Sunday 19 May 2019

चुनाव ड्यूटी का मारा : इक टीचर दुखियारा

दिमाग में बहुत दिनों से एक अजीब सी उलझन चल रही थी | यही सोच रहा था कि अपनी बात आप से साझा करूं या चुप रहना बेहतर रहेगा | दरअसल किसी भी भले इंसान या आसपास की दीनो-दुनिया की अच्छाई के बारे में बात करो तो खुद को भी खुशी होती है और सुनने वाले को भी सुकून मिलता है | पर दुनिया में सब कुछ तो भला-चंगा नहीं है और कहीं तो मजबूरन ऐसे हालात बन जाते हैं कि आपको लगता है कि अब तो हद हो चुकी है| ऐसे मौकों पर खामोशी कमजोरी की निशानी मान ली जाती है जिससे समाज में गलत लोगों और खराब व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है | एक जिम्मेदार नागरिक होने का फ़र्ज़ निभाते हुए आपको इन हालातों में अक्सर सामने वाले को आईना दिखाते हुए कहना ही पड़ता है कि हुजूर बस करिए , बहुत हुआ अब सुधर जाइए | मेरे घर के आस-पास कभी सड़क की लाईट हफ़्तों खराब पडी रहती है तो कभी सामने के पार्क में गंदगी बिखरी रहती है | जनता-जनार्दन ऐसी कि जान कर भी अनजान बने रहते हैं | मैं ऐसे मौकों पर संबंधित महकमों पर शिकायत दर्ज करवा ही देता हूँ जिस पर मेरी श्रीमती जी भी ताने मार देती हैं कि जब सब चुप बैठे हैं तो तुम्हें ही क्या पड़ी है | कभी मैं खामोश रह जाता हूँ तो कभी जवाब देता हूँ कि सभी अगर चुप रहें तो आखिर काम कैसे चलेगा | 

तो चलिए अब आते हैं सीधे मुद्दे की बात पर | पिछले काफी दिनों से देश में हर जगह चुनाव का माहौल अपनी पूरी सरगर्मी पर है | अखबार , टी.वी. , सोशल मीडिया , जहां देखिए सब चुनाव के रंग में रंगे पड़े हैं | जिसे देखो सब अपना राग अलाप रहे हैं | इस सारे शोर-शराबे में अगर कोई खामोश है , जिनकी आप आवाज नहीं सुन पा रहें हैं तो ये वे भुक्तभोगी कर्मयोगी हैं जिनके कन्धों पर सवार होकर चुनाव का महात्यौहार सफलता पूर्वक पूरा हुआ | अगर आप चुनाव आयोग के बारे में सोच रहें हैं तो लगे हाथों आपकी गलतफहमी भी दूर कर देता हूँ | इस मामले में चुनाव आयोग की भूमिका तो खच्चर पर बैठे मदमस्त, अड़ियल और हठीले हाथ में चाबुक लहराते सवार जैसी है | वजन से लदे-फदें उस मरियल खच्चर पर कोई रहम नहीं खाता जो कोड़ों की बेदर्द मार से पूरी तरह से पस्त होने के बावजूद उस मुटल्ले सवार को मुश्किल से मुश्किल रास्तों से गुजरते हुए मंजिल तक समय पर पहुँचाने में कामयाब ही रहता है | जी हाँ , चुनाव को संपन्न करवाने के लिए जिन सरकारी कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं , उनमें सबसे अधिक पढ़े-लिखे पर मजबूर शोषित कर्मचारियों का समूह होता वे हैं अध्यापक का | कहने को दुनिया जितनी चाहे बातें बना ले , पर सच्चाई यही है कि इतना सम्माजनक प्रोफेशन होने के बावजूद भी इन्हें बदकिस्मती से समाज वह इज्ज़त नहीं देता जिसके ये असली हकदार हैं | अब यहाँ सवाल उस व्यवहार का नहीं है जो चुनाव आयोग के बददिमाग निरंकुश अधिकारी उन लोगों से करते हैं जिनकी सेवाएं वे उधार के सिंदूर की तरह प्राप्त करते हैं, यहाँ हम बात कर रहें हैं उस बद-इंतजामियत की जिसकी मार चुनाव ड्यूटी पर लगे कर्मचारियों पर पड़ती है | और यह मार भी ऐसी कि चोट खाया मुलाजिम डर के मारे उफ्फ तक नहीं कर सकता कि आवाज उठाई तो कहीं सस्पेंड ना कर दिया जाऊं | यह वह डर ही है जिसकी वजह से जिनकी चुनाव ड्यूटी की आपबीती राम कहानी का मैं ज़िक्र करने जा रहा हूँ उन्होंने गुमनाम रहने में ही अपनी भलाई समझी | अब आप ही सोचिए उन सबके बारे में जो अपने रिटायरमेंट की दहलीज़ पर हैं , जिनकी शारीरिक शक्ति धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही है पर मजबूर हैं फ़ौजी स्टाइल में चौबीस घंटे की लगातार ड्यूटी देने के लिए | खाना तो दूर पानी भी मिल जाए तो गनीमत है | यह बात मैं बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कह रहा | किसी की सच्ची आपबीती है | बीच में उठ कर बाथरूम तक जाने का समय नहीं | चुनाव के बाद ईवीएम मशीन को देर रात तक जमा करवाने के लिए भेड़-बकरियों की तरह सर-फोडू मेहनत-मशक्कत | 
सुखद व्यवस्था का मनमोहक नज़ारा 

ईवीएम मशीन जमा करने की धक्का-मुक्की  

अब चुनाव आयोग बेशक अपनी पीठ खुद कितनी ही थपथपा ले, पर असलीयत में ज़मीनी हालात का जाएजा आपको इस कविता के माध्यम से बखूबी मिल जाएगा | यह कविता मुझे व्हाट्सएप पर किसी ने भेजी, जिसे प्राप्त सन्देश के अनुसार सुश्री मीनाक्षी खंतवाल ‘मीना’ ने लिखी है | मुझे कोई शक नहीं यह किसी की आपबीती ही है जिसमें वह शायद स्वयं भी हो सकती हैं | कविता लम्बी अवश्य है पर जब कष्ट अपरम्पार हैं तो उन कष्टों का बखान करती कविता भी कुछ लम्बी ही होगी जिसे पढ़ने के लिए  आपमें धीरज तो होना ही चाहिए |

शिक्षक बनाम चुनाव 

जो धीमे धीमे हाथ में सफ़ेद थैला लिए जा रहा है,
लोकतंत्र की रक्षा का भार कंधे पर धरे जा रहा है....
उसी पर तो इन दिनों सरकार का पूर्ण भरोसा है,
वो कभी कोई ग़लती नहीं करेगा,उसीसे ये आशा है...
सरकारी महकमों में यही कौम गाय सरीख़ी होती है,
किसी और महकमे की क़ौम मिर्च सी तीखी होती है,
उन पर तो सरकार मजबूरी में ही हाथ डालती है,
क्योंकि वो तो फ़ाइलों को भी कल पर टालती है,
शिक्षक की कॉपी डायरी सब अप टू डेट रहती है,
तब भी ये क़ौम अधिकारियों के ताने ही सहती है..
उसी सहनशक्ति की परीक्षा चुनावी ड्यूटी होती है,
शिक्षक के कंधे पर बोझ रख राजनीति चैन से सोती है..
चुनावी घोषणा होते ही हमारा दिल ज़ोर से धड़कने लगा,
बायीं या दायीं आँख का पता नहीं,अंग अंग फड़कने लगा,
सुबह और शाम की पूजा में ये प्रार्थना भी शामिल हो गयी,
स्कूल पहुँच के ड्यूटी पायी तो ये आस भी धूमिल हो गयी,
कोई हमारी नहीं सुनता ,ये तो जग ज़ाहिर है,
पर ये भगवान भी हमे धोखा देने में माहिर है!
ड्यूटी न आने की प्रार्थना पर कैसे मुस्काता था,
भगवान तब तेरा वो रूप हमें कितना भाता था,
जो प्रिंसिपल दारुण दुःख में भी छुट्टी नहीं देता है,
चुनाव आयोग के सामने कितना बेबस होता है,
अब तो शिक्षक सिर्फ़ फ़ोन पर सन्देश दिखाते हैं,
उसी प्रिंसिपल से 'अभी जाओ' का आदेश पाते हैं,
दुःख तो होता है ड्यूटी का , फिर भी धीरज धरते हैं,
' चलो सबकी ड्यूटी आई है' सोच गहरी साँस भरते हैं,
पहुँचे जब पंडाल में तो एक बिछड़ा साथी मिल गया,
चुनाव आयोग से मेरा बैर कुछ क्षण को टल गया,
एक दूसरे के सुख दुःख पूछते ट्रेनिंग भी हो गयी,
मित्र की छोटी बच्ची उसकी गोद में ही सो गयी,
'अक्कड़ बक्कड़'खेल कर पोलिंग पार्टी बनायीं गयी,
किसी तरह'भानुमति' के कुनबे की ईंटें जुटाई गयी,
यूँ हर कोई एक दूजे के लिए अजनबी था,अनजान था,
पर अब तो एक टीम थे ,और सामने बिखरा सामान था,
ज़मीन पर बैठ कर सामान की गिनती कर रहे थे,
कुछ रह ना जाये, प्रिसाइडिंग इसी फ़िक्र में मर रहे थे,
पोलिंग अफ़सर दो और तीन तो निरे बेफ़िक्रे थे,
ये सब तो पोलिंग एक और पीठासीन के ठीकरे थे,
सबसे ज़्यादा एक दूजे के लिए वही फिक्रमंद थे,
वे दोनों मानो एक ही गीत के तुकांत छंद थे,
दोनों मनाते थे कि सामने वाला समझदार हो,
चुनाव के दिन का उसी पर दारोमदार हो...
सुबह चार बजे जब घर से शिक्षक बाहर निकलता है,
उसकी बेबसी पर गली का कुत्ता भी नहीं भौंकता है,
अँधेरी सड़कों पर पोस्टमॉर्टम से सफ़ेद थैले चमक रहे हैं,
लोकतंत्र बचाने के स्तंभ, शिक्षकों के चेहरे दमक रहे हैं,
राह चलते वो गाड़ी रोक औरों को लिफ़्ट देता है,
इस तरह मानव दूजे को मानवीयता का गिफ़्ट देता है,
पोलिंग बूथ को बच्चे के घरौंदे-सा मनोयोग से सजाता है,
कर्तव्यनिष्ठा में वो गुरु,शिष्य को भी लजाता है...
चौदह घंटे एक सीट पर भूखा प्यासा बैठा रहता है,
तब भी मुस्कुराता है जब कोई मतदाता ऐंठा रहता है,
मशीन जमा करवाने के लिए,बसों में ठूंसा जाता है,
रहा सहा ख़ून भी जमा करवाते वक़्त चूसा जाता है,
इस तरह शिक्षकों का चुनावी मेला हो ख़त्म होता है,
उधर छह बजे के बाद नेताओं के घरों में जश्न होता है....
नेताओं के भक्त उनकी ज़ोरशोर से जयकार कर रहे हैं,
उन्हें कोई नहीं जानता,जो इनके लिए24 घंटे से मर रहे हैं,
अपना काम निकालने के बाद,सब वादे तोड़ देते हैं,
चुनाव करानेवालों को आधी रात सड़क पर छोड़ देते हैं,
इनके लिए रात्रि में कोई बस या मैट्रो सेवा नहीं चलती है,
इस क़ौम को सरकार काम निकालने हेतु यूँ ही छलती है,
रात के डेढ़ बजे हैं और मैं मदर्स डे के सन्देश पढ़ रही हूँ,
कई मदर्स अभी भी सड़कों पर हैं,ये सोच शर्म से गढ़ रही हूँ|
(मीनाक्षी खंतवाल'मीना')
13 मई 2019 

वैसे तो इस मामले से जुड़ी मन को झकझोर देने वाली घटनाओं का अंत नहीं है पर फिलहाल तो मैं केवल इतनी ही कामना कर सकता हूँ कि ईश्वर चुनाव आयोग और सरकार को इतनी सद्बुद्धि , क्षमता और संवेदना दे कि भविष्य में चुनाव कार्यों में लगे सभी छोटे-बड़े कर्मचारियों से इंसानों की तरह से सलूक हो | चुनाव में सभी को एक त्यौहार का एहसास हो, किसी के मरने पर ग़मगीन तेहरवीं का नहीं |

1 comment:

  1. You have thrown light on a subject I was completely unaware of. Thanks
    Hope to have fast improvement in the system.

    ReplyDelete