Wednesday, 26 December 2018

ऊँची उड़ान ( भाग चार ) : परिश्रम और भाग्य की श्रंखला

जिन्दगी में किस चीज़ का ज्यादा महत्त्व है – मेहनत का या भाग्य का, यह सवाल अरसे से मेरे दिमाग में घूमा करता था और हो सकता है मेरी तरह से आप भी बहुत से लोगों को यह सवाल परेशान करता हो | इस सीधे से पर टेढ़े सवाल का जवाब खोजने में लोगों को बरसों लग गए पर आज भी सवाल वहीं का वहीं है, बिना किसी भी जवाब के, ठीक उसी तरह जैसे कोई पूछे कि मुर्गी पहले आयी या अंडा ? कुछ-कुछ इसी तरह के जलेबी की तरह गोल सवाल के इर्द-गिर्द घूमती है आज की कहानी – एक जीते –जागते इंसान की सच्ची आपबीती | 

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले बुलंदशहर के लगभग नामालूम से कस्बे खुर्जा से शुरू होती है यह कहानी | यह कहानी घूमती है एक ऐसी मेधावी छात्रा के इर्द –‍‍‍‍‍ गिर्द     जिसकी अब तक की उथल-पुथल से भरी ज़िंदगी में लगातार जंग होती रही, समय – समय पर टकराने वाली मुसीबतों से, जिनकों को पार करने के लिए कभी सामना किया मेहनत से और कभी सहारा मिला किस्मत का | बस यही तो है आज की दिलचस्प कहानी का छोटा सा परिचय | संघर्षों से लड़ने वाले जिन किरदारों से आपको ‘उड़ान’ श्रंखला के अंतर्गत अब तक आपसे मिलवाया है, आज का किरदार उम्र में उन सबसे छोटा है | मज़े की बात यह कि इस किरदार का नाम भी श्रंखला ही है – जी हाँ, श्रंखला पालीवाल, एक कुशाग्र छात्रा, जो एम.बी.बी.एस की पढाई कर रही हैं –जवाहर लाल नेहरु राजकीय मेडीकल कालेज, अजमेर से | अगर अपनी कहानी खुद श्रंखला ही सुनाए तो शायद ज्यादा अच्छा रहे | तो शुरू होती है श्रंखला की कहानी खुद उसी की ज़ुबानी : 
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      मैं : श्रंखला पालीवाल 

नाम तो अब तक आप मेरा जान ही चुके हैं, दोबारा दोहराने से कोई लाभ नहीं | मुझे खुद यह कभी नहीं लगा कि अब तक जिन्दगी में कुछ ऐसा ख़ास घटा है जिससे मैं स्वयं को विशेष समझ पाऊं | वजह केवल यही रही कि होने वाली हर घटना को बहुत ही सामान्य तरीके से लिया | मेरी बाल-बुद्धि बस यही कहती है कि अपने आप को जितना आम ( खाने वाला नहीं ) समझेंगे, यह जीवन उतना ही सरल रहेगा | मेरा बचपन एक बहुत ही छोटे से शहर खुर्जा में बीता | बहुत ही साधारण पर अनोखी पारिवारिक पृष्ठभूमि, जिसमें शिक्षा और खेती-बाड़ी, कस्बे और ग्रामीण संस्कृति का अद्भुत संगम था | 



बचपन की मेरी पहली यादें जाकर पहुँचती हैं मेरे दादा जी- श्री शिव चरण पालीवाल जी पर जो आज इस दुनिया में नहीं हैं, पर जिनका प्रभावशाली व्यक्तित्व आज भी मेरी स्मृति में पूरी तरह से स्पष्ट है | उनकी दी हुई नसीहतें और समझदार सोच आज तक मुझे समय-समय पर रास्ता दिखाती हैं | मेरे दादा अपने ज़माने के लखनऊ विश्वविद्यालय से इंग्लिश और मनोविज्ञान में डबल एम.ए थे | आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र के वह जाने-माने रेडिओ-एनाउंसर थे | मेरी दादी भी इस मामले में कम नहीं रहीं, वह भी मेरी मां की तरह, आगरा यूनिवर्सिटी से एम.ए हैं | अब खुर्जा एक छोटा सा कस्बे-नुमा दकियानूसी शहर जहाँ लड़के और लड़कियों की पढ़ाई में अभी भी भेद-भाव किया जाता है | वह तो भला हो मेरे दादा-दादी के प्रगतिशील विचारों का जो अड़ गए कि पोती भी वहीं दाखिला लेगी जहाँ पोता | इस तरह भारी-भरकम कमर तोड़ फीस के बावजूद मेरे भाई के साथ मुझे भी शहर के जाने-माने महंगे पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया गया| यह किस्मत की परी की मेरे लिए पहली सौगात थी जो इतने समझदार दादा-दादी और माँ - पापा के रूप में मेरी जिन्दगी में आए |




                               दादा -दादी

अब मैनें भी उसी स्कूल में जाना शुरू कर दिया जहाँ मेरा बड़ा भाई रजत जाता था | मैं तब सबसे छोटी क्लास के.जी. में थी| सुबह-सुबह रोज की तरह स्कूल बस में बैठ कर स्कूल के लिए जा रही थी | तबियत कुछ खराब सी थी और रास्ते में ही बस में ही मुझे उल्टी आ गयी | स्कूल पहुँच कर जब सब बच्चे बस से उतर रहे थे, मैं अपनी पानी की बोतल से बस के फर्श पर उस फ़ैली हुई गन्दगी को साफ़ करने में लगी हुई थी | तब तक सब बच्चे बस से उतर चुके थे और मेरी मौजूदगी से अनजान ड्राइवर ने बस आगे बढ़ाना शुरू कर दिया| बस चलती देख कर मैं बुरी तरह से घबरा गयी और अपने नन्हे-नन्हे कदमों से लगभग दौड़ते हुए ही बस के दरवाजे तक पहुँची और नीचे उतरने का प्रयत्न किया | इस सब हड़बड़ाहट में, बस के पायदान पर मेरा संतुलन लड़खड़ा गया और मैं धड़ाम से नीचे गिर गयी जहाँ एक नुकीली ईंट सीधे मेरी आँख से कुछ ऊपर माथे में बुरी तरह से घुस गयी | खून का एक जोरदार फव्वारा मेरे माथे से फूट निकला और जैसे बेहोशी के अंधे कुँए में अपने आप को मैंने गिरते हुए महसूस किया | इतनी छोटी सी बच्ची होने के बावजूद भी मुझे इतना होश था कि बस आगे बढ़ रही है और मैंने अपने बचाव में तुरंत एक करवट ली वरना पिछला टायर मेरे ऊपर से निकल जाता | इसके बाद मुझे कुछ होश नहीं रहा | जब होश आया तो मैंने अपने आप को एक अस्पताल में पाया | बाद में पता चला कि उस भयानक हादसे के बाद मुझे मुझे स्कूल वाले ही शहर के ही अस्पताल ले गए जहाँ उन्होंने प्राथमिक उपचार के बाद हाथ खड़े कर दिए और सलाह दी कि जान बचाने के लिए तुरंत दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में शिफ्ट कर दिया जाए | दिल्ली में सर गंगा राम अस्पताल में मेरे चेहरे के एक के बाद कई आपरेशन किए गए | जख्म इतने गंभीर थे कि आंख और दिमाग तक पर असर पड़ने के आसार थे | डाक्टरों ने साफ़ कह दिया कि अव्वल तो जान ही खतरे में है, अगर जान बच भी गयी तो आँखों की रोशनी जा सकती है, साथ ही याददाश्त भी जा सकती है | मैं उस समय एक छोटी सी नन्ही सी जान, आपरेशन के बाद पट्टियों में लिपटा चेहरा, हड्डियों तक को दर्द से पिघला देने वाला दर्द और उन सबसे ऊपर मेरे दुःख से ज्यादा दुखी मेरे मम्मी-पापा | खैर ..... थोड़े में अगर कहूँ तो, डाक्टरों की लगातार बारह साल की मेहनत और भगवान की कृपा से मुझ पर किये गए सभी आपरेशन और प्लास्टिक सर्जरी सफल रहे, मेरी जान , मेरी आँख और मेरी याददाश्त सभी बच गयी | यह किस्मत की परी की मेरे लिए दूसरी सौगात थी जिसने मुझे एक नई जिन्दगी दी |

मेरी जिन्दगी स्कूल की पढाई और अस्पतालों के बीच घड़ी के पेंडुलम की तरह घूम रही थी | शायद उस समय ही सफ़ेद कोट पहने डाक्टरों को देख कर दिमाग के किसी कोने में में खुद एक डाक्टर बनने का सपना पाला| बस पढाई में और ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया | इसी बीच मेरे दादा बहुत ही गंभीर रूप से बीमार हो गए |तमाम प्रयत्नों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका| कहीं कुछ लगा कि इलाज मे शायद लापरवाही हुई है | डाक्टर बनने की इच्छा ने और मजबूती से संकल्प का रूप ले लिया| मेरी माँ ने हर वक्त मेरी हिम्मत बंधाई| 



अपनी दादी और माँ -पापा के साथ

इसी बीच हालात कुछ ऐसे बने कि खुर्जा छोड़ कर जयपुर बसना पड़ा | अगर ऐसे समय में हमें अपनी पुरवा बुआ जी का सहारा न मिला होता तो आज शायद कहानी ही कुछ और ही होती | जयपुर आ कर  स्कूल की पढाई के साथ मेडीकल कॉलेज के दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की भी शुरुआत कर दी | ऐसे समय में मेरे अपने फूफा जी, जिनका खुद का अपना कोचिंग सेंटर था, मेरे लिए मानों साक्षात भगवान के रूप में अवतरित हो गए | उनकी निगरानी में मेरी तैयारी और अधिक व्यवस्थित हो गयी | यह किस्मत की परी की मेरे लिए तीसरी सौगात थी जिसने मुझे छोटे से शहर खुर्जा से जयपुर पहुंचाया और अपने कोचिंग सेंटर वाले फूफा जी से मिलवाया जिन्होंने मेरी पढाई को एक निश्चित दिशा दी| अक्सर यह सोचती हूँ कि यहाँ साक्षात किस्मत की परी मेरी बुआ जी  श्रीमती पुरवा और देवदूत के रूप में विशाल  फूफा जी ही थे | 
किस्मत की परी और देवदूत - मेरी पुरवा बुआ और विशाल फूफा जी 
पढाई मेरी लगातार पूरी मेहनत से हो रही थी | सभी परीक्षाओं में नंबर भी अच्छे आ रहे थे पर मेरा लक्ष्य तो था मेडीकल में दाखिले का | वह मेडीकल जिसमें केवल एक प्रतिशत प्रतियोगी ही दाखिले के लिए सफल हो पाते हैं | वर्ष 2015 में केवल एक फ़ार्म भरा राजस्थान के कालेजों के लिए | परीक्षा हुई पर जब रिजल्ट आया तो मेरा नाम सफल छात्रों की लिस्ट में नहीं था जो कि एक बहुत गहरा आघात था मेरे लिए | सारी आशा, सारे सपने, सारा आत्म-विश्वास  मानों पल भर में चकनाचूर हो गए | कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ | अचानक एक दिन पता चला कि उस दाखिले की परीक्षा में पेपर लीक होने की शिकायत के कारण, पूरा रिजल्ट ही कैंसिल  कर दिया गया है और दाखिले की परीक्षा दोबारा से होगी | मेरे लिए यह खबर किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं थी | पिछली बार के अनुभव से सबक लेते हुए इस बार और अधिक पढाई, और अधिक मेहनत और जब रिजल्ट आया तो .... हुर्रा .... इस बार मैं सफल थी | मैंने अपने सपने के महल में पहला कदम रख दिया था | मेरी मेहनत तो थी ही पर किस्मत की परी ने इस बार मुझे चौथी बार ऐसा अनौखा उपहार दिया था जो हर किसी को नसीब नहीं होता | असफल होने पर पूरी परीक्षा का ही केंसिल होकर दोबारा सफल होने का मौक़ा भला कितनों को नसीब हो पाता है |

खैर मेडीकल कालेज में दाखिला हो गया | हर साल प्रतिभागी छात्रों के समग्र व्यक्तित्व और बुद्धि-कौशल के मानक माप-दंडों पर कालेज में नई छात्राओं में से मिस फ्रेशर का चुनाव किया जाता है| वर्ष 2015  की मिस फ्रेशर मैं चुनी गयी| कौन यकीन करेगा कि एक छोटे से कस्बे की साधारण सी वह लड़की जिसका कभी दुर्घटना में चेहरा  बुरी तरह से बिगड़ चुका था, याददाश्त बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, वह लड़की अपनी अब तक पाली गयी सभी हीन-भावनाओं को पूरी तरह से नकार कर, गौरव से अपना सर ऊँचा कर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पुरस्कार ले रही थी | उस दिन पहली बार मुझे महसूस हुआ कि मेहनत और किस्मत की परी के साथ-साथ , मुझे यहाँ तक पहुंचाने का श्रेय जाता है मेरे दादा-दादी, मम्मी-पापा, फूफा जी और सभी गुरुजनों को | इन सभी को मेरा सादर नमन |                  
फिलहाल मैं मेडीकल के तीसरे वर्ष में हूँ | इंतज़ार है पढाई पूरी करने के बाद, सफ़ेद कोट को पहन कर लोगों की जान बचाऊं, ठीक उसी तरह जैसे किसी ने मेरी जान बचाई थी |

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श्रंखला की इस आपबीती कहानी सुनकर क्या आपको भी मेरी तरह  ऐसा नहीं लगता कि किस्मत की परी भी उसी के पास आती है जो संघर्षों के रास्ते पर चल कर मेहनत के पसीने की कीमत जानता है |




Saturday, 22 December 2018

चमचे की चित्रकारी



22 साल की उम्र में वर्ष  1978 में सीमेंट कॉर्पोरेशन आफ़ इंडिया के हिमाचल प्रदेश स्थित  राजबन फेक्ट्री में नयी-नयी नौकरी लगी थी | उम्र और तजुर्बा, दोनों के ही मामले में पूरी तरह से अपरिपक्व | यह उम्र का वह दौर था जब बचपन पूरी तरह से गया नहीं था और जवानी पूरी तरह से आयी नहीं थी | बस यह समझ लीजिए कि बीच की दहलीज पर थे | मेरा मानना है कि नौकरी के लिहाज से उम्र की वह दहलीज बड़ी खतरनाक होती है क्योंकि उस समय तक दुनियादारी की पूरी तरह समझ आयी नहीं होती है और दफ्तर में भी कालेज जैसी शरारतें इस हद तक कर दी जाती हैं कि अगर नौकरी सरकारी है तो सालाना रिपोर्ट खराब हो सकती है, ट्रांसफ़र हो सकता है| बदकिस्मती से अगर प्राइवेट सेक्टर या लाला  की नौकरी है तब तो ऐसी नादान कारस्तानियाँ घर बिठाने की नौबत भी ले आती हैं| एक बारगी ऐसे ही किसी खुराफ़ाती लम्हें में अपने एक दक्षिण भारतीय सहकर्मी की  नेम प्लेट के नीचे चुपके से बड़ा सुंदर सा चमचे का चित्र बना दिया था | कारण सिर्फ इतना था कि वह सहकर्मी तत्कालीन महाप्रबंधक का खासम-खास मुंह लगा सिपहलसार था | यानी पल पल की चुगलखोर खबरें  बिजली की भी तेज रफ़्तार से मास्टर कंप्यूटर तक पहुंचाने वाला उस ज़माने का वाई-फाई | इन हरकतों की वजह से बस यह समझ लीजिए कि ‘ सारी दुनिया - सारा जहान, सारे दुखी- सारे परेशान’ | अब नज़ारा देखने लायक था – जो भी कारीडोर में उस मित्र के कमरे के आगे से गुजरता, नेम प्लेट पर नज़र पड़ते ही जबरन मुस्कराहट को रोकने का प्रयत्न करता | कारगिल पर हुई पाकिस्तानी घुसपैठ की हरकत की तरह  बाहर की हलचलों से अनजान हमारा जासूस  मित्र अन्दर कमरे में अपने काम -काज में व्यस्त था जब तक कि उस जासूस के भी जासूस ने उसे बताया कि मी लार्ड ! कोई अनाम हिन्दुस्तानी सिरफिरा क्रांतिकारी आपको सरे आम  बाकायदा चमचे की पदवी से सम्मानित कर चुका है | मित्र सब काम छोड़ कर झटपट तुरंत दरवाजे की और लपके | दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पर बना सुंदर सा चमचा मानों गागर में सागर भरे उन्हें मुंह चिढ़ा रहा था |  उन्होंने भी शायद अपने जीवन काल में नेम प्लेट पर नाम के साथ सम्पूर्ण चरित्र-चित्रण का इतना संक्षिप्त परिचय शायद ही कभी देखा हो | यह देखते ही मित्र की त्योरियां चढ़ गयीं, पहले से ही सांवली रंगत वाला चेहरा गुस्से से तमतमा कर और काला पड़ गया | लगभग दौड़ते हुए साथ लगे हुए कमरे में आए और अपनी पतली सी कांपती आवाज में मदरासी लहज़े में सभी को सुनाते हुए  चीख कर बोले- ‘किसने किया है ये सब | मैं छोडूंगा नहीं |’ इतना धमाका करने के बाद दिवाली के अनार की तरह जितनी जल्दी वह आये उतनी ही  जल्दी दनदनाते हुए मिसाइल की तरह नदारत भी  हो गए| कमरे में बैठे लोग, जिसमें इस सारे खुराफ़ात की असली जड़ - मैं भी शामिल था, उस अचानक हुए हवाई हमले के लिए तैयार नहीं थे| कुछ देर तक उस कमरे में बिलकुल पिन ड्राप सन्नाटा छा गया | धीरे-धीरे कमरे की चहल-पहल फिर से लौट आई और लोग चटकारे ले-ले कर उस घटना का मज़ा लेते हुए उस अज्ञात वीर सेनानी की  ( यानी मेरी ) हिम्मत की तारीफ़ में जुट गए जिसने सीधे –सीधे इतने मजाकिया अंदाज़ में कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह दिया था | अब एक कोने में चुपचाप बैठे हुए मुझे उस बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी | मेरी हालत तो उस सींकिया पहलवान से भी बदतर हो रही थी जो भांग के  नशे में शेर के  ऊपर सवार तो हो गया पर नशा उतरने पर यही सोच कर अधमरा हुआ जा रहा था कि अपने हिस्से का काम तो मैंने कर दिया अब बाकी का काम शेर जी के हवाले | कहने वाले सच ही कह गए हैं कि चोर के पाँव नहीं होते | अन्दर ही अन्दर हालत पतली हो रही थी | अब जिसका डर था वही हुआ | अब अगर हमला इजराइल पर होगा तो शिकायत तो अमरीका तक जानी ही थी | कुछ ही देर बाद जनरल मेनेजर का चपरासी हाजिर हो गया इस फरमान के साथ कि चलो बुलावा आया है, जी.एम ने बुलाया है | जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उस समय जी .एम  भूटियानी साहब थे, जो कि एक अच्छे-खासे डील-डोल के गोरे – चिट्टे सिंधी व्यक्ति थे | बहुत ही शांत स्वभाव के मधुर भाषी इंसान | पर भाई, जी.एम तो आखिर जी.एम ही होता है, यानी पूरी फेक्ट्री का एक तरह से खुदा तो खुदा से खौफ़ तो लाज़मी ही था | सो उस खुदा की दरगाह में मन ही मन राम-राम कहते दाखिल हुआ | दरगाह के एक कोने में वही मद्रासी  फरियादी रुआंसी चमचेनुमा शक्ल बनाए खड़ा था | अब तक मैं भी समझ चुका था कि लगता है मास्टर कंप्यूटर में मेरी शिकायत पहले ही वाई –फाई द्वारा अपलोड की जा चुकी है | चमचे की चित्रकारी से सजी मित्र की नेम-प्लेट सामने मेज पर अपराध के सबूत के रूप में रखी थी जो मुझे तिरछी नज़रों से देख कर इशारों में ही मानों पूछ रही थी कि गुरु मुझे पहचाना या नहीं ? हम भी मन में ठान चुके थे ,कुछ भी हो जाए, चाहे तो डी.एन.ए टेस्ट हो जाए इस नामुराद नेम प्लेट का, इस नामाकूल को हम भी मरहूम  एन.डी तिवारी की तरह से कतई अपना नहीं मानेंगे | जी.एम साहब की दबी हुई मुस्कान से यह तो जाहिर हो रहा था कि  मामला की असल वजह तो जान चुके थे पर अमरीका और इज़राइल के बीच की रिश्तेदारी की भी तो इज्जत मजबूरीवश ही सही पर  निभानी तो  पड़ेगी ही , बेशक सरसरी तौर पर ही सही | सो उन्होंने मुस्कराते हुए ही मुझसे पूछा इस नेम प्लेट को देखा है | मैनें नेम प्लेट और मित्र दोनों को ही एक नज़र से देखते हुए कहा – सर बहुत बार देखा है , पर यह चमचा पहली बार देखा है | अब साफ़ लगने लगा कि हँसी रोकना उनके लिए भी भारी सा पड़ने लगा था | फिर से पूछा कि यह तुम्हारा काम है ?  मुझे अच्छी तरह से पता था कि मेरी कारस्तानी का कोई भी चश्मदीद गवाह नहीं है, सो बे-धड़क कहा ‘नहीं सर , चाहे तो मेरी हेंड-राइटिंग मिल लीजिए’ | जवाब सुनकर भूटियानी साहब ने मुस्कराते हुए अपने सर पर हाथ फेरते हुए एक ठंडी सांस छोड़ी और कहा यही तो दिक्कत है, तुम्हारी  हेंड राइटिंग से किसी भी लिखावट को तो मिलवा सकता हूँ पर इस चमचे को नहीं | कहने की बात नहीं मुकदमा बर्खास्त, मुलजिम बाइज्ज़त बरी और फरियादी वापिस अपने कमरे में जिस पर अब कोई नेम प्लेट नहीं थी |
खैर यह किस्सा तब के लिए ख़त्म हो गया | अपने उस साथी से भी मुझे किसी भी प्रकार का वैर नहीं था जो वह भी अच्छी तरह से जानते थे |स्कूल - कालेज के दिनों की तरह यह  शरारती कांड भी मेरी मौज मस्ती का ही भाग था।  उन्होंने भी शिकायत केवल संदेह के आधार पर ही की थी | स्वभाव मेरा भी शुरू से ही मजाकिया रहा इस लिए बाद में सब कुछ सामान्य हो गया | कुछ वर्षों के बाद ट्रांसफर होने पर उन मित्र के साथ बाद में एक अन्य स्थान पर भी साथ ही काम किया पर अपनी कारस्तानी की बात उनके सामने उतनी ही गोपनीय रखी जितनी आज के समय में राफेल हवाई जहाज़ की कीमत रखी जा रही है |
उस घटना को हुए तब लगभग पच्चीस साल बीत चुके होंगें | मैं तब तक देहरादून जोनल आफिस में नियुक्त था | मेरे उसी मित्र का दक्षिण भारत के किसी कोने से फोन आया कि तुम्हारी तरफ घूमने आ रहा हूँ, संभव हो तो ठहरने का इंतजाम करवा देना | यह कोई बड़ी बात नहीं थी, सब इंतजाम हो गया | दोस्त से मिलने की खुशी भी थी | पत्नी सहित पधारे मित्र से बड़े प्यार से मुलाक़ात हुई | रात को खाने की मेज पर खाने के साथ-साथ हँसी-मज़ाक भी चल रहा था | दोस्त बातें करते हुए बहुत स्वाद लेते हुए सूप पी रहे थे | अचानक मेरा ध्यान उनके हाथ में थामें सूप के चम्मच पर पड़ा | पल भर में ही मेरे शरारती खोपड़ी में पच्चीस साल पुरानी कारस्तानी घंटियाँ बजने लगीं | बहुत ही मासूमियत से मित्र को मैंने उस पुरानी घटना की याद दिलाई | याद आते ही मित्र बोले “हाँ कुछ ऐसा हुआ तो था, मेरी अच्छी-खासी नेमप्लेट का किसी नालायक  ने सत्यानाश कर दिया था | पता नहीं वह कम्बखत कौन था ?” मित्र की आँखों में आँखें डालते हुए एक शरारती मुसकराहट के साथ मैंने धीरे स्वर में धमाकेदार बम फोड़ा – “ वह नालायक, नामुराद, कमबख्त  मैं ही था जो अब तुम्हारे सामने बैठा तुम्हारे हाथ के चमचे को देख रहा हूँ |” सुनते ही हाथ का चमचा टन्न की आवाज करता सूप के बाउल में जा गिरा और दोस्त मुझे आश्चर्य से ऐसी नज़रों से घूर रहा था कि अगर शाकाहार मजबूरी न होती तो शर्तिया आज मैं उसके डिनर का हिस्सा बन जाता| दोस्त के चेहरे पर एक के बाद एक रंग तेजी से आ रहे थे, जा रहे थे । पर अंत में उनके मुंह से जोरदार हंसी का ठहाका निकला और मेरे लिए  तारीफ के दो शब्द : YOU SCOUNDREL!!

दोस्त की बात तो वही जाने पर उस रहस्य का पर्दाफ़ाश करके मैं तो उस रात भरपूर नींद सोया, कहते हैं ना सच बोल कर दिल का बोझ हल्का हो जाता है |अब आप भी कुछ ज्यादा ही सीरियस मत हो जाना..... उस दोस्त से अभी भी खूब मस्ती की गप्पबाजी होती रहती हैं |         



Wednesday, 12 December 2018

पंजाब दा पुत्तर - पम्मा

अभी पिछले दिनों ही एक बहुत ही करीबी सिख परिवार की शादी में सम्मिलित होने के लिए लुधियाना ( पंजाब) जाना हुआ | शादी दिन की थी | धार्मिक परम्परा के अनुसार दुल्हा- दुल्हन के फेरे गुरूद्वारे में हुए और उसके बाद एक तो पंजाब और ऊपर से शादी भी सरदारों के यहाँ जो वैसे ही अपनी जिंदादिली और तड़क-भड़क के लिए मशहूर हैं, तो धूम-धड़ाका, हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा होना तो स्वाभाविक ही था | एक कोने में चुपचाप बैठा इसी मौज- मस्ती का आनंद उठा रहा था कि अचानक सामने कुछ हलचल सी नज़र आयी | एक नवयुवक बार- काउंटर पर सर्व कर रही लड़की के पास आ कर सेल्फी लेने का प्रयत्न कर रहा था | जाहिर तौर पर वह लड़की इस मनचले की हरकत के लिए तैयार नहीं थी | पर वही बात , दारू के नशे में हर शख्स किसी शहंशाह से कम नहीं होता और उस शहंशाह को जमीन पर उतारने के लिए बात या फिर लात का ही सहारा लेना पड़ता है | तभी क्या देखता हूँ कि वहां पर न जाने कहाँ से अचानक काले सफारी सूट में एक भीमकाय, बलिष्ठ नौजवान अलादीन के जिन्न की तरह से प्रकट हो जाता है | पहली नज़र में देखते ही दिमाग चकरा जाता है कि उसे नौजवान कहूँ या पहलवान | हमारी- आपकी गर्दन से मोटी तो उस शख्स की बाहों के डोले थे |
बाउंसर पम्मा 
उस पहलवानी शांतिदूत ने बड़े ही प्यार से उस मनचले शहंशाह को अमन का सन्देश मुस्कराते हुए बातों के द्वारा ही इस प्रकार से दे दिया कि नवाब साहब ने वहां से इज्ज़त बचाकर भागने में ही भलाई समझी | आसान शब्दों में बस यह समझ लीजिए कि बातों से ही काम बन गया और लात रूपी ब्रह्मास्त्र की आवश्यकता ही नहीं पड़ी | 

बैठे –बिठाए दिमाग में ख्याल आया कि भाई यह भीम तो बड़े काम की चीज है ठीक उसी तरह जैसे क्लास में मानीटर होता था | शरारती बच्चों को काबू में लाने का जिम्मा उसी का होता था | मिलने पर बहुत ही अदब से उसने मुझे बताया कि सर मेरा नाम है पम्मा और मेरा काम है बाउंसर का | काम का नज़ारा आप देख ही चुके हैं | 
मैं और पम्मा (बाएं से)  
मैंने उसे सुझाव दिया कि चलो पम्मा भाई, कहीं बैठ कर शांति से बात कर लेते हैं | पम्मा ने फिर वही अपनी चिर-परिचित मुस्कराहट के साथ जवाब दिया कि सर मैं ड्यूटी पर हूँ और बैठ नहीं सकता | बस इसके बाद डी.जे के कानफाडू संगीत के शोर-शराबे के बीच ही शुरू हो गया पम्मे से बातचीत का एक ऐसा सिलसिला जिससे उसकी ज़िंदगी और प्रोफेशन के बहुत सारे रोचक और भावुक कर देने वाली छुए –अनछुए पहलू निकल कर सामने आये | 
एक तस्वीर बचपन की 
मैं यहीं लुधियाना से तकरीबन 40 कि.मी दूर एक कस्बा है – जगरांव , वहीं का रहने वाला हूँ | वहीं पैदा हुआ , पला – बढ़ा पर बदकिस्मती से कुछ ख़ास पढ़-लिख नहीं पाया जिसका मुझे आज तक मलाल है | अपने गाँव में एक हज़ार रुपये महीने पर भी एक दुकान में काम किया | अगर मैनें पढ़ाई की होती तो आज मैं कुछ और बेहतर हालात में होता | हमारे गाँव में भी वही समस्या है जिससे सारा पंजाब आज भी जूझ रहा है – नशे की लत | घर-घर में नशे का जहर आज की नयी पीढी को बरबाद कर रहा है | हालत यहाँ तक पहुँच चुकी है कि हर कमजोर शरीर के बच्चे और जवान पर नशेड़ी होने का शक किया जाता है| आज जो आप मेरा पहलवानी शरीर देख रहे हैं उसे बनाने के पीछे भी यही वजह है कि लोग मुझे भी नशेड़ियों की जमात में शामिल न समझें | नशे से मुझे सख्त नफरत है| 
मजबूत कंधो  पर जिम्मेदारी भी भारी 
मेरे घर के हालात अच्छे नहीं रहे | पुरखों ने अपनी जमीन – जायदात काफी हद तक दान- पुण्य में गवां दिया | अब मुझे जिन्दगी के बहुत ही मुश्किल दौर से गुजरना पड़ रहा है | मेरा यह फौलादी जिस्म ही मेरा खेत, खलिहान , पूंजी सब कुछ है | रोज एक से डेढ़ घंटे की कसरत नियमित रूप से करता हूँ | पर इसे बरकरार रखने के लिए जरूरत के हिसाब से सही ढंग का खान-पान बनाए रखना भी मेरे लिए बहुत बड़ी चुनौती है| बाउंसर का काम मैं करता जरूर हूँ पर मजबूरी में | इस काम में इज्ज़त नहीं है | जब लोग समारोहों में सबके सामने हमसे बहुत ही बे-अदबी से पेश आते हैं, अबे-तबे कह कर बात करते हैं, सच कहता हूँ दिल पर सीधे चोट लगती है | उन बदतमीजियों का माकूल जवाब तो मैं भी दे सकता हूँ पर घूम फिर कर बात वहीं रोजी-रोटी पर आ कर ठहर जाती है इस लिए हाथ बंधे ही रखने पड़ते हैं | एक बात और – मुझे भले लोग भी मिले हैं | वर्जिश करने के लिए मैं जिस जिम में जाता हूँ उसके मालिक सतनाम जी ने मेरे हालात देख कर मुझ से आज तक कोई फीस नहीं ली | अपने दोस्तों का भी मुझे भरपूर प्यार मिला है जो मेरे हर सुख दुःख में मेरा साथ देते हैं | 
मेरे दोस्त 
मेरा सपना है किसी तरह से विदेश चला जाऊं | पाई-पाई करके पैसे भी जोड़ रहा हूँ | वहां जा कर अपने लायक काम तो मैं खोज ही निकालूँगा, इतना तो खुद पर भरोसा है | आखिर 23 साल की उम्र में 105 किलो का यह 6 फीट का शरीर कब काम आयेगा | 
खुदा खैर करे - बुरी नज़र से 
अपने तजुर्बे से आप सब दोस्तों के लिए मेरा बस यही सन्देश है : पढ़ाई –लिखाई जरूर करिए और नशे से दूर रहें, कामयाबी आप के कदम जरूर चूमेगी |
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हमेशा की तरह से इस बार भी मैं आप से अनुरोध करूंगा कि पंजाब के इस भीम-पुत्र पम्मा के चमकदार भविष्य के लिए आप सच्चे मन से दुआ करेंगे जो इतना दिल का सच्चा इंसान है जिसने मुझे यह भी बता दिया कि आप जो लिखेंगे उसे मैं अपने दोस्तों से ही पढ़वा कर सुनूंगा क्योंकि मैं पढ़ाई –लिखाई में कच्चा हूँ |

Wednesday, 5 December 2018

कविता पर बवाल

एक  पुराना चित्र -कवि सुमित्रानंदन पन्त जी  (बाएँ) साथ मेरे पूज्य पिता श्री रमेश कौशिक  

अगर मैं सीधे-सीधे आपसे कहूँ कि किसी ज़माने में मेरे 
पूज्य पिता जी को सरकारी नौकरी के दौरान चार्ज-शीट मिली और अनुशासनिक कार्रवाई भी हुई तो आप तुरंत सोच लेंगें कि जरूर कोई घोटाला किया होगा या दफ्तर के काम में कोई लापरवाही की होगी | अरे ना भाई ना .... इतनी जल्दी इतनी दूर की मत सोचिए और इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर भी मत पहुँच जाइए| ज़रा धीरज रखिए ... सब कुछ बताता हूँ | अब आप की भी कोई गलती नहीं है, हमारे देश में में यह हाल है कि अगर किसी के घर में कोई सगा-संबंधी भी पुलिस की वर्दी में आपसे मिलने आपके घर आ tजाए तो मौहल्ले भर में तुरंत ही आपके बारे में कानाफूसी और चर्चे शुरू हो जाएंगे | अब क्या बताऊँ आपको, मेरे पिता जी- स्व० श्री रमेश कौशिक, सीधे-साधे व्यक्ति पर अत्यंत प्रख्यात साहित्यकार, दर्जनों पुस्तकों के लेखक और कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार प्राप्त कवि, उनका इन दफ्तरी झमेलों और तिकड़म-बाजियों   से दूर-दूर का कोई सम्बन्ध नहीं | वह तो एक सरकारी संस्थान – दिल्ली परिवहन निगम में हिन्दी अधिकारी के पद पर सेवारत थे | सरकारी नौकरी भी मजबूरी वश ही कर रहे थे क्योंकि उनकी सोच थी कि केवल कविता के दम पर परिवार नहीं पाला जा सकता | अब हुआ कुछ यूं कि वर्ष1973  में उनका एक कविता संग्रह ‘चाहते तो ...’ प्रकाशित हुआ | उस कविता संग्रह में ही चार पंक्तियों की कविता थी जिसका शीर्षक था संसद |  तो भाई लोगो, वैसे तो कविता  रूमानियत से भरी होती है लेकिन  कभी-कभी इतनी विस्फोटक और हंगामेदार भी  हो जाती है कि स्वयं कवि को भी लेने के देने पड़ जाते हैं |  यह भी कुछ ऐसा ही मामला था|  कविता कुछ इस प्रकार से थी ;-
          संसद

          संसद
 
         एक दल-दल है 
          जहाँ हर मेंढक
 
          कमल है |

उक्त कविता पर इतनी तीखी प्रतिक्रया तत्कालीन सत्ताधारी राजनीतिक नेताओं द्वारा हुई कि उस कविता में निहित व्यंग को पचा भी नहीं सके | अपने खिसियाहट भरी खीज को उन्होंने संसद में प्रश्न पूछ कर निकाला | नतीजा कार्यालय की तरफ से बेचारे कवि के नाम चार्ज-शीट जारी हो गयी | नौकरी पर बन आई | कसूर केवल यह कि सरकारी नौकरी में होते हुए भी आपने संसद के प्रति अवमानना का भाव कविता के माध्यम से प्रदर्शित किया | अब अगर कवि के स्थान पर कोई भ्रष्ट रिश्वतखोर नौकरशाह होता तो ले-देकर बेधड़क साफ़ निकल जाता | किसी ज्ञानी संत ने कहा भी  है कि रिश्वत लेते पकड़े जाओ तो रिश्वत देकर छूट जाओ पर यहाँ तो लेखनी की मार के सताए लेखक को स्वयं लेखनी भी संकट से नहीं उबार पाती है | मरता क्या न करता .....नौकरी बचाने के लिए  उस कविता के संदर्भ में मिली चार्जशीट के जवाब में जो स्पष्टीकरण  अफसर-कवि ने दिया वह जितना विद्वतापूर्ण है उससे कहीं अधिक रोचक भी है | कविता तो आप पढ़ ही चुके हैं, अब आप उस जवाब को भी पढ़ लीजिए : 
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उपाध्यक्ष महोदय ने मेरे कविता संग्रह “चाहते तो ...’ की कविताओं के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण मांगा है | इससे पूर्व कि मैं रचनाओं के सम्बन्ध में कुछ कहूँ, यह बताना चाहूँगा कि साहित्य-क्षेत्र में मेरे अनेक विरोधी हैं|अभी पिछले दिनों अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने मेरी रचनाओं की प्रशंसा की है | इस प्रशंसा को मेरे विरोधी पचा नहीं पा रहे हैं | इसलिए हानि पहुंचाने के उद्देश्य से वे बहुत से षडयंत्र रच रहें हैं |

दूसरे मेरी कविताएं साहित्य के अंतर्गत आती हैं | मैंने ईमानदारी और सच्चाई से अपने कवि-धर्म का पालन किया है | महात्मा गांधी ने भी तो यही कहा है कि धर्म-पालन के रास्ते में मुसीबतें भी आयें तो डरना नहीं चाहिए | मेरी कविताओं को आपत्तिजनक मानने का कोई कारण नहीं है |

संसद कविता के सम्बन्ध में मेरा मत इस प्रकार है :-

संसार में संसद की परम्परा हज़ारों वर्ष से चली आ रही है | यह शब्द ऐसा नहीं है, जो केवल भारतीय संसद के लिए ही प्रयोग हो| ज्ञान मंडल लिमिटेड, वाराणसी से प्रकाशित ‘ वृहत हिन्दी कोश’ में संसद के जो अर्थ दिए हैं, वे इस प्रकार हैं :-
सभा, न्यायालय, न्याय, धर्म की सभा , चौबीस दिन चलने वाला एक यज्ञ, समूह, राशि, साथ बैठने वाला, यज्ञ में भाग लेने वाला |

उपर्युक्त अर्थों में कोई भी अर्थ ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि संसद भारतीय पार्लियामेंट को ही कहते हैं | इस छोटी सी रचना में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे भारतीय संसद के सम्मानित सदस्यों के आदर में कुछ कमीं होती हो | ‘दल-दल’ शब्द का अर्थ कीचड़ ही क्यों लिया जाए ? ‘दल-दल’ दो शब्द हैं, एक नहीं |बीच का डेश इसी लिए लगा है | संसद में अनेक दल होते हैं, इसे कौन अस्वीकार करेगा | रही बात मेंढक शब्द की, जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति है | उन्हें क्यों आपत्ति है, यह मेरी समझ में नहीं आता| गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण में लिखा है –

ईश्वर अंश जीव अविनाशी


चेतन अमल सहज सुख रासी

ईश्वर का जो अंश एक साधारण आदमी, या एक सम्मानीय सदस्य में है,वही मेंढक में भी है | हमारा अहं (ego) ही हमें दूसरों से अपने को श्रेष्ठ समझने के लिए बाध्य करता है, जो भ्रम है | भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० राधाकृष्णन ने भी अपनी किसी पुस्तक में लिखा है कि यदि किसी पशु से भी पूछा जाए कि संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कौन है, तो वह अपने को ही बतायेगा | वास्तविकता से देखा जाए तो तुलना से मान-सम्मान का प्रश्न पैदा नहीं होता | यदि देखा जाए तो तुलना मेंढक से न होकर कमल से है | अपने देश में किसी की कमल से समानता कर दी जाए तो प्रसन्नता ही होनी चाहिए |

यदि यह मान भी  लिया जाए कि तुलना मेंढक से है तो ‘मेंढक’ शब्द का अर्थ यह भी है  - जो अपने ‘मैं’ को ढ़क  ले, यानी जो अपने अहं को ढक कर कमल की भांति ऊपर उठे | इस अर्थ से भी सदस्यों के गौरव में वृद्धि होती है|

जीव-विज्ञान और चिकत्सा-शास्त्र के विद्यार्थी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि मेंढकों के बलिदान ने मानवता की कितनी सेवा की है | इन सीधे-सच्चे जीवों की प्राण-आहुति पर ही आज की सर्जरी की नींव खड़ी है | ठीक ऐसे ही जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों पर हमारी आजादी का महल खड़ा है | इस जीवों से समानता किसी के लिए भी गर्व का कारण हो सकती है |
इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास की एक और चौपाई का उल्लेख करना चाहूँगा | उन्होंने रामायण में लिखा है :-

दादुर धुनी चहुँ ओर सुहाई 


वेद  पढ़ेऊ जिमी वटु समुदाई 

इन पंक्तियों में ‘ दादुर-धुनि’ यानी मेंढकों की आवाज की ‘वेदवाणी’ से तुलना की है | वेदवाणी को हमारे देश में ईश्वरीय या ऋषि वाणी मानते हैं | वेद सर्वत्र समादरणीय हैं | किन्तु पिछले 400 वर्षों के इतिहास में एक भी व्यक्ति ने तुलसीदास पर यह आरोप नहीं लगाया कि मेंढकों की आवाज की वेद – वाणी से तुलना करके कवि ने वेदों का अपमान किया है | यही स्थिति मेरी कविता के सम्बन्ध में भी है | मैं इस बात को जोर देकर फिर कहना चाहूँगा कि इससे संसद सदस्यों के सम्मान में किसी भी प्रकार की कमीं नहीं हुई |

अंत में, मैं यह कहना चाहूँगा कि मुझे अपने देश, संसद, जनतंत्र और बापू जैसे महापुरुषों पर गर्व है | रचानाओं के पीछे मेरी ऐसी भावनाएं नहीं रहीं जिससे इनके सम्मान में कमी हो | मैं आशा करता हूँ, मेरे इस स्पष्टीकरण से उन भ्रमों का निवारण हो गया है, जो मेरे विरोधियों द्वारा फैलाए जा रहे हैं |               
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कहने की बात नहीं इतना सब स्पष्टीकरण देने के बावजूद भी वही हाल रहा कि  भैंस के आगे बीन बजाए भैंस खड़ी पगुराय |  स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं माना गया फिर भी गनीमत रही कि केवल चेतावनी पत्र से ही जान छूटी और नौकरी जाने का खतरा टल गया | इस पूरे  प्रकरण को पढ़ कर उस त्रासदी का अनुभव किया जा सकता है जिसमें से एक लेखक की सच्चाई बयान करती कलम को सत्ता और नौकरशाही का मदमस्त हाथी अपने पांवों तले कुचलता चला जाता है और वह भी केवल इसलिए कि उसके सर पर सरकारी डंडा सवार है |  बेचारा लेखक तो केवल यही गुनगुना कर रह जाता है –


      वो ना  समझे हैं ,


ना समझेंगे मेरे दिल की बात

या इलाही ये माजरा क्या है ?


  

Saturday, 1 December 2018

नसीहत मौत की


आज इस खतरनाक शीर्षक वाले आपबीती किस्से को सुनाने का मेरा इरादा आपको डराने का तो कतई नहीं है | हाँ यह बात अलग है अगर ठीक समझें तो कभी ठन्डे दिमाग़ से विचार जरूर कर लीजिएगा उस खौफ़नाक नसीहत पर जिसे मेरी तरह शायद आपने भी कभी महसूस किया हो |

“एक थी केरी” की कहानी आप तक पहुंचाने के बाद काफी समय से दिमाग में एक खालीपन और दिल में उदासी सी थी |केरी की कहानी एक ऐसी आपबीती थी जिससे मैं काफी गहराई से भावनात्मक रूप से जुड़ा था इसलिए बाद में भी काफी दिनों तक दिल था कि एक अड़ियल टट्टू की तरह से अड़ा हुआ था | लिखने के दौरान पुरानी बातों का याद और घाव फिर से हरे हो गए और ऐसी स्थिति में खाली दिमाग़  और उदासी ने आलस का रूप कुछ ऐसा लिया कि लगा अब शायद जल्द ही कुछ नया न लिख पाऊँ |  ना तो कुछ लिखने का मन कर रहा था और दिमाग़ भी कुछ लिखने का संकेत नहीं दे रहा था | शायद ऐसी ही स्थिति आगे भी काफी दिनों तक चलती रहती अगर परिवार में अचानक एक दुखद हादसा न हुआ होता | बात अजीब सी लगती है पर कई बार नया दुःख ही आपको पुराने  दुःख से उबारने का कारण भी बन जाता है | हुआ कुछ यूं कि निकट  परिवार के ही एक अत्यंत प्रतिभावान , प्रभावशाली युवक गिरीश पाराशर की दुखद परिस्थितियों में एक सड़क दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गयी | इस हादसे ने एक तरह से सभी को बुरी तरह से झकझोर दिया | दरअसल गिरीश के बारे में पता चला कि वह काफी समय से अपने घर परिवार और बीवी-बच्चों से अक्सर हास-परिहास में ही पूछा करता था कि अगर मैं भविष्य में मर गया तो तुम क्या करोगे | यह  रोज का हंसी-मजाक उसकी दिनचर्या का हिस्सा ही बन चुका था | पेशे से फौजदारी के मुकदमें लड़ने वाले वकील के ज़हन में यह अजीबोगरीब फितूर कैसे बैठ गया था मैं समझ नहीं सका | पर अंत में इस हंसी-ठिठोली के बदले  हासिल क्या हुआ सिवाय एक दर्दनाक अकाल मृत्यु और पीछे छूट गए परिवार पर पहाड़ जैसे असीम दुःख का अनंत सागर | गिरीश की बेख़ौफ़ मस्त-मलंग  ज़िंदगी की बानगी आपको उसके फोटो की झलक मात्र  देखने से  ही मिल जायेगी|  
ॐ शान्ति : स्व० गिरीश पाराशर 
वैराग्य यूँ तो कई तरह का होता है पर इनमें से एक ख़ास किस्म होती है जिसे कहते हैं शमशान वैराग्य | यह वह क्षणिक वैराग्य होता है जिसे आप अस्थायी रूप में तब तक ही महसूस करते हैं जब तक शमशान भूमि की सीमा में हैं | तब आपको जीवन क्षण भंगुर पानी का बुलबुला और सारा संसार माया-रूपी महाठगनी नज़र आता है |  इसके बाद आप जैसे ही आप मुर्दघाट से बाहर, वैराग्य के सारे ख़याल भी दिमाग से बाहर| खोपड़ी  में अगर कुछ रह जाता है तो वही पहले वाली उधेड़बुन, उछलकूद और खुराफ़ातें | कुछ ऐसे ही दुखद समय में मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आ-गयी थी जो अपने पीछे सदा के लिए मेरे लिए एक बहुत बड़ी नसीहत छोड़ गयी  |  

यह बात है आज से लगभग पंद्रह वर्ष पुरानी | उन दिनों नया-नया कंप्यूटर खरीदा था | सीखने का शौक था सो हाथ साफ़ करता रहता था | पर मुझे विशेष आनंद आता था हिन्दी में काम करने में जो कि उन दिनों एक तरह से मेरी आवश्यकता भी थी | मेरे पूज्य पिता स्व० श्री रमेश कौशिक हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार रहे हैं | हर काम को योजनाबद्ध और साफ़-सुथरे ढंग से करने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली| उनके कविता संग्रह अक्सर प्रकाशित होते ही रहते थे| उनकी हस्तलिखित कविताओं को कंप्यूटर पर टाइप करके व्यवस्थित रूप में प्रकाशक के पास भेजने की जिम्मेदारी एक तरह से मेरी ही थी | जब कविताओं का टाइप किया हुआ प्रिंट उनके सामने लेकर जाता था तो उसे देख कर उनकी आँखों में जो आत्मतुष्टि और प्रसन्नता की चमक आती थी उसे महसूस करने वाला शायद मैं ही एकमात्र गवाह हूँ | बस यह समझ लीजिए कि उनकी उस मुस्कराहट और आँखों की चमक देखने मात्र से ही मैं अपनी सारी थकावट भूल जाता और लगता सही मायने में हिन्दी टाइपिंग सीखने की मेरी मेहनत सफल हो गयी | अंगरेजी के मुकाबले में हिन्दी की टाइपिंग उन दिनों भी कुछ ज्यादा ही कठिन होती थी इसलिए नियमित रूप से अभ्यास भी करता रहता था| अपने मन में जो भी आता वही  सीधे-सीधे टाइप करने लगता चाहे किसी फ़िल्मी गीत के बोल हों या कोई ऊलजलूल काल्पनिक चिट्ठी-पत्री| एक दिन ऐसे ही जब कंप्यूटर-अभ्यास पर बैठा तो पता नहीं खोपड़ी में कौन सा जिन्न  आ कर बैठ गया कि मैं एक अज्ञात शक्ति के वशीभूत मानों मंत्रमुग्ध अवस्था में लिखता चला जा रहा था | जो भी मैंने लिखा उसका काफी हद तक मज़मून मुझे आज भी याद है :

                    शोक समाचार 

आप सबको अत्यंत दुःख से सूचित किया जाता है कि श्री मुकेश कौशिक का निधन आज हो गया है | दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए शाम चार बजे सनातन धर्म मंदिर में प्रार्थना सभा रखी गयी है | 

                                             शोक संतप्त परिवार 

जब इतना सब बेसिर पैर का लिखे जा रहा था तब पता ही नही चला कब मेरे पीछे चुपचाप श्रीमती जी आ- कर खड़ी हो गईं | उन्होंने पीछे से ही एक सरसरी नज़र कंप्यूटर स्क्रीन पर डाली और मेरी और कुछ अजीब नज़रों से देखा | उनकी अचम्भे से भरी आँखों में गुस्सा, विस्मय और असमंजस का ऐसा सम्मिश्रण था कि एक बारगी तो मैं सहम गया | उन्होंने सीधे-सपाट शब्दों में प्रश्न किया “ यह सब क्या हो रहा है” | अब मैं पूरी तरह से हक्का-बक्का, जवाब दूँ भी तो आखिर क्या | अगर सच बताता भी हूँ कि मुझे खुद कुछ नहीं पता कि यह सब मैंने कैसे लिख दिया तो उस बात पर यकीन कौन करेगा | खैर किसी तरह से पूरी शक्ति जुटा कर मरियल सी आवाज में इतना ही बोल सका कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में टाइप करने का अभ्यास कर रहा था | जवाब में उन्होंने बस इतना कहा कि यह सब ठीक नहीं और इतना कहकर अपने पाँव पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गयीं और मैं पीछे बैठा अकेले में काफी देर तक सोचता रहा कि आखिर हुआ तो हुआ क्या और यह सब गड़बड़-झाला कैसे हो गया | मुझे आज तक याद है कि उस रात श्रीमती जी ने मुझ से सीधे मुंह बात भी नहीं करी |

खैर इसके बाद बीती रात की रात गयी- बात गयी और अगले दिन फिर नई सुबह और फिर से वही दिनचर्या| नियत समय पर दफ़्तर के लिए निकल पड़ा | उन दिनों मेरा आफिस दिल्ली के लोदी रोड स्थित स्कोप कॉम्प्लेक्स  पर था | रोज तो चार्टेड बस से जाया करता था पर उस दिन आफिस से बाहर का भी कुछ काम था इसलिए स्कूटर निकाल लिया जो-कि मेरे लिए कार की बनिस्पत अधिक किफायती और सुविधाजनक था | आफिस में दोपहर तक काम-काज निबटाने के बाद दफ्तर के ही कोर्ट केस के सम्बन्ध में वकील से बातचीत करने लाजपत नगर के लिए स्कूटर पर चल पड़ा | दोपहर के लगभग ढाई बज रहे थे और सड़क पर ट्रेफिक की कोई ख़ास भीड़-भाड़ भी नहीं थी | जाहिर सी बात है जब सडकों पर यातायात का दबाव कम होता है तो गाड़ियों की रफ़्तार भी खासी तेज़ हो जाती है | अपने स्कूटर पर ठंडी हवा का आनंद लेते हुए सोचता हुआ जा रहा था कि वकील साहब से मिलने के बाद वहीं से सीधे घर के लिए उड़न-छू हो जाऊँगा | घर पर रोज के नियत समय से एक घंटा पहले पहुँचने की कल्पना मात्र दिल को इतनी बेहिसाब खुशी दे रही थी जितनी राजनीति के पहुंचे हुए किसी दिग्गज महा-खुर्राट भ्रष्ट नेता को करोड़ों का घोटाला करने पर भी प्राप्त नहीं हुई होगी | पर घूम फिर कर बात वहीं आ कर अटक जाती है कि घोटाला तो आखिर घोटाला ही होता है चाहे छोटा हो या मोटा | जब वक्त बुरा आता है तो चोट बहुत गहरी लगती है | अब तक मैं  मूलचंद के फ्लाईओवर के पास ही पहुंचा था कि अचानक पीछे से एक जोर की आवाज़ के साथ स्कूटर में एक धक्का सा महसूस हुआ | जब तक मैं कुछ समझ पाता एक और धमाके की आवाज के साथ लोगों का कुछ शोर भी सुनाई दिया | चलते स्कूटर में पीछे मुड़कर देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं था सो रियर व्यू मिरर ( जिसे शुद्ध हिन्दी में आप पिछाड़ी दर्शन दर्पण भी कह सकते हैं ) में ताका तो देखते ही होश उड़ गए | दरअसल मेरे पीछे से आते हुए एक तेज़ रफ़्तार स्कूटर ने ओवरटेक करने के चक्कर में अनियंत्रित होकर मेरे स्कूटर में बहुत जोर से टक्कर मारी थी जिससे मेरा संतुलन तो नहीं बिगड़ा पर वह बदनसीब खुद को नहीं संभाल पाया| वह बीच सड़क पर तेज गति से दौड़ते ट्रेफिक के बीच बुरी तरह से चोटिल होकर गिरा पडा था | मैंने भी तुरंत अपना स्कूटर सड़क के किनारे खड़ा कर दिया और एक बार फिर से बीच सड़क पर पड़े हुए उस घायल व्यक्ति को देखा | उसका स्कूटर एक ओर पड़ा था और ढीला-ढाला हेलमेट सर से उतर लुढ़कते हुए दूसरी तरफ बाकायदा मंदिर के पवित्र गुम्बद की भांति बीच सड़क  पर स्थापित हो चुका था | इस बीच में कुछ गिने-चुने  मददगार लोगों का समूह दौड़ कर उस घायल आदमी को सड़क किनारे तक लाने के लिए दौड़ पड़ा| 

यह सब देख कर घबराहट के मारे मेरी टांगे काँप रहीं थी, दिल घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रहा था और साँसे धौंकनी की तरह चल रही थीं | यद्यपि पीछे से टक्कर मुझे ही लगी थी पर उस तेज रफ़्तार अनियंत्रित स्कूटर सवार की चोटों को देखकर मुझे ही लग रहा था मानो इस दुर्घटना के लिए भी मैं ही जिम्मेदार हूँ| मददगार लोगों ने उस शख्स को पानी पिलाया, हिम्मत बंधाई, स्कूटर और हेलमेट थमाया | आज सोचता हूँ कि उन दिनों मोबाइल इतना प्रचलन में नहीं था वरना मदद करना तो दूर सारे मिलकर मोबाइल पर विडिओ बना रहे होते |  कुछ समय के बाद उस घुड़दौड़ के माहिर स्कूटर चालक ने अपनी कटी-फटी  काया से लंगडाते हुए टूटा-फूटा स्कूटर उठाया और घसीटते हुए चल दिया निकट के किसी मिस्त्री की खोज में | क्योंकि आफिस के काम का मामला था सो बिना और वक्त गवांये मैं भी वहां से एक तरह से नौ-दो-ग्यारह ही हो लिया |

कहने को तो मैंने वकील साहब के साथ उनके आफ़िस में बैठ कर मीटिंग करी पर दिमाग़ में कुछ देर पहले हुए हादसे का ऐसा असर था कि सारा वार्तालाप बेअसर था | थोड़ी ही देर बाद मैं घर के लिए रवाना हो गया | घर पहुँचने पर मेरे चेहरे की उड़ी-उड़ी से रंगत देख कर श्रीमती जी ने कारण जानना चाहा तो टाल –मटोल करके तबियत खराब होने का बहाना बना कर छुटकारा पा लिया |

रात के गहन सन्नाटे में जब रोज की तरह से कंप्यूटर डेस्क पर बैठा तो अचानक लगा जैसे की-बोर्ड पर उंगलियाँ सुन्न पड़ गई हैं | दिमाग़ भी जैसे इस दुनिया से पूरी तरह से कट कर किसी और ही दुनिया से आने वाले सन्देश ग्रहण करा रहा था | कानों में किसी दूर अंधे कुँए से आती हुई बर्फ से भी ठंडी थरथरा देनी वाली आवाज़ गूंज रही थी ....... 
"कैसी रही आज की थपकी | यह तो मेरी झलक मात्र थी | मैं मौत हूँ ...... गलती से भी मुझे कभी हल्के  रूप में लेने की गलती मत कर लेना | मैं कोई हंसी-मजाक की चीज नहीं हूँ और हंसी-मज़ाक मुझे कतई पसंद नहीं, बर्दास्त नहीं | तुम्हारी किस बात का मैं कब बुरा मान जाऊं, मुझे खुद भी पता नहीं | मुझसे सावधान रहना, होशियार रहना इसीमें तुम्हारी भलाई है | फिलहाल के लिए इतना ही काफी है| यही मेरी नसीहत है और यही चेतावनी | ”

हड्डियों तक को जमा कर भयभीत कर देने वाली उस बर्फीली आवाज़ की गूंज को, जिसे सुनकर मैं तब भी ठंडे पसीने में नहा गया था, मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ | उस दिन मौत जैसे मेरे पास से कोई अनजान सा इशारा करते-करते सरसराती हुई निकल गयी थी | स्वभाव से  विनोद-प्रिय होने के बावजूद उस मनहूस दिन से आज तक  मैंने फिर कभी अपने जीवन में मौत को हंसी मजाक का हिस्सा नहीं बनाया या सच बोलूँ तो इतना डर गया था कि हिम्मत ही नहीं पड़ी |   

इस घटना का मैंने आज तक इस डर से कहीं जिक्र नहीं किया कि लोग मुझे शायद सिर-फिरा समझें, पीठ-पीछे पागल भी कहें पर सड़क दुर्घटना में मारे गए गिरीश के हादसे ने मुझमें इतनी हिम्मत दी कि बरसों पहले महसूस की उस रोंगटे खड़े कर देने वाली आवाज से आपको जरूर वाकिफ़ करवा दूँ | हो सकता है शायद मौत की नसीहत से सीख ले-कर बेवक्त मौत के आग़ोश में जाने से कोई बच ही जाए | फिलहाल तो यही कह सकता हूँ : गिरीश पाराशर! ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शान्ति दे |

Wednesday, 28 November 2018

एक थी केरी ( पार्ट 2 ) ..... शेष भाग

एक थी केरी के पिछले भाग 1 में आपने पढ़ा कि हिमाचल प्रदेश के सुदूर पर्वतों और जंगलों के बीच स्थित राजबन सीमेंट फेक्ट्री में अपनी पोस्टिंग के दौरान किस प्रकार से एक छोटे से खिलोनेनुमा केरी नाम के पिल्ले ने मेरे एकाकी जीवन में बहार और रोचकता ला दी थी | बाद में मजूबरीवश मेरे नोएडा में बसे परिवार ने चम्पू नामके छोटे से कुत्ते को भी मेरे पासही हिमाचल प्रदेश ही भेज दिया जहां पर मैं, केरी और चम्पू तीनों की ही जिन्दगी की गुजर-बसर आपस में मिल-जुल कर आराम से हो रही थी | अचानक एक दिन दिल्ली मुख्यालय के लिए मेरे ट्रांसफर आर्डर आ गया | मेरे दिमाग में पहला ख्याल आया अब दिल्ली जैसे शहर जाने से पहले केरी और चम्पू का क्या इंतजाम करूँ | इसी सवाल के जवाब खोजने की उधेड़बुन में मेरा दिमाग मानों एक शून्य में खोता जा रहा था | 
बाद में क्या हुआ केरी और चम्पू का ....... पढ़िए अब आगे .... 

केरी
दिल्ली / नोएडा जैसी जगह में आदमी खुद और बाल-बच्चों का ही पालन पोषण कर ले यही बड़ी बात है, कुत्ते-बिल्ली पालना तो दूर की सोच है जी हर किसी के बस में नहीं | और यहाँ तो एक नहीं, दो-दो आफत के प्यारे से पुलिंदे थे जो मेरे गले में घंटी की तरह से बंधे थे | पूरी रात करवट बदलते, परेशानी और दुविधा में ही कटी | मेरा हाल उस बच्चे की तरह से था जो अपनी जान से प्यारे खिलोने अपने साथ लेकर जा नहीं सकता और पीछे छोड़ भी नहीं सकता | बस कुछ ऐसा भी समझ सकते हैं मानो गले में फँसी हड्डी जो न उगलते बन पा रहा था न निगलते | 

बहुत सोच-विचार और घर-परिवार से सलाह- मशवरे के बाद यह तय किया गया कि हिमाचल की केरी यहीं रहेगी गेस्ट हाउस अटेंडेंट रणदीप भाई के पास और दिल्ली का चम्पू मेरे साथ ही वापिस जाएगा | रणदीप भाई केरी से पहले ही बहुत अच्छी तरह से वाकिफ़ थे और बहुत ही खुशी से उसे अपने पास रखने को तैयार थे | उनका गाँव का घर भी कॉलोनी के पास ही था | अपनी तरफ से जो मैं बेहतरीन इंतजाम कर सकता था मैंने किया पर फिर भी दिल के किसी कोने में कुछ-कुछ खालीपन, अपराध बोध और आत्म ग्लानि का एहसास दिल को कचोट रहा था| फिर वह उदास शाम भी आखिर आ ही गई जब एक बेग में केरी का सामान जैसे बाल काढ़ने का ब्रश, खिलोने, वक्त जरूरत की दवाइयां, नहलाने का ख़ास शेम्पू, खाने के बिस्किट और बिछोना आदि भर कर बुझे मन से केरी को कार में बैठा कर पास के रणदीप के गाँव की ओर चल दिया | रणदीप भाई के उस गाँव के घर तक पहुंचते हुए अन्धेरा हो चुका था और वहां केरी को उतारते हुए अपनी पलकें कुछ भीगी से और आँखें धुंधली महसूस हो रहीं थी | दिल पर तो लग रहा था जैसे किसी ने चट्टान का वजन रख दिया हो | गाड़ी को वापिस मोड़कर अपने घर की ओर आगे बढाते समय उस नीम अँधेरे में भी मुझे रियर व्यू मिरर में गाडी एक परछाई सी भागती नज़र आई | वह केरी ही थी जो कुछ दूर तक भागने के बाद थकी – हारी बेबस होकर सड़क पर ही बैठ गयी और धीरे-धीरे अँधेरे में ओझल हो गई  | 
अगले कुछ दिन सब कुछ ठीक ठाक ही रहा | घर पर सिर्फ मैं और चम्पू जी, पर सच बात तो यही थी कि अन्दर से हम दोनों को ही केरी की कमीं खल रही थी | पर इधर राजबन छोड़ने के दिन भी धीरे-धीरे नजदीक आ रहे थे | एक दिन दफ्तर से जब लंच टाइम में घर आया तो देखा बाहर ही बागीचे में चम्पू और केरी उधम मचा रहे थे | मैं अब चक्कर में कि इसे इतनी दूर मैं छोड़ कर आया पर यह वापिस कैसे फिर आ गई | पता चला कि उस दिन रणदीप भाई का जबरदस्ती चुपचाप पीछा करते-करते गाँव से कॉलोनी तक का रास्ता देख लिया और इस तरह पहुँच गई अपने पुराने ठिकाने पर | खैर उसी शाम से फिर रोज ही वह अनारकली पट्टे –जंजीर में कैद हो कर रोज रात को गाँव के घर भेज दी जाती पर हर सुबह बिला नागा वह फिर अपने आप ही हाज़िर हो जाती | यह चोर-सिपाही का खेल मेरे राजबन के बचे-खुचे दिनों में चलता रहा | 

आखिरकार वह दिन भी आ गया जब मेरे जाने का दिन आ पहुंचा | घर में सामान की पेकिंग चल रही थी | सभी कमरों में मजदूर काम पर लगे थे | अब यह सब देख कर केरी परेशान | कहते हैं जानवरों की संवेदनशीलता हम इंसानों से भी अधिक होती है | आपको बस वह आँखें और दिमाग चाहिए जो उनके उस प्यार और भावना को देख और समझ सके | केरी बार-बार एक कमरे से दूसरे तक जाती, उन बंधे हुए सामानों के ढेर को देखती और फिर वापिस मेरे कमरे में आ कर प्रश्न वाचक उदास नज़रों से मुझे देख कर मानों मुझ से कुछ पूछना चाहती कि ” आखिर क्यों कर रहे हो मेरे साथ ऐसा | मुझे छोड़ कर कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो |” उस बेचारी को मैं अपनी मजबूरी भला क्या बताता, बस अपनी आँखे चुराता हुआ खामोशी से कमरे के बाहर निकल गया | मेरे लिए आज भी उस मंजर को याद करना किसी घोर मानसिक यंत्रणा से कम नहीं है | आप जब इन शब्दों को पढ़ रहे होंगें, पता नहीं अंदाजा कर पाएंगे या नहीं, इस को लिखने के समय याद आए उस दृश्य की महज याद मात्र मेरी आँखें गीला करने के लिए पर्याप्त हैं | 

ट्रक में सामान लदना शुरु हो गया था | कुछ देर तक यह सब देखती हुई केरी ने खाली कमरों का एक-एक करके चक्कर लगाया और उसके बाद मुझे मानों शिकायती नज़रों से देखती हुई वहां से गायब हो गई | ट्रक भी सामन लेकर रवाना हो गया | मुझे भी रात को ही नोएडा के लिए निकल पड़ना था | जाने से पहले मेरे पुराने साथी प्रमोद सतीजा ने रात के डिनर पर बुलाया | रात को खाना खाते-खाते यही कोई नौ बज चुके थे| खाना खा कर बाहर निकला तो सड़क पर ही कॉलोनी के ही पंद्रह –बीस साथियों का समूह इंतज़ार कर रहा था मुझे विदाई देने के लिए | दिल में बिछड़ने का दर्द लिए एक –एक करके सभी साथियों से हाथ मिला रहा था,गले मिल रहा था | सड़क पर खड़े-खड़े ही एक नज़र दूर अँधेरे में घिरे उस घर की ओर डाली जिससे मेरी पता नहीं अतीत की कितनी यादें जुड़ी हुई थी | कार में अब मैं दरवाज़ा खोल कर बैठने ही वाला था कि अचानक क्या देखता हूँ पता नहीं कहाँ से केरी दूर से दौड़ती हुई आ रही है | इससे पहले कि मैं संभल पता या समझ पाता, वह एक छोटे से बच्चे की तरह से आकर मेरे पैरों से ऐसे चिपट गई कि आज भी उसे याद करके मेरे आंसू झिलमिला उठते हैं | वही नन्ही से केरी जिसने कभी एक ऐसी ही सर्दी की अंधेरी रात में मुझ से आसरा मांगा था, वही छोटी से केरी जिसे मैं अपने हाथों से नहलाता था, खाना खिलाता था, खेलता था, चोट लगाने पर दवाई लगाता, आज शायद समझ चुकी थी कि अब शायद वह मुझे नहीं देख पाएगी | उसने जमीन पर बैठे-बैठे ही मेरे पांवों को इस प्रकार से कस कर जकड़ा हुआ था जैसा इससे पहले कभी नहीं किया था | शायद वह अपनी तरफ से मुझे रोकने की अंतिम चेष्टा कर रही थी | प्यार से उसके सर को सहलाते हुए , धीरे से मैंने अपने पैरों को छुडाया और भरे मन से गाडी में बैठ कर हाथ हिलाते हुए नोएडा के लिए रवाना हो गया | लगा जैसे मेरे बुदबुदाते होठों से एक मंद अस्पष्ट आवाज निकली “अलविदा प्यारी केरी| अपना ध्यान रखना | फिर मिलेंगे अगर भगवान ने चाहा |” 

नोएडा अपने घर आकर राजबन और केरी की यादें व्यस्त जीवन के कोहरे की चादर में मानो धीरे-धीरे धुंधली पड़ने लगीं | हाँ इतना जरूर था कि बीच-बीच में राजबन फोन करके केरी का हाल पूछना नहीं भूलता था | पता चला कि मेरे जाने के बाद भी वह उस घर के सामने ही बैठी रहती थी | उस कोठी में नए अफसर आ गए थे पर केरी ने फिर भी उस घर से अपना हक़ नहीं छोड़ा | जब केरी ने बच्चे दिए तो वह भी उसी कोठी के कम्पाउंड में बने गेराज में | 
कितनी मुद्दत बाद मिले हो 
दिल्ली आने के एक साल बाद मैं वर्ष 2016 में रिटायर भी हो गया | जून 2017 की बात है जब घूमते फिरते राजबन जाने का प्रोग्राम बना | पुराने साथियों से मिलने की इच्छा तो थी ही | वहां गेस्ट हाउस में ही रुकने का इंतजाम था | गेस्ट हाउस में टहलते हुए सुन्दर से बगीचे की हवा खा रहा था कि वहीं पर मुझे कुछ ऐसा लगा कि सामने से केरी जा रही है | मैंने उसे नाम लेकर पुकारा तो जाते-जाते वह ठिठक कर वहीं रुक गई | एक बार उसने वहीं दूर से मुझे मानों घूर कर देखा, लगा जैसे उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ तो फिर से मुझे पहचानने की कोशिश की और जैसे ही उसके मन का भ्रम दूर हुआ वह सीधे चीते की तरह से पूरी रफ़्तार से दौड़ते हुए मुझ पर लगभग झपट ही पडी | कूँ –कूँ की आवाज करते हुए इतनी बुरी तरह से मुझ से लिपट गई कि मानों बरसों की कमीं को आज ही पूरा कर लेगी | मैं वहाँ दो दिन ठहरा और उस पूरे समय वह गेस्ट हाउस के सामने ही बैठी इंतज़ार करती रहती | कॉलोनी में जिस किसी के यहाँ भी मिलाने जाता वह भी पूँछ की तरह से पीछे लग जाती और उस मेजबान के घर के सामने बैठी रहती | 

अभी कुछ दिन पहले ही अक्टूबर में राजबन में दुर्गा पूजा और रामलीला देखने की इच्छा थी | साथ ही सोचा माता ला देवी के मंदिर में भंडारा खाने का भी सौभाग्य मिल जाएगा | यह राजबन जाने का दूसरा मौक़ा था | पहले की तरह इस बार भी गेस्ट हाउस में ही ठहरा था | वहां पुराने सभी साथी आकर मिल रहे थे | पर मेरी आँखे थी मानो किसी और को ही ढूँढ़ रहीं थी | उसी केरी को जिससे पिछली बार चलते वक्त मुलाक़ात नहीं हो पायी थी | सोचा शायद रणदीप भाई के गाँव के घर में ही होगी | रणदीप सामने नज़र आने पर सीधे ही अनुरोध कर दिया कि केरी को अपने गाँव से यहीं एक बार ले आओ,मैं देखना चाहता हूँ |
जूनियर केरी 
रणदीप ने दूर एक खेलते हुए छोटे से पिल्ले की ओर इशारा करके बताया कि वह केरी की ही बच्ची है | मैंने फिर से जोर देकर पूछा पर केरी कहाँ है | धीमी सी आवाज में उसने बताया कि केरी अब नहीं रही | घर के सामने से गुजरती हुई स्कूल बस के नीचे आ कर अभी एक माह पहले उसकी दर्दनाक मौत हो गई | सुनकर ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया हो | पास की बेंच पर धम से बैठ गया , लगा इतनी दूर जिससे मिलने की आस लगा कर आया तो उसके लिए क्या यही सुनना था | जीते जी जिस की छोटी सी बीमारी से भी मैं इतना व्यथित हो जाता था आज उसी केरी के अंतिम क्षणों की पीड़ा के बारे में सोच कर भी काँप जाता हूँ | मेरा उस बेजुबान, निरीह प्यारी सी केरी से जो आत्मिक लगाव रहा क्या केरी ने भी अपनी आखिरी हिचकी लेते हुए उस मर्मान्तक पीड़ा के अंतिम एक क्षण में मुझे याद किया होगा? 


अलविदा प्यारी दोस्त केरी 

Tuesday, 20 November 2018

एक थी केरी : (भाग एक )


राजबन का सौन्दर्य 

बात फिलहाल की नहीं तो कोई ख़ास पुरानी भी नहीं है | वर्ष 2014  के दौरान हिमाचल प्रदेश के राजबन फेक्ट्री में उन दिनों मेरी तैनाती थी |

शहरों के भीड़-भड़क्के और शोर-शराबे से दूर बसा राजबन, पर्वतों और जंगलों के निर्मल वातावरण में  कुदरत की सुन्दरता का जीता-जागता उदहारण है | अगर आपको याद हो तो  इस देवभूमि के रोचक इतिहास की बानगी अपने लेख “सिरमौर – राजा का बन और उजाड़ नगरी में पहले भी दे चुका हूँ|  फेक्ट्री की टाउनशिप  में ही रिहायशी कोठी मिली हुई थी | पत्नी, बच्चे और अम्मा नोएडा में ही रह रहे थे पर  पारिवारिक मजबूरी कुछ ऐसी थी कि अकेले ही रहना पड़ रहा था | आप प्रकृति की खूबसूरती का आनंद भी अपने घर-परिवार के साथ ही उठा सकते हैं वरना अकेले बन्दे का तो वही हाल होता है – जोरू न जाता, अल्ला मियाँ से नाता | दफ्तर का समय तो व्यस्तता में गुजर जाता था पर शाम को अकेलेपन का अहसास कुछ ज्यादा ही होने लगता था | समय काटने के लिए दारुबाजी और यारी-दोस्ती के  जग-प्रसिद्ध घिसे-पिटे नुस्खे अपने किसी काम के थे नहीं |  ऐसे समय ही अक्सर बड़े-बूढों की कही बात दिमाग़ में गूँजा करती कि यह सब पापी पेट का सवाल है ;  जो खेल न दिखाए वही कम है | अपना शौक अखबार पढ़ने, टी.वी. देखने, घर के काम-काज और बागवानी तक ही सीमित रह जाता था और समय भी उसी में कट जाता | अब आप ही बताइये कोई भलामानस कितना तो अखबार पढेगा, कितना  टी .वी. देख लेगा और कितनी बगीचे में घास खोद लेगा | रेडियो सुनने बैठे तो गाना भी दिल जलाए – तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए |  अब पहले वाली बात नहीं रह गई है – अब तो जब  नौकरी भी लाखों की हो चुकी थी  तो उसके आगे  हमारे लिए तो सावन ही दो टके का रह गया था | बस ज़िंदगी की नीरस दौड़ में राजबन की हसीं वादियाँ भी  एक उजाड़, वीरान रेगिस्तान सी लग रहीं थीं |
केरी-चम्पू और मेरा घर  

और दिनों की तरह उस देर शाम भी दफ्तर की मगज खपाई और कलम घसीट कामकाज निबटाकर कदम घसीटते हुए थकी-हारी  चाल से  अपने घोंसले को लौट रहा था |  जाड़े के मौसम ने धीरे-धीरे दस्तक देनी शुरू कर दी थी | दिन छोटे होने लगे थे | शाम के साढ़े  सात बजे से ही कॉलोनी की सुनसान सडकों पर कर्फ्यू जैसा माहौल छाया हुआ था | हल्की-हल्की  धुंध स्ट्रीट लाईट की सत्ता को जैसे चुनौती दे रही हो | बस बेकग्राउंड में भूतों की पिक्चर के डरावने गाने की कसर थी |  मेरे लिए उस वक्त भी शापिंग सेंटर तक जाना मजबूरी थी | रोजमर्रा की तरह  सुबह के नाश्ते के लिए  खरीदारी जो  करनी थी | शापिंग सेंटर में भी बस कोई इक्का-दुक्का इंसान ही नज़र आ रहा था| दो भाइयों  विपुल-सुलभ की किरयाने की दुकान पर पहुँच कर एक कोने में चुपचाप खड़ा हो गया | दूकान के मालिक विपुल ने मुस्कराते हुए मुझे रोज का खरीद कोटा यानी एक दूध का पेकेट और एक ब्रेड हाथ में थमा दिया | वापिस जाने के लिए मैं मुड़ा और चंद कदम चलने पर ही मुझे महसूस हुआ कि मेरे पीछे-पीछे कोई आ रहा है | पलट कर देखा तो एक छोटा सा पिल्ला अपने नन्हे-नन्हे कदमों की लुढ़कती-पुढ़कती चाल से मेरे पीछे लगभग दौड़ लगा रहा है | पहली नज़र में ही उस छुटपुटे अँधेरे में भी मुझे उसकी छोटी से मासूम आँखों में पता नहीं क्या दिखा मैंने अनायास ही पुचकारते हुए होठों से ही सीटी बजा दी | बस फिर क्या था, उस नन्हीं सी जान में पता नहीं क्या जादुई शक्ति आगई और मेरा पीछा करने की उसकी दौड़ और अधिक तेज हो गई | कोठी के मेन गेट को खोल कर अन्दर घुसा तो वह नन्हा खिलौना भी मेरे पीछे | अब मुझे भी उस गरीब पर तरस आने लगा सो अंदर रसोई से कुछ बिस्किट लाकर उसे खिलाने लगा | शायद वह काफी भूखा था इसलिए जीभ के चटकारे लेते हुए आनन-फानन में चार –पांच बिस्किट चट कर गया | उसे बाहर बरामदे में ही छोड़कर मैंने अन्दर बेडरूम का दरवाज़ा बंद कर लिया और सोने चला गया |
फेक्ट्री का ड्यूटी टाइम सुबह सवेरे आठ बजे से था, इसलिए मेरी दिनचर्या भी प्रात: छह बजे से ही शुरू हो जाती थी |सोकर उठा तो कुछ आहट सुनकर दरवाजा खोला,  सामने बरामदे में वही रात वाला दुबला पतला खिलौना ठण्ड में काँपता, सहमा सा अपनी चिंदी सी  आँखों से मुझे टुकुर-टुकुर ताकते हुए मानों कुछ कहना चाह रहा था | मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि करूँ तो क्या करूँ | खैर इतना तो समझ ही गया कि इसे भूख लगी है सो एक कटोरी में दूध और ब्रेड मिलाकर दिया|स्वाद से खाकर एक कुम्भकर्णी  संतुष्टी की नींद लेने के लिए वह फिर से नींद बाहर बागीचे के हरी-हरी घास पर ही लोट लगाकर सो गया | मैं भी कुछ देर बाद तैयार होकर आफिस के लिए निकल लिया | फेक्ट्री और कॉलोनी अगल-बगल होने के कारण दोपहर का लंच घर पर ही आकर किया करता था | दोपहर को घर पहुँचा तो  वह बिन-बुलाया मेहमान मेन गेट पर ही मेरे स्वागत के लिए मानों तैयार खड़ा था | उसे देखकर अब मानों मेरे दिमाग की खतरे की घंटी ने बजना शुरू कर दिया कि पंडित जी तुम्हारे अपने खाने का इंतजाम तो जैसे-तैसे होता है अब इस चमगादड़ से जान कैसे छुडाओगे | खैर उस गले पड़ी बला को दोपहर का लंच भी बाकायदा करवाना ही पड़ा | उसी दिन मुझे आफिस के जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा जोकि मेरे लिए दोगुनी खुशी का कारण था | पहला दिल्ली  में अपने परिवार से मिलने का मौक़ा और दूसरा इस चिपकू बला से  फिलहाल के लिए ही सही पर छुटकारा |
दिल्ली में मेरे पांच दिन कैसे फुर्र से निकल गए पता ही नहीं चला | वापिस राजबन आया तो बंगले के मेन गेट पर पहुँचते ही एक जबरदस्त जोर का झटका धीरे से लगा | वह छोटा सा पिल्ला अभी भी बरामदे में बाकायदा धरना देकर बैठा था | मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि धरना देने की कला इसने धरना कुमार मुख्यमंत्री  से सीखी या  उन्होंने  स्वयं इसे गुरु माना | मेरे सोचने-समझने की क्षमता लगभग समाप्त हो चली थी | पता नहीं इतने दिन उसने क्या खाया, कैसे रहा | पर एक बात मेरा अन्तर्मन साफ़ इशारा कर रहा था कि यह गले पडी बला अब आसानी से पीछा कतई नहीं छोड़ने वाली | अभी घर में अन्दर घुसा ही था कि पीछे-पीछे  गेस्ट हाउस अटेंडेंट रणदीप भी आ गया | दिल्ली जाने से पहले मैं उसे सुरक्षा की दृष्टि से ताकीद कर गया था कि बीच –बीच में  घर पर नज़र रखना | आते ही उसने दो बातें बताईं | पहली कि मेरे पीछे इस बिन बुलाए धरना-सम्राट को खाना वह ही खिला देता था | और दूसरी बात यह कि यह खिलौना मेहमान पिल्ला  नहीं वरन पिल्लिया थी | खैर मेरे लिए इस सब से कोई अंतर नहीं पड़ रहा था क्योंकि अब तक उसे टालने के - आलतू जलालतू आई बला को टाल तू- जैसे मेरे अभी तक के सभी  मन्त्र बेकार साबित हो रहे थे | खोपड़ी की ट्यूब लाईट रह-रह कर कौंध कर यही सन्देश दे रही थी कि पंडित जी अब तुम्हारी इज्ज़त अपनी हार स्वीकार कर लेने में ही है | यह अनारकली तो बाकायदा मुगले आज़म को ही  गाना गा कर चुनौती ही दे रही है – उनकी तम्मना दिल में रहेगी, शमा इसी महफ़िल में रहेगी | उसी क्षण मन बना लिया कि यह मुसीबत तो गले पड़ ही चुकी है, अब चाहे हँस कर निभाओ या रो कर झेलो |  मेरा दिल भी मुझे समझा रहा था कि खुशी-खुशी हँसना ही सबके लिए बेहतर है जिसे मैंने तुरंत स्वीकार भी कर लिया | अब अगले ही पल वह मासूम जान  मेरे लिए वह कोई आफत, मुसीबत या बला नहीं रह गई थी बल्कि उसमें मुझे दिख रहा था एक नन्हा सा खिलौना|
अब मेरा सबसे पहला काम था इस खिलौने का नामकरण और झटपट सोच कर नाम भी रख दिया – केरी | दूसरा काम उसको स्पंज बाथ  करा के साफ़ सुथरा करना और बाहर बरामदे में ही उसके लिए पुरानी चादर और पर्दे से एक बिस्तर तैयार करके बिछाना | केरी चुपचाप एक मशीनी चाबी के टेडी बीयर की तरह से जाकर अपने बिस्तर पर अपने शरीर को गोलाकार बनाते हुए सिकुड़ कर बैठ तो गई पर ठण्ड से बुरी तरह से कांप भी रही थी | मैं भी आखिर क्या करता.... दिल ही तो था.... पसीज गया | उठाकर अपने कमरे में ही ले आया और हीटर के पास ही केरी का बोरिया बिस्तर जमा दिया |  यह थी अब तक की यात्रा केरी की जो शुरू हुई शोपिंग सेंटर से और सड़क से होते हुए मेरे घर के बरामदे और बरामदे से आखिर घर के कमरे तक फिलहाल पहुँच चुकी थी |

केरी के आने के बाद मेरी जिन्दगी की नीरसता काफी हद तक दूर होने लगी | दिनचर्या में भी काफी फर्क आया | पहले देर शाम तक दफ्तर में बैठा रहता था कि घर पहुँच कर भी क्या करना है, पर अब महसूस होता कि घर पर भी कोई इंतज़ार कर रहा है | सुबह दफ्तर जाने के समय केरी का बिस्तर बाहर बरामदे में लगा देता | वहीं पर उसके खाने-पीने के बर्तन भी रहते | कोठी का कम्पाउंड ख़ासा लंबा-चौड़ा था जिसमें हरी-भरी घास का लान और बगीचा भी था | केरी को भी यह उन्मुक्त वातावरण पूरी तरह से पसंद आ गया था | दोपहर को लंच टाइम में कोठी के बरामदे में  बैठी मिलती और मुझे देखते ही दूर से ही अपने छोटे-छोटे कदमों से हिरन की तरह से कुलांचे मारते मेन गेट पर ही मेरे पांवों से लपक कर चिपट जाती | दफ्तर की सारी परेशानियाँ और उलझनें उसके एक  स्पर्श मात्र से छू- मंतर हो जातीं | मेरे से पूरी तरह से घुल-मिल गई थी केरी | जो नाश्ता, लंच, डिनर  मैं खाता वही राशन-पानी केरी का रहता |
 
केरी 
घर का अच्छा खाना खाते-पीते केरी की सेहत भी अब धीरे-धीरे सुधरने लगी | शरारतें और दबंगपने की हरकतों में भी इजाफा हो रहा था | डर किस चिड़िया का नाम है उसे पता ही नहीं था | घर के बगीचे में कई फलदार पेड़ भी थे जिन पर उत्पाती बन्दर सेना का उत्पात होता रहता था पर केरी ने अब उन बंदरों से बाकायदा दमदार टक्कर लेनी शुरू कर दी | नतीजा यह होता कि मेरे घर से केरी द्वारा भगाए गए खिसियाए बन्दर पड़ोसी  ए.के गुप्ता जी की कोठी के आम के पेड़ों पर अपनी झुंझलाहट निकालते | बन्दर तो बन्दर, कॉलोनी, फेक्ट्री और दफ़्तर के भी किसी आदमी की क्या मजाल जो कोठी के कम्पाउंड में कदम रख दे | लोग-बाग़ मेरे घर में घुसने से पहले बाहर मेन गेट से ही   मोबाइल से फोन कर के कहते कि कौशिक जी आप से मिलने आये हैं पर पहले अपने शेर को बाँध लीजिए | एक तरह से देखा जाए तो वह मेरी पर्सनल सुरक्षा अधिकारी थी जिसके रहते घर में कोई भी आलतू-फालतू बन्दा घुस ही नहीं सकता था |  राजबन की सल्तनत में  यह था दबदबा केरी का | पर साथ ही साथ उसमें इतना अनुशासन भी था कि जब तक उसे खाने का आदेश न दिया जाए तब तक खाने के बर्तन को छूती तक नहीं थी |                                 
केरी की बदोलत मेरा समय बहुत ही मज़े में गुज़र रहा था | रविवार का दिन घर और कपडे-लत्तों की सफाई का होता, तो उसी दिन केरी की भी धुलाई-पुछाई यानी स्नान-ध्यान होता जो कि अपने आप में बड़ी कवायद होती क्योंकि पानी और केरी के बीच वैसा ही रिश्ता था जैसा आज के दिन में मोदी जी और राहुल जी के बीच है | नहलाने के चक्कर में केरी से ज्यादा मेरी खुद की धुलाई हो जाती थी |
हर-हर गंगे 

इसी बीच एक ओर घटनाक्रम के तहत हुआ कुछ यूँ कि हमारे शहजादे सलीम को भी नोएडा में कुत्ता पालने का शौक चर्राया | अब वही बात हो गयी कि बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभान अल्ला | उन्होंने एक प्यारा सा पिल्ला पाल तो लिया पर उसकी जिम्मेदारी ढंग से संभाल नहीं सके | सो उन हालातों में यही ठीक समझा गया कि उस फ़ौजी नंबर दो पिल्ले  को भी मेरे पास ही राजबन के वनवास पर भेज दिया जाए | अब तक हम भी पूरी तरह से राजबन के वनों के जीव-जंतुओं के आदी हो चुके थे सो यही सोच कर दिल को समझा लिया कि चलो जहां एक पल रहा है , दूसरा भी सही | इस दूसरे शैतान पिल्ले का नाम था – चम्पू |
मैं हूँ चम्पू 

यह भी चम्पू भी अपने आप में एक अलग ही नमूना था| अब उस बड़े से घर की जनसंख्या के हिसाब से बन्दा एक और कुत्ते दो | अब केरी को चम्पू का साथ क्या मिला, बस यह समझ लीजिए कि दोनों ने मिलकर शरारतों और दादागिरी की एक नई ही मिसाल पूरी कॉलोनी में पेश कर दी |
जोड़ी - टेढ़ी  दुम केरी और  सीधी दुम चम्पू 
मस्ती की दोस्ती केरी -चम्पू 
आगे तुम पीछे हम :केरी - चम्पू  

दांत काटी दोस्ती 

रणदीप , केरी और चम्पू 



सब की गुज़र-बसर राम जी की  कृपा से ठीक हो रही थी | रोज की तरह से अपने दफ्तर में बैठा काम काज निबटा रहा था | अचानक चपरासी ने आकर एक बंद लिफाफा हाथ में थमाया | लिफ़ाफ़े के ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था 
          CONFIDENTIAL ( गोपनीय)

यह जानने के लिए कि देखें इसमें से क्या सांप-बिच्छू निकलते हैं, धड़कते दिल और कांपते हाथों से उस लिफ़ाफ़े को खोला | अन्दर से सांप-बिच्छू तो नहीं निकले  पर जो निकला वह किसी बम से कम भी नहीं था |  वह मेरा ट्रांसफर आर्डर था – दिल्ली के लिए |मेरे दिमाग में पहला ख्याल आया अब दिल्ली जैसे शहर जाने से पहले केरी और चम्पू का क्या करूँ | इसी सवाल के जवाब खोजने की उधेड़बुन में मेरा दिमाग मानों एक शून्य में खोता जा रहा था |

बाद में क्या हुआ केरी और चम्पू का ...... जानने के लिए करिए इंतजार बस कुछ दिन बाद आने वाली इसी किस्से के शेष भाग का ......⏳