Tuesday 20 November 2018

एक थी केरी : (भाग एक )


राजबन का सौन्दर्य 

बात फिलहाल की नहीं तो कोई ख़ास पुरानी भी नहीं है | वर्ष 2014  के दौरान हिमाचल प्रदेश के राजबन फेक्ट्री में उन दिनों मेरी तैनाती थी |

शहरों के भीड़-भड़क्के और शोर-शराबे से दूर बसा राजबन, पर्वतों और जंगलों के निर्मल वातावरण में  कुदरत की सुन्दरता का जीता-जागता उदहारण है | अगर आपको याद हो तो  इस देवभूमि के रोचक इतिहास की बानगी अपने लेख “सिरमौर – राजा का बन और उजाड़ नगरी में पहले भी दे चुका हूँ|  फेक्ट्री की टाउनशिप  में ही रिहायशी कोठी मिली हुई थी | पत्नी, बच्चे और अम्मा नोएडा में ही रह रहे थे पर  पारिवारिक मजबूरी कुछ ऐसी थी कि अकेले ही रहना पड़ रहा था | आप प्रकृति की खूबसूरती का आनंद भी अपने घर-परिवार के साथ ही उठा सकते हैं वरना अकेले बन्दे का तो वही हाल होता है – जोरू न जाता, अल्ला मियाँ से नाता | दफ्तर का समय तो व्यस्तता में गुजर जाता था पर शाम को अकेलेपन का अहसास कुछ ज्यादा ही होने लगता था | समय काटने के लिए दारुबाजी और यारी-दोस्ती के  जग-प्रसिद्ध घिसे-पिटे नुस्खे अपने किसी काम के थे नहीं |  ऐसे समय ही अक्सर बड़े-बूढों की कही बात दिमाग़ में गूँजा करती कि यह सब पापी पेट का सवाल है ;  जो खेल न दिखाए वही कम है | अपना शौक अखबार पढ़ने, टी.वी. देखने, घर के काम-काज और बागवानी तक ही सीमित रह जाता था और समय भी उसी में कट जाता | अब आप ही बताइये कोई भलामानस कितना तो अखबार पढेगा, कितना  टी .वी. देख लेगा और कितनी बगीचे में घास खोद लेगा | रेडियो सुनने बैठे तो गाना भी दिल जलाए – तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए |  अब पहले वाली बात नहीं रह गई है – अब तो जब  नौकरी भी लाखों की हो चुकी थी  तो उसके आगे  हमारे लिए तो सावन ही दो टके का रह गया था | बस ज़िंदगी की नीरस दौड़ में राजबन की हसीं वादियाँ भी  एक उजाड़, वीरान रेगिस्तान सी लग रहीं थीं |
केरी-चम्पू और मेरा घर  

और दिनों की तरह उस देर शाम भी दफ्तर की मगज खपाई और कलम घसीट कामकाज निबटाकर कदम घसीटते हुए थकी-हारी  चाल से  अपने घोंसले को लौट रहा था |  जाड़े के मौसम ने धीरे-धीरे दस्तक देनी शुरू कर दी थी | दिन छोटे होने लगे थे | शाम के साढ़े  सात बजे से ही कॉलोनी की सुनसान सडकों पर कर्फ्यू जैसा माहौल छाया हुआ था | हल्की-हल्की  धुंध स्ट्रीट लाईट की सत्ता को जैसे चुनौती दे रही हो | बस बेकग्राउंड में भूतों की पिक्चर के डरावने गाने की कसर थी |  मेरे लिए उस वक्त भी शापिंग सेंटर तक जाना मजबूरी थी | रोजमर्रा की तरह  सुबह के नाश्ते के लिए  खरीदारी जो  करनी थी | शापिंग सेंटर में भी बस कोई इक्का-दुक्का इंसान ही नज़र आ रहा था| दो भाइयों  विपुल-सुलभ की किरयाने की दुकान पर पहुँच कर एक कोने में चुपचाप खड़ा हो गया | दूकान के मालिक विपुल ने मुस्कराते हुए मुझे रोज का खरीद कोटा यानी एक दूध का पेकेट और एक ब्रेड हाथ में थमा दिया | वापिस जाने के लिए मैं मुड़ा और चंद कदम चलने पर ही मुझे महसूस हुआ कि मेरे पीछे-पीछे कोई आ रहा है | पलट कर देखा तो एक छोटा सा पिल्ला अपने नन्हे-नन्हे कदमों की लुढ़कती-पुढ़कती चाल से मेरे पीछे लगभग दौड़ लगा रहा है | पहली नज़र में ही उस छुटपुटे अँधेरे में भी मुझे उसकी छोटी से मासूम आँखों में पता नहीं क्या दिखा मैंने अनायास ही पुचकारते हुए होठों से ही सीटी बजा दी | बस फिर क्या था, उस नन्हीं सी जान में पता नहीं क्या जादुई शक्ति आगई और मेरा पीछा करने की उसकी दौड़ और अधिक तेज हो गई | कोठी के मेन गेट को खोल कर अन्दर घुसा तो वह नन्हा खिलौना भी मेरे पीछे | अब मुझे भी उस गरीब पर तरस आने लगा सो अंदर रसोई से कुछ बिस्किट लाकर उसे खिलाने लगा | शायद वह काफी भूखा था इसलिए जीभ के चटकारे लेते हुए आनन-फानन में चार –पांच बिस्किट चट कर गया | उसे बाहर बरामदे में ही छोड़कर मैंने अन्दर बेडरूम का दरवाज़ा बंद कर लिया और सोने चला गया |
फेक्ट्री का ड्यूटी टाइम सुबह सवेरे आठ बजे से था, इसलिए मेरी दिनचर्या भी प्रात: छह बजे से ही शुरू हो जाती थी |सोकर उठा तो कुछ आहट सुनकर दरवाजा खोला,  सामने बरामदे में वही रात वाला दुबला पतला खिलौना ठण्ड में काँपता, सहमा सा अपनी चिंदी सी  आँखों से मुझे टुकुर-टुकुर ताकते हुए मानों कुछ कहना चाह रहा था | मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि करूँ तो क्या करूँ | खैर इतना तो समझ ही गया कि इसे भूख लगी है सो एक कटोरी में दूध और ब्रेड मिलाकर दिया|स्वाद से खाकर एक कुम्भकर्णी  संतुष्टी की नींद लेने के लिए वह फिर से नींद बाहर बागीचे के हरी-हरी घास पर ही लोट लगाकर सो गया | मैं भी कुछ देर बाद तैयार होकर आफिस के लिए निकल लिया | फेक्ट्री और कॉलोनी अगल-बगल होने के कारण दोपहर का लंच घर पर ही आकर किया करता था | दोपहर को घर पहुँचा तो  वह बिन-बुलाया मेहमान मेन गेट पर ही मेरे स्वागत के लिए मानों तैयार खड़ा था | उसे देखकर अब मानों मेरे दिमाग की खतरे की घंटी ने बजना शुरू कर दिया कि पंडित जी तुम्हारे अपने खाने का इंतजाम तो जैसे-तैसे होता है अब इस चमगादड़ से जान कैसे छुडाओगे | खैर उस गले पड़ी बला को दोपहर का लंच भी बाकायदा करवाना ही पड़ा | उसी दिन मुझे आफिस के जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा जोकि मेरे लिए दोगुनी खुशी का कारण था | पहला दिल्ली  में अपने परिवार से मिलने का मौक़ा और दूसरा इस चिपकू बला से  फिलहाल के लिए ही सही पर छुटकारा |
दिल्ली में मेरे पांच दिन कैसे फुर्र से निकल गए पता ही नहीं चला | वापिस राजबन आया तो बंगले के मेन गेट पर पहुँचते ही एक जबरदस्त जोर का झटका धीरे से लगा | वह छोटा सा पिल्ला अभी भी बरामदे में बाकायदा धरना देकर बैठा था | मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि धरना देने की कला इसने धरना कुमार मुख्यमंत्री  से सीखी या  उन्होंने  स्वयं इसे गुरु माना | मेरे सोचने-समझने की क्षमता लगभग समाप्त हो चली थी | पता नहीं इतने दिन उसने क्या खाया, कैसे रहा | पर एक बात मेरा अन्तर्मन साफ़ इशारा कर रहा था कि यह गले पडी बला अब आसानी से पीछा कतई नहीं छोड़ने वाली | अभी घर में अन्दर घुसा ही था कि पीछे-पीछे  गेस्ट हाउस अटेंडेंट रणदीप भी आ गया | दिल्ली जाने से पहले मैं उसे सुरक्षा की दृष्टि से ताकीद कर गया था कि बीच –बीच में  घर पर नज़र रखना | आते ही उसने दो बातें बताईं | पहली कि मेरे पीछे इस बिन बुलाए धरना-सम्राट को खाना वह ही खिला देता था | और दूसरी बात यह कि यह खिलौना मेहमान पिल्ला  नहीं वरन पिल्लिया थी | खैर मेरे लिए इस सब से कोई अंतर नहीं पड़ रहा था क्योंकि अब तक उसे टालने के - आलतू जलालतू आई बला को टाल तू- जैसे मेरे अभी तक के सभी  मन्त्र बेकार साबित हो रहे थे | खोपड़ी की ट्यूब लाईट रह-रह कर कौंध कर यही सन्देश दे रही थी कि पंडित जी अब तुम्हारी इज्ज़त अपनी हार स्वीकार कर लेने में ही है | यह अनारकली तो बाकायदा मुगले आज़म को ही  गाना गा कर चुनौती ही दे रही है – उनकी तम्मना दिल में रहेगी, शमा इसी महफ़िल में रहेगी | उसी क्षण मन बना लिया कि यह मुसीबत तो गले पड़ ही चुकी है, अब चाहे हँस कर निभाओ या रो कर झेलो |  मेरा दिल भी मुझे समझा रहा था कि खुशी-खुशी हँसना ही सबके लिए बेहतर है जिसे मैंने तुरंत स्वीकार भी कर लिया | अब अगले ही पल वह मासूम जान  मेरे लिए वह कोई आफत, मुसीबत या बला नहीं रह गई थी बल्कि उसमें मुझे दिख रहा था एक नन्हा सा खिलौना|
अब मेरा सबसे पहला काम था इस खिलौने का नामकरण और झटपट सोच कर नाम भी रख दिया – केरी | दूसरा काम उसको स्पंज बाथ  करा के साफ़ सुथरा करना और बाहर बरामदे में ही उसके लिए पुरानी चादर और पर्दे से एक बिस्तर तैयार करके बिछाना | केरी चुपचाप एक मशीनी चाबी के टेडी बीयर की तरह से जाकर अपने बिस्तर पर अपने शरीर को गोलाकार बनाते हुए सिकुड़ कर बैठ तो गई पर ठण्ड से बुरी तरह से कांप भी रही थी | मैं भी आखिर क्या करता.... दिल ही तो था.... पसीज गया | उठाकर अपने कमरे में ही ले आया और हीटर के पास ही केरी का बोरिया बिस्तर जमा दिया |  यह थी अब तक की यात्रा केरी की जो शुरू हुई शोपिंग सेंटर से और सड़क से होते हुए मेरे घर के बरामदे और बरामदे से आखिर घर के कमरे तक फिलहाल पहुँच चुकी थी |

केरी के आने के बाद मेरी जिन्दगी की नीरसता काफी हद तक दूर होने लगी | दिनचर्या में भी काफी फर्क आया | पहले देर शाम तक दफ्तर में बैठा रहता था कि घर पहुँच कर भी क्या करना है, पर अब महसूस होता कि घर पर भी कोई इंतज़ार कर रहा है | सुबह दफ्तर जाने के समय केरी का बिस्तर बाहर बरामदे में लगा देता | वहीं पर उसके खाने-पीने के बर्तन भी रहते | कोठी का कम्पाउंड ख़ासा लंबा-चौड़ा था जिसमें हरी-भरी घास का लान और बगीचा भी था | केरी को भी यह उन्मुक्त वातावरण पूरी तरह से पसंद आ गया था | दोपहर को लंच टाइम में कोठी के बरामदे में  बैठी मिलती और मुझे देखते ही दूर से ही अपने छोटे-छोटे कदमों से हिरन की तरह से कुलांचे मारते मेन गेट पर ही मेरे पांवों से लपक कर चिपट जाती | दफ्तर की सारी परेशानियाँ और उलझनें उसके एक  स्पर्श मात्र से छू- मंतर हो जातीं | मेरे से पूरी तरह से घुल-मिल गई थी केरी | जो नाश्ता, लंच, डिनर  मैं खाता वही राशन-पानी केरी का रहता |
 
केरी 
घर का अच्छा खाना खाते-पीते केरी की सेहत भी अब धीरे-धीरे सुधरने लगी | शरारतें और दबंगपने की हरकतों में भी इजाफा हो रहा था | डर किस चिड़िया का नाम है उसे पता ही नहीं था | घर के बगीचे में कई फलदार पेड़ भी थे जिन पर उत्पाती बन्दर सेना का उत्पात होता रहता था पर केरी ने अब उन बंदरों से बाकायदा दमदार टक्कर लेनी शुरू कर दी | नतीजा यह होता कि मेरे घर से केरी द्वारा भगाए गए खिसियाए बन्दर पड़ोसी  ए.के गुप्ता जी की कोठी के आम के पेड़ों पर अपनी झुंझलाहट निकालते | बन्दर तो बन्दर, कॉलोनी, फेक्ट्री और दफ़्तर के भी किसी आदमी की क्या मजाल जो कोठी के कम्पाउंड में कदम रख दे | लोग-बाग़ मेरे घर में घुसने से पहले बाहर मेन गेट से ही   मोबाइल से फोन कर के कहते कि कौशिक जी आप से मिलने आये हैं पर पहले अपने शेर को बाँध लीजिए | एक तरह से देखा जाए तो वह मेरी पर्सनल सुरक्षा अधिकारी थी जिसके रहते घर में कोई भी आलतू-फालतू बन्दा घुस ही नहीं सकता था |  राजबन की सल्तनत में  यह था दबदबा केरी का | पर साथ ही साथ उसमें इतना अनुशासन भी था कि जब तक उसे खाने का आदेश न दिया जाए तब तक खाने के बर्तन को छूती तक नहीं थी |                                 
केरी की बदोलत मेरा समय बहुत ही मज़े में गुज़र रहा था | रविवार का दिन घर और कपडे-लत्तों की सफाई का होता, तो उसी दिन केरी की भी धुलाई-पुछाई यानी स्नान-ध्यान होता जो कि अपने आप में बड़ी कवायद होती क्योंकि पानी और केरी के बीच वैसा ही रिश्ता था जैसा आज के दिन में मोदी जी और राहुल जी के बीच है | नहलाने के चक्कर में केरी से ज्यादा मेरी खुद की धुलाई हो जाती थी |
हर-हर गंगे 

इसी बीच एक ओर घटनाक्रम के तहत हुआ कुछ यूँ कि हमारे शहजादे सलीम को भी नोएडा में कुत्ता पालने का शौक चर्राया | अब वही बात हो गयी कि बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभान अल्ला | उन्होंने एक प्यारा सा पिल्ला पाल तो लिया पर उसकी जिम्मेदारी ढंग से संभाल नहीं सके | सो उन हालातों में यही ठीक समझा गया कि उस फ़ौजी नंबर दो पिल्ले  को भी मेरे पास ही राजबन के वनवास पर भेज दिया जाए | अब तक हम भी पूरी तरह से राजबन के वनों के जीव-जंतुओं के आदी हो चुके थे सो यही सोच कर दिल को समझा लिया कि चलो जहां एक पल रहा है , दूसरा भी सही | इस दूसरे शैतान पिल्ले का नाम था – चम्पू |
मैं हूँ चम्पू 

यह भी चम्पू भी अपने आप में एक अलग ही नमूना था| अब उस बड़े से घर की जनसंख्या के हिसाब से बन्दा एक और कुत्ते दो | अब केरी को चम्पू का साथ क्या मिला, बस यह समझ लीजिए कि दोनों ने मिलकर शरारतों और दादागिरी की एक नई ही मिसाल पूरी कॉलोनी में पेश कर दी |
जोड़ी - टेढ़ी  दुम केरी और  सीधी दुम चम्पू 
मस्ती की दोस्ती केरी -चम्पू 
आगे तुम पीछे हम :केरी - चम्पू  

दांत काटी दोस्ती 

रणदीप , केरी और चम्पू 



सब की गुज़र-बसर राम जी की  कृपा से ठीक हो रही थी | रोज की तरह से अपने दफ्तर में बैठा काम काज निबटा रहा था | अचानक चपरासी ने आकर एक बंद लिफाफा हाथ में थमाया | लिफ़ाफ़े के ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था 
          CONFIDENTIAL ( गोपनीय)

यह जानने के लिए कि देखें इसमें से क्या सांप-बिच्छू निकलते हैं, धड़कते दिल और कांपते हाथों से उस लिफ़ाफ़े को खोला | अन्दर से सांप-बिच्छू तो नहीं निकले  पर जो निकला वह किसी बम से कम भी नहीं था |  वह मेरा ट्रांसफर आर्डर था – दिल्ली के लिए |मेरे दिमाग में पहला ख्याल आया अब दिल्ली जैसे शहर जाने से पहले केरी और चम्पू का क्या करूँ | इसी सवाल के जवाब खोजने की उधेड़बुन में मेरा दिमाग मानों एक शून्य में खोता जा रहा था |

बाद में क्या हुआ केरी और चम्पू का ...... जानने के लिए करिए इंतजार बस कुछ दिन बाद आने वाली इसी किस्से के शेष भाग का ......⏳

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