्टेज ज्यादा आ गयी होगी सो फ्यूज हो गया होगा | इसमें कौन से नयी और अनोखी बात हो गयी | हमारी विद्वता भरी बात सुनकर मित्र ने एक गहरी साँस ली और बोले- “कौशिक भाई ! मैं मानता हूँ कि रात में वोल्टेज ज्यादा आने पर बल्ब फ्यूज तो हो सकता है पर बजाज का बल्ब फिलिप्स में तो नहीं बदल सकता |” इतना सुनना था कि मेरे दिमाग की घंटियाँ जोरों से टनटना उठीं | फिल्मों में दसियों बार सुना सदाबहार डायलाग कानों में गूंजने लगा – अपराधी कितना भी शातिर क्यों न हो , अपने पीछे कुछ सुराग जरुर छोड़ जाता है | शुक्र है मेरा छोड़ा हुआ सुराग आधा ही था, अगर पूरा होता तो पूरी फजीहत हो जाती | सबसे बड़ी बात – खुद को अकलमंद समझने के बाद दूसरे को बेवकूफ़ समझने की गलती हरगिज नहीं करनी चाहिए |
मेरे उस कालेज के मित्र से बाद में बारह वर्षों के अंतराल के बाद मुलाक़ात हुई | तब वह हरियाणा के किसी कस्बे में स्कूल में अध्यापक थे और मेरे शहर में अपने छात्रों को किसी खेल प्रतियोगिता में भाग दिलाने लाये थे | बहुत ही प्रेम भाव से मुलाकात हुई, घर पर रात के भोजन पर भी आये | बातों ही बातों में मैंने जब उन्हें उस बल्ब-चोर किस्से की अनसुलझी गुत्थी का पूरा रहस्य खोला तो अपने जोरदार ठहाके के साथ मेरी कमर पर धप्पा मारते हुए बोले – तू कभी नहीं सुधर सकता | मित्र ने सही कहा था - शरारतों के मामले में, मेरी दुम पहले भी टेढ़ी थी और आज भी टेढ़ी ही है |
Ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ha nice story sir too beautifully elaborated
ReplyDeleteThanks Vipin ji
DeleteMM College Hostel was a distinctive world in itself. This story of yours stirred dormant nuisance inclinations of those days. Those are extraordinary incidences and only close friends are entitled to become victims of such sweet-and-sour intentions! Today a "Bulb Thief " is prouder than the hero of "Jewel Thief".
ReplyDeleteBy the way who was that lucky victim of the great "Bulb Boy"?!
Ravindra Thakur, room no. 50 , was innocent prey of my bulb hunt episode . He was very charming boy with solid physique having blue eyes. His native village was Khakra in distt Bagpat . Later on he mat me somewhere around 1986 while I was posted in Charkhi Dadri - Haryana .
DeleteI think, it is 2nd episode of your hostel life.
ReplyDeleteIn 1st episode, you described hostel incidence but topic was different wherein you introduced to a friend, now a professor or may be vice chancellor of Uttrakhand University.
Interesting incident, as always which is your speciality.
Thanks Sir for being such a keen reader with sharp memory. In lighter vain - kindly also refer comments and query from Vir Singh ji 😜
DeleteYeh daroo ki botal wala kaun tha?
ReplyDeleteअधिक जानकारी के लिए पुरुषोत्तम कुमार जी से संपर्क करें । मैं तो फिलहाल यही कह सकता हूं : चोर की दाढ़ी में तिनका 🤣🤣🤣
DeleteUn second Line walon ne balance bigad rakkha tha!
Deleteसब समझ रहा हूं 😄
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