Monday 8 July 2019

तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय

(इस जानकारी पूर्ण लेख के सभी तथ्य और फोटो देहरादून निवासी  श्री राय धर्मेश प्रसाद के सौजन्य से प्राप्त हुए जिसके लिए उनका हार्दिक धन्यवाद ) 


राय धर्मेश प्रसाद 
अक्सर लोग कहा करते हैं – दोस्ती करो या दुश्मनी, जो भी करो जम कर करो | सीधी सपाट बात है, आसानी से समझ भी आ जाती है और ठीक भी लगती है | दोस्ती के किस्से तो आप लोगों ने खूब सुने होंगे और दुश्मनी के भी | इतिहास तो ख़ास तौर से दुश्मनी के किस्से-कहानियों से भरा पड़ा है | राजे – महाराजाओं और नवाबों को तो मानों सिवाय जंग लड़ने और खून बहाने से फुर्सत ही नहीं होती थी | पर शत्रु को इज्ज़त और सम्मान देने वाली बात हो तो ऐसे लोग तो बिरले ही होते हैं | रामायण का किस्सा आप को याद होगा जब तीर लगाने पर रावण प्राण त्यागने वाला था तब श्री राम ने लक्ष्मण को कहा कि रावण बहुत विद्वान और प्रकांड पंडित है उनसे अंतिम समय में कुछ ज्ञान की सीख प्राप्त कर लो | लक्ष्मण ने रावण के सर की ओर खड़े होकर कुछ ज्ञान की बातें बताने को कहा जिस पर रावण चुप रहा | इस पर श्री राम ने ही लक्षमण को समझाया था कि आदर पूर्वक चरणों में बैठ कर ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | इसी प्रकार सिकंदर –पोरस का किस्सा भी याद आ जाता है | युद्ध में हारने पर राजा पोरस को बंदी बना कर सिकंदर के सामने पेश किया जाता है| सिकंदर राजा पोरस से पूछते हैं कि तुम्हारे साथ कैसा सलूक किया जाए | जवाब मिलता है – जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है | कहते हैं इस ज़वाब ने सम्राट सिकंदर को इतना प्रभावित किया कि उसने राजा पोरस को न केवल आज़ाद कर दिया बल्कि जीता हुआ राज्य भी वापिस कर दिया | यह थे इतिहास के पन्नों से सुने-सुनाये कुछ किस्से जो कितने सच्चे या झूठे हैं कोई दावे के साथ नहीं कह सकता | पर बहादुर दुश्मन को भी इज्ज़त और सम्मान देने का एक सचमुच की ऐतिहासिक घटना को प्रमाण के साथ मेरी जानकारी में लाने का श्रेय देहरादून निवासी मेरे एक अत्यंत घनिष्ठ सहकर्मी मित्र श्री धर्मेश राय प्रसाद को जाता है | उनके द्वारा बताई गयी जानकारी को मैंने आप तक पहुंचाने से पहले सत्यता की कसौटी पर अनेक माध्यमों से परखा और ठीक पाया | 

तो चलिए बात शुरू करते हैं और पहुँच जाते हैं आज से 200 लगभग साल पीछे | यह कहानी शुरू होती है वर्ष 1814 में जब देहरादून घाटी का क्षेत्र नेपाली गुरखाओं के शासन के आधीन था | नालापानी की पहाड़ियों पर खालंगा नाम के स्थान पर एक किला था जिसकी सुरक्षा का जिम्मा नेपाली सेनापति वीर बलभद्र थापा के अधीन था | इस किले मे लगभग 600 सैनिक अपने परिवारों के साथ रहते थे | अपने साम्राज्य को ज्यादा से ज्यादा विस्तार देने की नीति के अनुसार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज ने सहारनपुर की ओर से देहरादून पर हमला बोल दिया | यहाँ पर गोरखाओं के सेनापति बलभद्र थापा ने ब्रिटिश सेना के कमाण्डर जनरल जिलेस्पी के साथ बड़ी बीरता से युद्ध किया था। ब्रिटिश सेनाओं के पास उस समय के आधुनिक हथियार बंदूके, तोपे 3000 से अधिक सैनिक थे। ब्रिटिश कमाण्डर जिलेस्पी को लगता था कि वह आसानी से कुछ ही समय में युद्ध को जीत लेंगे पर यह इतना आसान नहीं था। दूसरी तरफ गोरखाओं के सेनापति बलभद्र के पास लगभग 600 सैनिक थे जिनमे औरतें और बच्चे भी शामिल थे और हथियारो के नाम पर तलवारें, भाले और तीर कमान ही थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपने युद्ध कौशल से अंग्रेजों का पूरे एक महीने तक पूरी दृढता से सामना किया। इस लड़ाई में जनरल जिलेस्पी शहीद हो जाते है। अंत में और कोई रास्ता न देख कर, जब अंग्रेजो को लगा की ये युद्ध जीतना असंम्भव है, तो उन्होंने इस किले तक जो पीने का पानी आता था उसकी सप्लाई बंद करवा दी | इसके बाद गुरखा सैनिक 3 से 4 दिनों तक प्यासे ही लड़ते रहे | लेकिन जब वीर बलभद्र थापा को लगा कि बिना पानी पिए यह युद्ध लड़ना सम्भव नहीं है तो वो अपने बचे-खुचे 70 सैनिको के साथ किले का द्वार खोल देते है और अंग्रेजो के सामने उनकी पूरी सेना आत्मसमर्पण कर देती है लेकिन वह खुद वहाँ से अंग्रेजो को चकमा देकर भाग जाते है। कई लोग यह भी मानते है की वह भी इस युद्ध में शहीद हो गए थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि है कि गोरखा सेनापति अफगानी फौज के साथ युद्ध करते समय शहीद हुऐ जिसमे यह राजा रणजीत सिंह का साथ दे रहे थे। सच्चाई जो भी रही हो , पर इतना जरूर है कि अंग्रेज गोरखा सेनापति और उसकी सेना की बहादुरी के कायल हो गए | इसके बाद इस बहादुरी को सम्मान देते हुए ही अंग्रेजों ने इस युद्ध में जो सैनिक शहीद हुऐ थे अपने उन अंग्रेज साथियों के साथ –साथ उन सभी गोरखा सैनिकों के शौर्य और की याद में भी इस स्मारक का निर्माण करवाया |
अपनी कहानी खुद बोलते शिला लेख 

इतिहास की गवाही 

आपस में लड़े, पर मर कर भी साथ-साथ   
यह शायद दुनिया का अकेला ऐसा युद्ध स्मारक है जिसमें विजयी सेना के साथ-साथ पराजित सेना के सेनापति की भी बहादुरी की प्रशंसा में सयुंक्त श्रद्धांजली के रूप में स्थापित किया  गया हो | इस स्मारक के शिलालेख में गोरखा सेनापति को “बहादुर दुश्मन ” के रूप में सम्मान दिया गया है | अगल-बगल में खड़े दो विजय स्तम्भ जो एक दूसरे के दुश्मन सेनापति की याद में हैं मानों आज स्वर्गीय शैलेन्द्र के पुराने गीत की याद दिला रहे हैं : –
तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय,
ना तुम हारे , ना हम हारे | 
सफ़र साथ जितना था हो ही गया तय , 
ना तुम हारे, ना हम हारे |


1 comment:

  1. Thanks to both for bringing these facts of history to our knowledge

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