Wednesday 5 December 2018

कविता पर बवाल

एक  पुराना चित्र -कवि सुमित्रानंदन पन्त जी  (बाएँ) साथ मेरे पूज्य पिता श्री रमेश कौशिक  

अगर मैं सीधे-सीधे आपसे कहूँ कि किसी ज़माने में मेरे 
पूज्य पिता जी को सरकारी नौकरी के दौरान चार्ज-शीट मिली और अनुशासनिक कार्रवाई भी हुई तो आप तुरंत सोच लेंगें कि जरूर कोई घोटाला किया होगा या दफ्तर के काम में कोई लापरवाही की होगी | अरे ना भाई ना .... इतनी जल्दी इतनी दूर की मत सोचिए और इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर भी मत पहुँच जाइए| ज़रा धीरज रखिए ... सब कुछ बताता हूँ | अब आप की भी कोई गलती नहीं है, हमारे देश में में यह हाल है कि अगर किसी के घर में कोई सगा-संबंधी भी पुलिस की वर्दी में आपसे मिलने आपके घर आ tजाए तो मौहल्ले भर में तुरंत ही आपके बारे में कानाफूसी और चर्चे शुरू हो जाएंगे | अब क्या बताऊँ आपको, मेरे पिता जी- स्व० श्री रमेश कौशिक, सीधे-साधे व्यक्ति पर अत्यंत प्रख्यात साहित्यकार, दर्जनों पुस्तकों के लेखक और कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  पुरस्कार प्राप्त कवि, उनका इन दफ्तरी झमेलों और तिकड़म-बाजियों   से दूर-दूर का कोई सम्बन्ध नहीं | वह तो एक सरकारी संस्थान – दिल्ली परिवहन निगम में हिन्दी अधिकारी के पद पर सेवारत थे | सरकारी नौकरी भी मजबूरी वश ही कर रहे थे क्योंकि उनकी सोच थी कि केवल कविता के दम पर परिवार नहीं पाला जा सकता | अब हुआ कुछ यूं कि वर्ष1973  में उनका एक कविता संग्रह ‘चाहते तो ...’ प्रकाशित हुआ | उस कविता संग्रह में ही चार पंक्तियों की कविता थी जिसका शीर्षक था संसद |  तो भाई लोगो, वैसे तो कविता  रूमानियत से भरी होती है लेकिन  कभी-कभी इतनी विस्फोटक और हंगामेदार भी  हो जाती है कि स्वयं कवि को भी लेने के देने पड़ जाते हैं |  यह भी कुछ ऐसा ही मामला था|  कविता कुछ इस प्रकार से थी ;-
          संसद

          संसद
 
         एक दल-दल है 
          जहाँ हर मेंढक
 
          कमल है |

उक्त कविता पर इतनी तीखी प्रतिक्रया तत्कालीन सत्ताधारी राजनीतिक नेताओं द्वारा हुई कि उस कविता में निहित व्यंग को पचा भी नहीं सके | अपने खिसियाहट भरी खीज को उन्होंने संसद में प्रश्न पूछ कर निकाला | नतीजा कार्यालय की तरफ से बेचारे कवि के नाम चार्ज-शीट जारी हो गयी | नौकरी पर बन आई | कसूर केवल यह कि सरकारी नौकरी में होते हुए भी आपने संसद के प्रति अवमानना का भाव कविता के माध्यम से प्रदर्शित किया | अब अगर कवि के स्थान पर कोई भ्रष्ट रिश्वतखोर नौकरशाह होता तो ले-देकर बेधड़क साफ़ निकल जाता | किसी ज्ञानी संत ने कहा भी  है कि रिश्वत लेते पकड़े जाओ तो रिश्वत देकर छूट जाओ पर यहाँ तो लेखनी की मार के सताए लेखक को स्वयं लेखनी भी संकट से नहीं उबार पाती है | मरता क्या न करता .....नौकरी बचाने के लिए  उस कविता के संदर्भ में मिली चार्जशीट के जवाब में जो स्पष्टीकरण  अफसर-कवि ने दिया वह जितना विद्वतापूर्ण है उससे कहीं अधिक रोचक भी है | कविता तो आप पढ़ ही चुके हैं, अब आप उस जवाब को भी पढ़ लीजिए : 
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उपाध्यक्ष महोदय ने मेरे कविता संग्रह “चाहते तो ...’ की कविताओं के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण मांगा है | इससे पूर्व कि मैं रचनाओं के सम्बन्ध में कुछ कहूँ, यह बताना चाहूँगा कि साहित्य-क्षेत्र में मेरे अनेक विरोधी हैं|अभी पिछले दिनों अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने मेरी रचनाओं की प्रशंसा की है | इस प्रशंसा को मेरे विरोधी पचा नहीं पा रहे हैं | इसलिए हानि पहुंचाने के उद्देश्य से वे बहुत से षडयंत्र रच रहें हैं |

दूसरे मेरी कविताएं साहित्य के अंतर्गत आती हैं | मैंने ईमानदारी और सच्चाई से अपने कवि-धर्म का पालन किया है | महात्मा गांधी ने भी तो यही कहा है कि धर्म-पालन के रास्ते में मुसीबतें भी आयें तो डरना नहीं चाहिए | मेरी कविताओं को आपत्तिजनक मानने का कोई कारण नहीं है |

संसद कविता के सम्बन्ध में मेरा मत इस प्रकार है :-

संसार में संसद की परम्परा हज़ारों वर्ष से चली आ रही है | यह शब्द ऐसा नहीं है, जो केवल भारतीय संसद के लिए ही प्रयोग हो| ज्ञान मंडल लिमिटेड, वाराणसी से प्रकाशित ‘ वृहत हिन्दी कोश’ में संसद के जो अर्थ दिए हैं, वे इस प्रकार हैं :-
सभा, न्यायालय, न्याय, धर्म की सभा , चौबीस दिन चलने वाला एक यज्ञ, समूह, राशि, साथ बैठने वाला, यज्ञ में भाग लेने वाला |

उपर्युक्त अर्थों में कोई भी अर्थ ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि संसद भारतीय पार्लियामेंट को ही कहते हैं | इस छोटी सी रचना में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे भारतीय संसद के सम्मानित सदस्यों के आदर में कुछ कमीं होती हो | ‘दल-दल’ शब्द का अर्थ कीचड़ ही क्यों लिया जाए ? ‘दल-दल’ दो शब्द हैं, एक नहीं |बीच का डेश इसी लिए लगा है | संसद में अनेक दल होते हैं, इसे कौन अस्वीकार करेगा | रही बात मेंढक शब्द की, जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति है | उन्हें क्यों आपत्ति है, यह मेरी समझ में नहीं आता| गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण में लिखा है –

ईश्वर अंश जीव अविनाशी


चेतन अमल सहज सुख रासी

ईश्वर का जो अंश एक साधारण आदमी, या एक सम्मानीय सदस्य में है,वही मेंढक में भी है | हमारा अहं (ego) ही हमें दूसरों से अपने को श्रेष्ठ समझने के लिए बाध्य करता है, जो भ्रम है | भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० राधाकृष्णन ने भी अपनी किसी पुस्तक में लिखा है कि यदि किसी पशु से भी पूछा जाए कि संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कौन है, तो वह अपने को ही बतायेगा | वास्तविकता से देखा जाए तो तुलना से मान-सम्मान का प्रश्न पैदा नहीं होता | यदि देखा जाए तो तुलना मेंढक से न होकर कमल से है | अपने देश में किसी की कमल से समानता कर दी जाए तो प्रसन्नता ही होनी चाहिए |

यदि यह मान भी  लिया जाए कि तुलना मेंढक से है तो ‘मेंढक’ शब्द का अर्थ यह भी है  - जो अपने ‘मैं’ को ढ़क  ले, यानी जो अपने अहं को ढक कर कमल की भांति ऊपर उठे | इस अर्थ से भी सदस्यों के गौरव में वृद्धि होती है|

जीव-विज्ञान और चिकत्सा-शास्त्र के विद्यार्थी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि मेंढकों के बलिदान ने मानवता की कितनी सेवा की है | इन सीधे-सच्चे जीवों की प्राण-आहुति पर ही आज की सर्जरी की नींव खड़ी है | ठीक ऐसे ही जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों पर हमारी आजादी का महल खड़ा है | इस जीवों से समानता किसी के लिए भी गर्व का कारण हो सकती है |
इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास की एक और चौपाई का उल्लेख करना चाहूँगा | उन्होंने रामायण में लिखा है :-

दादुर धुनी चहुँ ओर सुहाई 


वेद  पढ़ेऊ जिमी वटु समुदाई 

इन पंक्तियों में ‘ दादुर-धुनि’ यानी मेंढकों की आवाज की ‘वेदवाणी’ से तुलना की है | वेदवाणी को हमारे देश में ईश्वरीय या ऋषि वाणी मानते हैं | वेद सर्वत्र समादरणीय हैं | किन्तु पिछले 400 वर्षों के इतिहास में एक भी व्यक्ति ने तुलसीदास पर यह आरोप नहीं लगाया कि मेंढकों की आवाज की वेद – वाणी से तुलना करके कवि ने वेदों का अपमान किया है | यही स्थिति मेरी कविता के सम्बन्ध में भी है | मैं इस बात को जोर देकर फिर कहना चाहूँगा कि इससे संसद सदस्यों के सम्मान में किसी भी प्रकार की कमीं नहीं हुई |

अंत में, मैं यह कहना चाहूँगा कि मुझे अपने देश, संसद, जनतंत्र और बापू जैसे महापुरुषों पर गर्व है | रचानाओं के पीछे मेरी ऐसी भावनाएं नहीं रहीं जिससे इनके सम्मान में कमी हो | मैं आशा करता हूँ, मेरे इस स्पष्टीकरण से उन भ्रमों का निवारण हो गया है, जो मेरे विरोधियों द्वारा फैलाए जा रहे हैं |               
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कहने की बात नहीं इतना सब स्पष्टीकरण देने के बावजूद भी वही हाल रहा कि  भैंस के आगे बीन बजाए भैंस खड़ी पगुराय |  स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं माना गया फिर भी गनीमत रही कि केवल चेतावनी पत्र से ही जान छूटी और नौकरी जाने का खतरा टल गया | इस पूरे  प्रकरण को पढ़ कर उस त्रासदी का अनुभव किया जा सकता है जिसमें से एक लेखक की सच्चाई बयान करती कलम को सत्ता और नौकरशाही का मदमस्त हाथी अपने पांवों तले कुचलता चला जाता है और वह भी केवल इसलिए कि उसके सर पर सरकारी डंडा सवार है |  बेचारा लेखक तो केवल यही गुनगुना कर रह जाता है –


      वो ना  समझे हैं ,


ना समझेंगे मेरे दिल की बात

या इलाही ये माजरा क्या है ?


  

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