Wednesday 28 November 2018

एक थी केरी ( पार्ट 2 ) ..... शेष भाग

एक थी केरी के पिछले भाग 1 में आपने पढ़ा कि हिमाचल प्रदेश के सुदूर पर्वतों और जंगलों के बीच स्थित राजबन सीमेंट फेक्ट्री में अपनी पोस्टिंग के दौरान किस प्रकार से एक छोटे से खिलोनेनुमा केरी नाम के पिल्ले ने मेरे एकाकी जीवन में बहार और रोचकता ला दी थी | बाद में मजूबरीवश मेरे नोएडा में बसे परिवार ने चम्पू नामके छोटे से कुत्ते को भी मेरे पासही हिमाचल प्रदेश ही भेज दिया जहां पर मैं, केरी और चम्पू तीनों की ही जिन्दगी की गुजर-बसर आपस में मिल-जुल कर आराम से हो रही थी | अचानक एक दिन दिल्ली मुख्यालय के लिए मेरे ट्रांसफर आर्डर आ गया | मेरे दिमाग में पहला ख्याल आया अब दिल्ली जैसे शहर जाने से पहले केरी और चम्पू का क्या इंतजाम करूँ | इसी सवाल के जवाब खोजने की उधेड़बुन में मेरा दिमाग मानों एक शून्य में खोता जा रहा था | 
बाद में क्या हुआ केरी और चम्पू का ....... पढ़िए अब आगे .... 

केरी
दिल्ली / नोएडा जैसी जगह में आदमी खुद और बाल-बच्चों का ही पालन पोषण कर ले यही बड़ी बात है, कुत्ते-बिल्ली पालना तो दूर की सोच है जी हर किसी के बस में नहीं | और यहाँ तो एक नहीं, दो-दो आफत के प्यारे से पुलिंदे थे जो मेरे गले में घंटी की तरह से बंधे थे | पूरी रात करवट बदलते, परेशानी और दुविधा में ही कटी | मेरा हाल उस बच्चे की तरह से था जो अपनी जान से प्यारे खिलोने अपने साथ लेकर जा नहीं सकता और पीछे छोड़ भी नहीं सकता | बस कुछ ऐसा भी समझ सकते हैं मानो गले में फँसी हड्डी जो न उगलते बन पा रहा था न निगलते | 

बहुत सोच-विचार और घर-परिवार से सलाह- मशवरे के बाद यह तय किया गया कि हिमाचल की केरी यहीं रहेगी गेस्ट हाउस अटेंडेंट रणदीप भाई के पास और दिल्ली का चम्पू मेरे साथ ही वापिस जाएगा | रणदीप भाई केरी से पहले ही बहुत अच्छी तरह से वाकिफ़ थे और बहुत ही खुशी से उसे अपने पास रखने को तैयार थे | उनका गाँव का घर भी कॉलोनी के पास ही था | अपनी तरफ से जो मैं बेहतरीन इंतजाम कर सकता था मैंने किया पर फिर भी दिल के किसी कोने में कुछ-कुछ खालीपन, अपराध बोध और आत्म ग्लानि का एहसास दिल को कचोट रहा था| फिर वह उदास शाम भी आखिर आ ही गई जब एक बेग में केरी का सामान जैसे बाल काढ़ने का ब्रश, खिलोने, वक्त जरूरत की दवाइयां, नहलाने का ख़ास शेम्पू, खाने के बिस्किट और बिछोना आदि भर कर बुझे मन से केरी को कार में बैठा कर पास के रणदीप के गाँव की ओर चल दिया | रणदीप भाई के उस गाँव के घर तक पहुंचते हुए अन्धेरा हो चुका था और वहां केरी को उतारते हुए अपनी पलकें कुछ भीगी से और आँखें धुंधली महसूस हो रहीं थी | दिल पर तो लग रहा था जैसे किसी ने चट्टान का वजन रख दिया हो | गाड़ी को वापिस मोड़कर अपने घर की ओर आगे बढाते समय उस नीम अँधेरे में भी मुझे रियर व्यू मिरर में गाडी एक परछाई सी भागती नज़र आई | वह केरी ही थी जो कुछ दूर तक भागने के बाद थकी – हारी बेबस होकर सड़क पर ही बैठ गयी और धीरे-धीरे अँधेरे में ओझल हो गई  | 
अगले कुछ दिन सब कुछ ठीक ठाक ही रहा | घर पर सिर्फ मैं और चम्पू जी, पर सच बात तो यही थी कि अन्दर से हम दोनों को ही केरी की कमीं खल रही थी | पर इधर राजबन छोड़ने के दिन भी धीरे-धीरे नजदीक आ रहे थे | एक दिन दफ्तर से जब लंच टाइम में घर आया तो देखा बाहर ही बागीचे में चम्पू और केरी उधम मचा रहे थे | मैं अब चक्कर में कि इसे इतनी दूर मैं छोड़ कर आया पर यह वापिस कैसे फिर आ गई | पता चला कि उस दिन रणदीप भाई का जबरदस्ती चुपचाप पीछा करते-करते गाँव से कॉलोनी तक का रास्ता देख लिया और इस तरह पहुँच गई अपने पुराने ठिकाने पर | खैर उसी शाम से फिर रोज ही वह अनारकली पट्टे –जंजीर में कैद हो कर रोज रात को गाँव के घर भेज दी जाती पर हर सुबह बिला नागा वह फिर अपने आप ही हाज़िर हो जाती | यह चोर-सिपाही का खेल मेरे राजबन के बचे-खुचे दिनों में चलता रहा | 

आखिरकार वह दिन भी आ गया जब मेरे जाने का दिन आ पहुंचा | घर में सामान की पेकिंग चल रही थी | सभी कमरों में मजदूर काम पर लगे थे | अब यह सब देख कर केरी परेशान | कहते हैं जानवरों की संवेदनशीलता हम इंसानों से भी अधिक होती है | आपको बस वह आँखें और दिमाग चाहिए जो उनके उस प्यार और भावना को देख और समझ सके | केरी बार-बार एक कमरे से दूसरे तक जाती, उन बंधे हुए सामानों के ढेर को देखती और फिर वापिस मेरे कमरे में आ कर प्रश्न वाचक उदास नज़रों से मुझे देख कर मानों मुझ से कुछ पूछना चाहती कि ” आखिर क्यों कर रहे हो मेरे साथ ऐसा | मुझे छोड़ कर कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो |” उस बेचारी को मैं अपनी मजबूरी भला क्या बताता, बस अपनी आँखे चुराता हुआ खामोशी से कमरे के बाहर निकल गया | मेरे लिए आज भी उस मंजर को याद करना किसी घोर मानसिक यंत्रणा से कम नहीं है | आप जब इन शब्दों को पढ़ रहे होंगें, पता नहीं अंदाजा कर पाएंगे या नहीं, इस को लिखने के समय याद आए उस दृश्य की महज याद मात्र मेरी आँखें गीला करने के लिए पर्याप्त हैं | 

ट्रक में सामान लदना शुरु हो गया था | कुछ देर तक यह सब देखती हुई केरी ने खाली कमरों का एक-एक करके चक्कर लगाया और उसके बाद मुझे मानों शिकायती नज़रों से देखती हुई वहां से गायब हो गई | ट्रक भी सामन लेकर रवाना हो गया | मुझे भी रात को ही नोएडा के लिए निकल पड़ना था | जाने से पहले मेरे पुराने साथी प्रमोद सतीजा ने रात के डिनर पर बुलाया | रात को खाना खाते-खाते यही कोई नौ बज चुके थे| खाना खा कर बाहर निकला तो सड़क पर ही कॉलोनी के ही पंद्रह –बीस साथियों का समूह इंतज़ार कर रहा था मुझे विदाई देने के लिए | दिल में बिछड़ने का दर्द लिए एक –एक करके सभी साथियों से हाथ मिला रहा था,गले मिल रहा था | सड़क पर खड़े-खड़े ही एक नज़र दूर अँधेरे में घिरे उस घर की ओर डाली जिससे मेरी पता नहीं अतीत की कितनी यादें जुड़ी हुई थी | कार में अब मैं दरवाज़ा खोल कर बैठने ही वाला था कि अचानक क्या देखता हूँ पता नहीं कहाँ से केरी दूर से दौड़ती हुई आ रही है | इससे पहले कि मैं संभल पता या समझ पाता, वह एक छोटे से बच्चे की तरह से आकर मेरे पैरों से ऐसे चिपट गई कि आज भी उसे याद करके मेरे आंसू झिलमिला उठते हैं | वही नन्ही से केरी जिसने कभी एक ऐसी ही सर्दी की अंधेरी रात में मुझ से आसरा मांगा था, वही छोटी से केरी जिसे मैं अपने हाथों से नहलाता था, खाना खिलाता था, खेलता था, चोट लगाने पर दवाई लगाता, आज शायद समझ चुकी थी कि अब शायद वह मुझे नहीं देख पाएगी | उसने जमीन पर बैठे-बैठे ही मेरे पांवों को इस प्रकार से कस कर जकड़ा हुआ था जैसा इससे पहले कभी नहीं किया था | शायद वह अपनी तरफ से मुझे रोकने की अंतिम चेष्टा कर रही थी | प्यार से उसके सर को सहलाते हुए , धीरे से मैंने अपने पैरों को छुडाया और भरे मन से गाडी में बैठ कर हाथ हिलाते हुए नोएडा के लिए रवाना हो गया | लगा जैसे मेरे बुदबुदाते होठों से एक मंद अस्पष्ट आवाज निकली “अलविदा प्यारी केरी| अपना ध्यान रखना | फिर मिलेंगे अगर भगवान ने चाहा |” 

नोएडा अपने घर आकर राजबन और केरी की यादें व्यस्त जीवन के कोहरे की चादर में मानो धीरे-धीरे धुंधली पड़ने लगीं | हाँ इतना जरूर था कि बीच-बीच में राजबन फोन करके केरी का हाल पूछना नहीं भूलता था | पता चला कि मेरे जाने के बाद भी वह उस घर के सामने ही बैठी रहती थी | उस कोठी में नए अफसर आ गए थे पर केरी ने फिर भी उस घर से अपना हक़ नहीं छोड़ा | जब केरी ने बच्चे दिए तो वह भी उसी कोठी के कम्पाउंड में बने गेराज में | 
कितनी मुद्दत बाद मिले हो 
दिल्ली आने के एक साल बाद मैं वर्ष 2016 में रिटायर भी हो गया | जून 2017 की बात है जब घूमते फिरते राजबन जाने का प्रोग्राम बना | पुराने साथियों से मिलने की इच्छा तो थी ही | वहां गेस्ट हाउस में ही रुकने का इंतजाम था | गेस्ट हाउस में टहलते हुए सुन्दर से बगीचे की हवा खा रहा था कि वहीं पर मुझे कुछ ऐसा लगा कि सामने से केरी जा रही है | मैंने उसे नाम लेकर पुकारा तो जाते-जाते वह ठिठक कर वहीं रुक गई | एक बार उसने वहीं दूर से मुझे मानों घूर कर देखा, लगा जैसे उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ तो फिर से मुझे पहचानने की कोशिश की और जैसे ही उसके मन का भ्रम दूर हुआ वह सीधे चीते की तरह से पूरी रफ़्तार से दौड़ते हुए मुझ पर लगभग झपट ही पडी | कूँ –कूँ की आवाज करते हुए इतनी बुरी तरह से मुझ से लिपट गई कि मानों बरसों की कमीं को आज ही पूरा कर लेगी | मैं वहाँ दो दिन ठहरा और उस पूरे समय वह गेस्ट हाउस के सामने ही बैठी इंतज़ार करती रहती | कॉलोनी में जिस किसी के यहाँ भी मिलाने जाता वह भी पूँछ की तरह से पीछे लग जाती और उस मेजबान के घर के सामने बैठी रहती | 

अभी कुछ दिन पहले ही अक्टूबर में राजबन में दुर्गा पूजा और रामलीला देखने की इच्छा थी | साथ ही सोचा माता ला देवी के मंदिर में भंडारा खाने का भी सौभाग्य मिल जाएगा | यह राजबन जाने का दूसरा मौक़ा था | पहले की तरह इस बार भी गेस्ट हाउस में ही ठहरा था | वहां पुराने सभी साथी आकर मिल रहे थे | पर मेरी आँखे थी मानो किसी और को ही ढूँढ़ रहीं थी | उसी केरी को जिससे पिछली बार चलते वक्त मुलाक़ात नहीं हो पायी थी | सोचा शायद रणदीप भाई के गाँव के घर में ही होगी | रणदीप सामने नज़र आने पर सीधे ही अनुरोध कर दिया कि केरी को अपने गाँव से यहीं एक बार ले आओ,मैं देखना चाहता हूँ |
जूनियर केरी 
रणदीप ने दूर एक खेलते हुए छोटे से पिल्ले की ओर इशारा करके बताया कि वह केरी की ही बच्ची है | मैंने फिर से जोर देकर पूछा पर केरी कहाँ है | धीमी सी आवाज में उसने बताया कि केरी अब नहीं रही | घर के सामने से गुजरती हुई स्कूल बस के नीचे आ कर अभी एक माह पहले उसकी दर्दनाक मौत हो गई | सुनकर ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया हो | पास की बेंच पर धम से बैठ गया , लगा इतनी दूर जिससे मिलने की आस लगा कर आया तो उसके लिए क्या यही सुनना था | जीते जी जिस की छोटी सी बीमारी से भी मैं इतना व्यथित हो जाता था आज उसी केरी के अंतिम क्षणों की पीड़ा के बारे में सोच कर भी काँप जाता हूँ | मेरा उस बेजुबान, निरीह प्यारी सी केरी से जो आत्मिक लगाव रहा क्या केरी ने भी अपनी आखिरी हिचकी लेते हुए उस मर्मान्तक पीड़ा के अंतिम एक क्षण में मुझे याद किया होगा? 


अलविदा प्यारी दोस्त केरी 

Tuesday 20 November 2018

एक थी केरी : (भाग एक )


राजबन का सौन्दर्य 

बात फिलहाल की नहीं तो कोई ख़ास पुरानी भी नहीं है | वर्ष 2014  के दौरान हिमाचल प्रदेश के राजबन फेक्ट्री में उन दिनों मेरी तैनाती थी |

शहरों के भीड़-भड़क्के और शोर-शराबे से दूर बसा राजबन, पर्वतों और जंगलों के निर्मल वातावरण में  कुदरत की सुन्दरता का जीता-जागता उदहारण है | अगर आपको याद हो तो  इस देवभूमि के रोचक इतिहास की बानगी अपने लेख “सिरमौर – राजा का बन और उजाड़ नगरी में पहले भी दे चुका हूँ|  फेक्ट्री की टाउनशिप  में ही रिहायशी कोठी मिली हुई थी | पत्नी, बच्चे और अम्मा नोएडा में ही रह रहे थे पर  पारिवारिक मजबूरी कुछ ऐसी थी कि अकेले ही रहना पड़ रहा था | आप प्रकृति की खूबसूरती का आनंद भी अपने घर-परिवार के साथ ही उठा सकते हैं वरना अकेले बन्दे का तो वही हाल होता है – जोरू न जाता, अल्ला मियाँ से नाता | दफ्तर का समय तो व्यस्तता में गुजर जाता था पर शाम को अकेलेपन का अहसास कुछ ज्यादा ही होने लगता था | समय काटने के लिए दारुबाजी और यारी-दोस्ती के  जग-प्रसिद्ध घिसे-पिटे नुस्खे अपने किसी काम के थे नहीं |  ऐसे समय ही अक्सर बड़े-बूढों की कही बात दिमाग़ में गूँजा करती कि यह सब पापी पेट का सवाल है ;  जो खेल न दिखाए वही कम है | अपना शौक अखबार पढ़ने, टी.वी. देखने, घर के काम-काज और बागवानी तक ही सीमित रह जाता था और समय भी उसी में कट जाता | अब आप ही बताइये कोई भलामानस कितना तो अखबार पढेगा, कितना  टी .वी. देख लेगा और कितनी बगीचे में घास खोद लेगा | रेडियो सुनने बैठे तो गाना भी दिल जलाए – तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए |  अब पहले वाली बात नहीं रह गई है – अब तो जब  नौकरी भी लाखों की हो चुकी थी  तो उसके आगे  हमारे लिए तो सावन ही दो टके का रह गया था | बस ज़िंदगी की नीरस दौड़ में राजबन की हसीं वादियाँ भी  एक उजाड़, वीरान रेगिस्तान सी लग रहीं थीं |
केरी-चम्पू और मेरा घर  

और दिनों की तरह उस देर शाम भी दफ्तर की मगज खपाई और कलम घसीट कामकाज निबटाकर कदम घसीटते हुए थकी-हारी  चाल से  अपने घोंसले को लौट रहा था |  जाड़े के मौसम ने धीरे-धीरे दस्तक देनी शुरू कर दी थी | दिन छोटे होने लगे थे | शाम के साढ़े  सात बजे से ही कॉलोनी की सुनसान सडकों पर कर्फ्यू जैसा माहौल छाया हुआ था | हल्की-हल्की  धुंध स्ट्रीट लाईट की सत्ता को जैसे चुनौती दे रही हो | बस बेकग्राउंड में भूतों की पिक्चर के डरावने गाने की कसर थी |  मेरे लिए उस वक्त भी शापिंग सेंटर तक जाना मजबूरी थी | रोजमर्रा की तरह  सुबह के नाश्ते के लिए  खरीदारी जो  करनी थी | शापिंग सेंटर में भी बस कोई इक्का-दुक्का इंसान ही नज़र आ रहा था| दो भाइयों  विपुल-सुलभ की किरयाने की दुकान पर पहुँच कर एक कोने में चुपचाप खड़ा हो गया | दूकान के मालिक विपुल ने मुस्कराते हुए मुझे रोज का खरीद कोटा यानी एक दूध का पेकेट और एक ब्रेड हाथ में थमा दिया | वापिस जाने के लिए मैं मुड़ा और चंद कदम चलने पर ही मुझे महसूस हुआ कि मेरे पीछे-पीछे कोई आ रहा है | पलट कर देखा तो एक छोटा सा पिल्ला अपने नन्हे-नन्हे कदमों की लुढ़कती-पुढ़कती चाल से मेरे पीछे लगभग दौड़ लगा रहा है | पहली नज़र में ही उस छुटपुटे अँधेरे में भी मुझे उसकी छोटी से मासूम आँखों में पता नहीं क्या दिखा मैंने अनायास ही पुचकारते हुए होठों से ही सीटी बजा दी | बस फिर क्या था, उस नन्हीं सी जान में पता नहीं क्या जादुई शक्ति आगई और मेरा पीछा करने की उसकी दौड़ और अधिक तेज हो गई | कोठी के मेन गेट को खोल कर अन्दर घुसा तो वह नन्हा खिलौना भी मेरे पीछे | अब मुझे भी उस गरीब पर तरस आने लगा सो अंदर रसोई से कुछ बिस्किट लाकर उसे खिलाने लगा | शायद वह काफी भूखा था इसलिए जीभ के चटकारे लेते हुए आनन-फानन में चार –पांच बिस्किट चट कर गया | उसे बाहर बरामदे में ही छोड़कर मैंने अन्दर बेडरूम का दरवाज़ा बंद कर लिया और सोने चला गया |
फेक्ट्री का ड्यूटी टाइम सुबह सवेरे आठ बजे से था, इसलिए मेरी दिनचर्या भी प्रात: छह बजे से ही शुरू हो जाती थी |सोकर उठा तो कुछ आहट सुनकर दरवाजा खोला,  सामने बरामदे में वही रात वाला दुबला पतला खिलौना ठण्ड में काँपता, सहमा सा अपनी चिंदी सी  आँखों से मुझे टुकुर-टुकुर ताकते हुए मानों कुछ कहना चाह रहा था | मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि करूँ तो क्या करूँ | खैर इतना तो समझ ही गया कि इसे भूख लगी है सो एक कटोरी में दूध और ब्रेड मिलाकर दिया|स्वाद से खाकर एक कुम्भकर्णी  संतुष्टी की नींद लेने के लिए वह फिर से नींद बाहर बागीचे के हरी-हरी घास पर ही लोट लगाकर सो गया | मैं भी कुछ देर बाद तैयार होकर आफिस के लिए निकल लिया | फेक्ट्री और कॉलोनी अगल-बगल होने के कारण दोपहर का लंच घर पर ही आकर किया करता था | दोपहर को घर पहुँचा तो  वह बिन-बुलाया मेहमान मेन गेट पर ही मेरे स्वागत के लिए मानों तैयार खड़ा था | उसे देखकर अब मानों मेरे दिमाग की खतरे की घंटी ने बजना शुरू कर दिया कि पंडित जी तुम्हारे अपने खाने का इंतजाम तो जैसे-तैसे होता है अब इस चमगादड़ से जान कैसे छुडाओगे | खैर उस गले पड़ी बला को दोपहर का लंच भी बाकायदा करवाना ही पड़ा | उसी दिन मुझे आफिस के जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा जोकि मेरे लिए दोगुनी खुशी का कारण था | पहला दिल्ली  में अपने परिवार से मिलने का मौक़ा और दूसरा इस चिपकू बला से  फिलहाल के लिए ही सही पर छुटकारा |
दिल्ली में मेरे पांच दिन कैसे फुर्र से निकल गए पता ही नहीं चला | वापिस राजबन आया तो बंगले के मेन गेट पर पहुँचते ही एक जबरदस्त जोर का झटका धीरे से लगा | वह छोटा सा पिल्ला अभी भी बरामदे में बाकायदा धरना देकर बैठा था | मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि धरना देने की कला इसने धरना कुमार मुख्यमंत्री  से सीखी या  उन्होंने  स्वयं इसे गुरु माना | मेरे सोचने-समझने की क्षमता लगभग समाप्त हो चली थी | पता नहीं इतने दिन उसने क्या खाया, कैसे रहा | पर एक बात मेरा अन्तर्मन साफ़ इशारा कर रहा था कि यह गले पडी बला अब आसानी से पीछा कतई नहीं छोड़ने वाली | अभी घर में अन्दर घुसा ही था कि पीछे-पीछे  गेस्ट हाउस अटेंडेंट रणदीप भी आ गया | दिल्ली जाने से पहले मैं उसे सुरक्षा की दृष्टि से ताकीद कर गया था कि बीच –बीच में  घर पर नज़र रखना | आते ही उसने दो बातें बताईं | पहली कि मेरे पीछे इस बिन बुलाए धरना-सम्राट को खाना वह ही खिला देता था | और दूसरी बात यह कि यह खिलौना मेहमान पिल्ला  नहीं वरन पिल्लिया थी | खैर मेरे लिए इस सब से कोई अंतर नहीं पड़ रहा था क्योंकि अब तक उसे टालने के - आलतू जलालतू आई बला को टाल तू- जैसे मेरे अभी तक के सभी  मन्त्र बेकार साबित हो रहे थे | खोपड़ी की ट्यूब लाईट रह-रह कर कौंध कर यही सन्देश दे रही थी कि पंडित जी अब तुम्हारी इज्ज़त अपनी हार स्वीकार कर लेने में ही है | यह अनारकली तो बाकायदा मुगले आज़म को ही  गाना गा कर चुनौती ही दे रही है – उनकी तम्मना दिल में रहेगी, शमा इसी महफ़िल में रहेगी | उसी क्षण मन बना लिया कि यह मुसीबत तो गले पड़ ही चुकी है, अब चाहे हँस कर निभाओ या रो कर झेलो |  मेरा दिल भी मुझे समझा रहा था कि खुशी-खुशी हँसना ही सबके लिए बेहतर है जिसे मैंने तुरंत स्वीकार भी कर लिया | अब अगले ही पल वह मासूम जान  मेरे लिए वह कोई आफत, मुसीबत या बला नहीं रह गई थी बल्कि उसमें मुझे दिख रहा था एक नन्हा सा खिलौना|
अब मेरा सबसे पहला काम था इस खिलौने का नामकरण और झटपट सोच कर नाम भी रख दिया – केरी | दूसरा काम उसको स्पंज बाथ  करा के साफ़ सुथरा करना और बाहर बरामदे में ही उसके लिए पुरानी चादर और पर्दे से एक बिस्तर तैयार करके बिछाना | केरी चुपचाप एक मशीनी चाबी के टेडी बीयर की तरह से जाकर अपने बिस्तर पर अपने शरीर को गोलाकार बनाते हुए सिकुड़ कर बैठ तो गई पर ठण्ड से बुरी तरह से कांप भी रही थी | मैं भी आखिर क्या करता.... दिल ही तो था.... पसीज गया | उठाकर अपने कमरे में ही ले आया और हीटर के पास ही केरी का बोरिया बिस्तर जमा दिया |  यह थी अब तक की यात्रा केरी की जो शुरू हुई शोपिंग सेंटर से और सड़क से होते हुए मेरे घर के बरामदे और बरामदे से आखिर घर के कमरे तक फिलहाल पहुँच चुकी थी |

केरी के आने के बाद मेरी जिन्दगी की नीरसता काफी हद तक दूर होने लगी | दिनचर्या में भी काफी फर्क आया | पहले देर शाम तक दफ्तर में बैठा रहता था कि घर पहुँच कर भी क्या करना है, पर अब महसूस होता कि घर पर भी कोई इंतज़ार कर रहा है | सुबह दफ्तर जाने के समय केरी का बिस्तर बाहर बरामदे में लगा देता | वहीं पर उसके खाने-पीने के बर्तन भी रहते | कोठी का कम्पाउंड ख़ासा लंबा-चौड़ा था जिसमें हरी-भरी घास का लान और बगीचा भी था | केरी को भी यह उन्मुक्त वातावरण पूरी तरह से पसंद आ गया था | दोपहर को लंच टाइम में कोठी के बरामदे में  बैठी मिलती और मुझे देखते ही दूर से ही अपने छोटे-छोटे कदमों से हिरन की तरह से कुलांचे मारते मेन गेट पर ही मेरे पांवों से लपक कर चिपट जाती | दफ्तर की सारी परेशानियाँ और उलझनें उसके एक  स्पर्श मात्र से छू- मंतर हो जातीं | मेरे से पूरी तरह से घुल-मिल गई थी केरी | जो नाश्ता, लंच, डिनर  मैं खाता वही राशन-पानी केरी का रहता |
 
केरी 
घर का अच्छा खाना खाते-पीते केरी की सेहत भी अब धीरे-धीरे सुधरने लगी | शरारतें और दबंगपने की हरकतों में भी इजाफा हो रहा था | डर किस चिड़िया का नाम है उसे पता ही नहीं था | घर के बगीचे में कई फलदार पेड़ भी थे जिन पर उत्पाती बन्दर सेना का उत्पात होता रहता था पर केरी ने अब उन बंदरों से बाकायदा दमदार टक्कर लेनी शुरू कर दी | नतीजा यह होता कि मेरे घर से केरी द्वारा भगाए गए खिसियाए बन्दर पड़ोसी  ए.के गुप्ता जी की कोठी के आम के पेड़ों पर अपनी झुंझलाहट निकालते | बन्दर तो बन्दर, कॉलोनी, फेक्ट्री और दफ़्तर के भी किसी आदमी की क्या मजाल जो कोठी के कम्पाउंड में कदम रख दे | लोग-बाग़ मेरे घर में घुसने से पहले बाहर मेन गेट से ही   मोबाइल से फोन कर के कहते कि कौशिक जी आप से मिलने आये हैं पर पहले अपने शेर को बाँध लीजिए | एक तरह से देखा जाए तो वह मेरी पर्सनल सुरक्षा अधिकारी थी जिसके रहते घर में कोई भी आलतू-फालतू बन्दा घुस ही नहीं सकता था |  राजबन की सल्तनत में  यह था दबदबा केरी का | पर साथ ही साथ उसमें इतना अनुशासन भी था कि जब तक उसे खाने का आदेश न दिया जाए तब तक खाने के बर्तन को छूती तक नहीं थी |                                 
केरी की बदोलत मेरा समय बहुत ही मज़े में गुज़र रहा था | रविवार का दिन घर और कपडे-लत्तों की सफाई का होता, तो उसी दिन केरी की भी धुलाई-पुछाई यानी स्नान-ध्यान होता जो कि अपने आप में बड़ी कवायद होती क्योंकि पानी और केरी के बीच वैसा ही रिश्ता था जैसा आज के दिन में मोदी जी और राहुल जी के बीच है | नहलाने के चक्कर में केरी से ज्यादा मेरी खुद की धुलाई हो जाती थी |
हर-हर गंगे 

इसी बीच एक ओर घटनाक्रम के तहत हुआ कुछ यूँ कि हमारे शहजादे सलीम को भी नोएडा में कुत्ता पालने का शौक चर्राया | अब वही बात हो गयी कि बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभान अल्ला | उन्होंने एक प्यारा सा पिल्ला पाल तो लिया पर उसकी जिम्मेदारी ढंग से संभाल नहीं सके | सो उन हालातों में यही ठीक समझा गया कि उस फ़ौजी नंबर दो पिल्ले  को भी मेरे पास ही राजबन के वनवास पर भेज दिया जाए | अब तक हम भी पूरी तरह से राजबन के वनों के जीव-जंतुओं के आदी हो चुके थे सो यही सोच कर दिल को समझा लिया कि चलो जहां एक पल रहा है , दूसरा भी सही | इस दूसरे शैतान पिल्ले का नाम था – चम्पू |
मैं हूँ चम्पू 

यह भी चम्पू भी अपने आप में एक अलग ही नमूना था| अब उस बड़े से घर की जनसंख्या के हिसाब से बन्दा एक और कुत्ते दो | अब केरी को चम्पू का साथ क्या मिला, बस यह समझ लीजिए कि दोनों ने मिलकर शरारतों और दादागिरी की एक नई ही मिसाल पूरी कॉलोनी में पेश कर दी |
जोड़ी - टेढ़ी  दुम केरी और  सीधी दुम चम्पू 
मस्ती की दोस्ती केरी -चम्पू 
आगे तुम पीछे हम :केरी - चम्पू  

दांत काटी दोस्ती 

रणदीप , केरी और चम्पू 



सब की गुज़र-बसर राम जी की  कृपा से ठीक हो रही थी | रोज की तरह से अपने दफ्तर में बैठा काम काज निबटा रहा था | अचानक चपरासी ने आकर एक बंद लिफाफा हाथ में थमाया | लिफ़ाफ़े के ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था 
          CONFIDENTIAL ( गोपनीय)

यह जानने के लिए कि देखें इसमें से क्या सांप-बिच्छू निकलते हैं, धड़कते दिल और कांपते हाथों से उस लिफ़ाफ़े को खोला | अन्दर से सांप-बिच्छू तो नहीं निकले  पर जो निकला वह किसी बम से कम भी नहीं था |  वह मेरा ट्रांसफर आर्डर था – दिल्ली के लिए |मेरे दिमाग में पहला ख्याल आया अब दिल्ली जैसे शहर जाने से पहले केरी और चम्पू का क्या करूँ | इसी सवाल के जवाब खोजने की उधेड़बुन में मेरा दिमाग मानों एक शून्य में खोता जा रहा था |

बाद में क्या हुआ केरी और चम्पू का ...... जानने के लिए करिए इंतजार बस कुछ दिन बाद आने वाली इसी किस्से के शेष भाग का ......⏳

Saturday 17 November 2018

गोरखधंधा : फेयरवेल पार्टी का


जिन्दगी में जहाँ एक ओर तरह तरह की विभिन्नताएं हैं वहीं अगर दूसरी तरफ देखें तो लगता है यह जीवन पूरी तरह से नीरसता से भरा हुआ है  | सच मानिए मैं तो आज तक  भी  यह  निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि  इस जीवन में बहुरंगी चटपटा स्वाद ज्यादा है या बोरियत से भरी जिन्दगी की  घिसी-पिटी कहानी का सूनापन |  नहीं समझ में आया तो चलिए जरा खुलकर समझाता हूँ | क्या कभी-कभी आपको ऐसा नहीं लगता कि आप में किसी विद्वान ज्योतिषी की आत्मा उतर आयी है | आप का ब्रह्मज्ञान आपको पहले से ही बता देता है कि आज रात जिस शादी की पार्टी में जाने वाले हैं उसमें में खाने के मेन्यु में क्या-क्या होगा | आप सिनेमा देख रहें हैं और आगे की सिचुएशन भांप  जाते हैं कि अब तो गाने  का सीन बनता है | मैं यह परम ज्ञान की बात अपने अनुभव के आधार पर ही बता रहा हूँ | बचपन में जब कभी अपना होमवर्क पूरा नहीं हो पाता था तो मुझे तो पहले ही पता चल जाता था कि आज तो मास्टर जी से पिटाई पक्की है और भगवान झूठ न बुलवाए, इस मामले में मेरी भविष्यवाणी कभी गलत भी नहीं हुई | बड़े होकर नौकरी में  भी यही पाया कि दफ़्तर की लगभग  हर मीटिंग की इस हद तक वही कहानी कि उनमें होने वाली कारवाई की रिपोर्ट पहले से ही  तैयार कर लेता था | हर मीटिंग का एक ही हाल : साहब ने गुर्राना है, अफसर ने खिसियाना है और बाबू ने मिमियाँना है और नतीजे के नाम पर ले दे कर वही ढ़ाक के तीन पात |

आज आप को ऐसे ही एक अवसर की बानगी देता हूँ जो मीटिंग तो नहीं वरन समारोह है और समारोह भी एक ख़ास किस्म का जिसका नाम आपने भी अवश्य सुना होगा और सुनना तो क्या खुद शामिल भी रहे होंगें – स्कूल से लेकर शादी ब्याह और नौकरी तक में | जी हाँ, मैं विदाई समारोह या फेयरवेल पार्टी की ही आज बात करने जा रहा हूँ |
  

शादी में दुल्हन की बिदाई तो जरूर ही देखी होगी | वहाँ मानों रोने की प्रतियोगिता चल रही हो जहाँ  हर बन्दा या बंदी एक दूसरे को पीछे पछाड़ने में मशगूल | एक बार देखा दुल्हन अपनी मां के गले से चिपट कर दहाड़ें मार कर आँसू बहा कर रो रही थी और बीच में अचानक रुक कर माँ को याद दिलाया कि मोबाइल का चार्जर कमरे में ही रह गया है, याद करके भिजवा देना | मज़े की बात यह कि  इस हिदायत के बाद रोने का शेष भाग फिर से बदस्तूर जारी हो गया गोया माँ को नहीं वरन मोबाइल के चार्जर को याद करके रोया जा रहा है|

अब आइये अब एक दूसरी तरह के विदाई समारोह  यानि फेयरवेल पार्टी  की बात करते हैं | सच मानें तो इस प्रकार के समारोह मुझे हद दर्जे के नीरस, उबाऊ और नौटंकी से भरे लगते हैं जिनमें दिखावेपन और बनावट का मुल्लमा कूट-कूट के भरा होता है |इनमें हर कोई देवताओं की श्रेणी में अवतरित होने की बलात चेष्टा करते नज़र आते हैं |  जाने वाले मुलाजिम की शान में इतने झूठे-सच्चे कसीदे पढ़े जाते हैं कि बड़े से बड़ा अभिनेता भी शर्म से पानी भरता नज़र आए | मज़े की बात होती है जब जिस अफसर ने झूठी-सच्ची शिकायत करके  पूरी जी-जान लगवा कर अपने मातहत बाबू का ट्रांसफ़र  करवाया हो, उसी की विदाई पार्टी में वही अफसर छाती पीट-पीट कर मुनियादी कर रहे होते हैं कि इस बाबू के जाने से मैं अनाथ हो गया | कभी देखने में आता है कि महा-कामचोर और मक्कार मातहत को बिदाई पार्टी में महान, मेहनती, कर्मठ जैसे सारे  विशेषणों से सुशोभित किया जाता है कि एक बारगी तो लगने लगता है कि बन्दे का नाम अगली बार भारत सरकार द्वारा  पद्मश्री या पद्मभूषण पुरस्कार के लिए शर्तिया पक्का है | अपने सेवा काल में अनगिनत विदाई समारोहों का संचालन करने का मौक़ा मिला और विदाई भाषण में सही मायने में वही मक्खी पर मक्खी नक़ल मार कर एक ही भाषण से काम चलाया बस फर्क था तो नामों का | एक बार तो हद ही हो गई जब गलती से पुराने भाषण को ही पढ़ दिया और पार्टी में मौजूद लोगों ने ध्यान दिलाया कि राम लाल तो कबके रिटायर हो चुके हैं आज तो श्याम लाल की बारी है |

एक बिलकुल ही नई बात भी फिलहाल में ही मुझे पता चली | फेयरवेल पार्टी के खर्चे कम करके घाटे में चल रही कंपनी को भी ऊंचा लाभ कमा कर नवरत्नों की जमात में शामिल किया जा सकता है | फूलों के गुलदस्ते की जगह एक गुलाब का फूल दीजिए और मिठाई की डिबिया में से एक बर्फी का पीस कम कर दीजिए और देखिए फिर कमाल |  बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि मुरदे की मूँछ मूँड कर वजन कम कर दिया | पता नहीं ऐसे होनहार प्रकांड अर्थशास्त्री हमारे वित्तमंत्री की नज़रों से कैसे बचे रह गए वरना देश के संकटग्रस्त जी.डी.पी की यह हालत न होती | अब यह बात अलग है कि इन होनहार अर्थशास्त्री के चश्में वाली नज़र  से भी कंपनी के कारखानों में हो रही प्रचंड बर्बादी की ओर ध्यान नहीं जाता जिसकी वजह से बीच मझधार में पडी नैय्या डूबने के कगार पर आ चुकी है | इस प्रकार के महानुभावों के कार्यकलाप की यदि आपको थोड़ी बहुत और झलक चाहिए तो एक बारगी इसी ब्लॉग का एक मजेदार लेख (जिसका लिंक भी साथ ही दिया है)  "जीना इसी का नाम है - गूँज"  लेख जरूर पढ़ लीजिएगा | 
इन विदाई पार्टियों में कई बार लोगों को अपने मन का दबा गुबार निकालने का भी मौक़ा मिल जाता है | मुझे आज तक तक याद है तब मैं हरियाणा के चरखीदादरी में सेवारत था | एक ऐसी ही पार्टी में  श्री टी .के. भट्टाचार्य जोकि तब कार्मिक अधिकारी हुआ करते थे, के गले की सांस की नली में रसगुल्ला फँस गया और उनकी जान पर ही बन आयी थी |
 उस फँसे हुए रसगुल्ले को बाहर निकालने के प्रयत्न में कोई उनकी खोपड़ी पर वार कर रहा था तो कोई पीठ की निहायत ही बेदर्दी से धुनाई कर रहा था | कहने की बात नहीं उन शुभचिंतकों की भीड़ में कई ऐसे पंगेबाज भी शामिल हो गए थे जिन्हें बस केवल अपने हाथों की खुजली मिटानी थी | रसगुल्ला तो खैर बंगाली दादा के हलक से तोप के गोले की तरह बाहर आगया पर सांस आते ही दादा कराहते हुए बोले "अगर इस रसगुल्ले से मैं नहीं मरता तो तुम लोगों के ताबड़तोड़ घूंसों की मार से तो मैं शर्तिया मर जाता | मेरी विदाई तुम फेक्ट्री से कर रहे हो या इस दुनिया से |" जहां तक मुझे पता है उस दिन के बाद दादा ने पार्टियाँ तो बहुत खायीं पर बिना रसगुल्लों के | 

जिन जगहों पर नौकरी में ट्रांसफर आम बात होती है वहां फेयरवेल पार्टी भी उतनी ही आम होती है | अब खुद  को पार्टी लेना जितना सुखदायक लगता है दूसरों को देना उतना ही दिलजलाऊ खासतौर पर जब ऐसी पार्टियों की अर्थ व्यवस्था चंदे के कंधे पर सवार हो | खुद ही सोचिए कैसा लगता है जब उस अफसर के लिए जिसने बरसों आपकी नाक में दम कर रखा था उसकी ही पार्टी का इंतजाम करने के लिए  एक मोटी रकम मन मार कर चंदे की झोली में डालनी पड़े | इस मामले में  मैंने तो और भी अजीबोगरीब हालातों का सामना किया है| देहरादून से दिल्ली मुख्यालय में मेरा  ट्रांसफ़र हुआ तो सभी अधीनस्थ कर्मचारियों में मानों खुशी की लहर दौड़ गई | उन्हें लगा जैसे ऊपर वाले ने उनकी प्रार्थना सुन ली है | दशहरे जैसे उत्सव के माहौल में बाकायदा (रावण की ) फेयरवेल पार्टी हुई और एक अच्छा-खासा उपहार दिया और दिल्ली की रेलगाड़ी में स्टेशन तक जाकर, डिब्बे में बैठाकर दरवाज़ा अच्छी तरह से बंद भी कर दिया| ट्रेन ने जब तक देहरादून स्टेशन का आउटर सिग्नल पार नहीं कर दिया तब तक उस पलटन का एक भी सिपाही अपनी जगह से हिला तक नहीं | अब इसे क्या कहूँ जनता का प्यार या गब्बर का बुखार |

खैर कहते हैं आज तक ऊपर वाले के आगे किस का जोर चला है | शायद इसीलिए भगवान से देहरादून वालों की खुशी ज्यादा दिन तक देखी नहीं गई  और तीन महीने के बाद ही मेरी तैनाती फिर से वापिस उलटे बांस बरेली की तर्ज़ पर देहरादून कर दी गई | वापिस मुझे फिर उसी दफ्तर में पा कर उन सभी कर्मचारियों की शक्लें देखने लायक लग रहीं थी |  दीवार फिल्म के अमिताभ बच्चन की तरह से ईश्वर से उनका मानों विश्वास ही उठ गया था| 

पर उनके पास भी इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था कि बाप और अफसर अपनी अपनी इच्छा से नहीं मिलते- जो भी मिल जाए ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रेम भाव से सर माथे स्वीकार करने में ही भलाई है | जिसकी किस्मत में जितना लिखा है,  झेलना तो पड़ेगा  ही, चाहे रो कर या हँस कर|  अब किस्मत की मार, छह महीने बाद फिर से मेरे ट्रान्सफर आर्डर आ गए |  लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई कि इस बन्दे ने फेयरवेल पार्टी और गिफ्ट लेने के लिए हेड आफिस से सेटिंग कर रखी  है | अब भाई शक का इलाज़ तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं हैं, मैं तो किस खेत की मूली हूँ|  खैर पार्टी भी हुई और गिफ्ट भी दिया गया – पहले कंबल था इस बार रुमाल और विदाई भाषण में इशारों-इशारों में मुझे बता भी दिया गया " श्रीमान  अगली बार की पार्टी अगर होगी तो आपके ही खर्चे पर होगी इसलिए जरा सोच-समझ कर ही वापिस आना |"  यह अब आप पर है कि  इसे सच मानें या झूठ पर मुझकों बरसों बाद तक दु:स्वप्न आते रहे कि मुझे फिर से देहरादून भेजा जा रहा है और मैं जंजीर फिल्म के हीरो की तरह से पसीने में सराबोर डर कर नींद से उठ जाता था |                            

Friday 9 November 2018

ऊँची उड़ान (भाग 3 ): सौरव मिश्रा : सफ़र सुरीले संघर्ष का


शायद अब तक आपको अंदाजा हो गया होगा कि उड़ान श्रंखला के द्वारा मैं आपकी जान-पहचान उन ख़ास लोगों से करवाता हूँ जिन्होंने अपनी मंजिल हासिल करने के लिए बेशुमार संघर्ष करने पड़ें हैं |चलिए आज मेरा लिखा पढ़ने से पहले सुनिए उस सुरीली आवाज को जिसे सुनकर आप खुद भी जानना चाहेंगे उस इंसान  के बारे में जिससे मैं आपको मिलवाना चाह रहा हूँ |नीचे अलग-अलग तरह के गानों के लिंक दिए गए हैं जिन्हें सुनकर आपको इस हरफनमौला गायक की प्रतिभा का बखूबी अंदाजा हो जाएगा|



मेरा यह लेख संगीत के प्रति शौक रखने वाले गंभीर पाठकों को समर्पित  है | मेरी मोटी बुद्धि के अनुसार दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं | पहले जिनके लिए मुहावरा बना है – भैंस  के आगे बीन बजाना, दूसरे जिन्हें आप कहते हैं संगीत के प्रेमी और तीसरे बिरले किस्म के प्राणी जो होते हैं संगीत के उपासक,साधक  |  आज मैं उन्हीं संगीत  के पुजारियों की बात कर रहा हूँ जिनके लिए खान-पान, दीनो-दुनिया और रोजी-रोटी से भी  ऊपर बस एक ही जुनून है और वह है सिर्फ संगीत का | इनकी हर साँस  में बस संगीत की लय, ताल और सरगम बसी होती है | एक ऐसे ही शख्स को मैं भी जानता हूँ जिसके रोम-रोम में संगीत की स्वर लहरियाँ बसी हैं | सुरीली और मनमोहक आवाज के स्वामी  इस नवयुवक का नाम है सौरव मिश्रा जिनकी गायकी का कमाल मैंने सबसे पहले  आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व इंटरनेट पर एक यू-ट्यूब की एक म्यूजिक वीडिओ पर देखा  जिसका नाम था बंजारा | आवाज में कुछ एक ऐसी कशिश थी कि दिमाग के किसी कोने में वह जादुई आवाज़  मानों घर कर गई | मिलना तो इस नवयुवक से मेरा आज तक नहीं हुआ पर बीच-बीच में कभी-कभार फोन पर बात हो जाती थी | इस यदा-कदा की बातचीत का इतना प्रभाब जरूर हुआ कि जितनी मधुर आवाज उसके गानों में सुना करता उससे कहीं अधिक शालीनता और नम्रता उसके व्यवहार में महसूस हुई | कला-क्षेत्र के कई नामी-गिरामी बुलंदी छूते घमंड में चूर लोगों को जमीन पर लमलेट  होने में देर नहीं लगती |   कलाकार को दक्षता के अतिरिक्त जिस संवेदना, संस्कार और विनम्रता की जरूरत होती है वह इस नवोदित सितारे में मुझे  अनुभव हुई जोकि उसके उज्जवल भविष्य का सूचक है | मेरे ब्लॉग के अधिकाँश लेख आस-पास के ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों ,  स्थानों या विषय से सम्बंधित होते हैं जिनमें सबसे हटकर कुछ अनोखापन, रोचकता और समाज के लिए सन्देश हो | शायद यही कारण है मुझे लगा कि इस करीब के किरदार के बारे में कुछ लिखूँ | इस शख्स में बहुमुखी प्रतिभा है- यह गायक है , गीतकार है, संगीतकार है; स्टेज पर उतना ही अच्छा लाइव-शो भी करता है | जितनी पकड़ उसे सुगम संगीत पर है उतना ही कौशल उसे शास्त्रीय और सूफी शैली के गीत-संगीत पर भी है | फोन पर ही लम्बी बातचीत सौरव से हुई और जितनी भी जानकारी इस सुरीले, सुशील और सुदर्शन कलाकार के बारे में जुटा पाया वह सब आप भी सुनिए खुद सौरव मिश्रा की ज़ुबानी –
सुरों का सिकंदर : सौरव मिश्रा 

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नाम तो आप मेरा अब तक जान ही गए होंगे – जी हाँ सौरव मिश्रा |जिस उम्र में बच्चों को खेलने-कूदने से ही फुर्सत नहीं होती तब मेरे दिमाग़  में संगीत का जादू उस हद तक घर कर चुका था कि रात-दिन सपने में भी स्वर लहरियाँ सुनाई पड़ती थीं  | मुज़फ्फरनगर-सहारनपुर राजमार्ग पर मुजफ्फरनगर से लगभग सात कि.मी. दूर एक छोटा सा कस्बा है – रोहाना,  वही मेरा जन्म स्थल है  जहाँ से मेरे बचपन और किशोरावस्था की यादें जुड़ी हैं | उत्तर प्रदेश सरकार की रोहाना में एक चीनी मिल थी जिसका अब निजीकरण हो चुका है, उसी चीनी मिल में मेरे पिता काम करते थे | जाहिर सी बात है मेरा बचपन उसी चीनी मिल और उसके टाउनशिप के परिवेश के इर्द-गिर्द रहा |
मेरे संगीत का पहला आलाप रोहाना की इन्हीं गलियों में गूँजा 
मेरे कुछ ख़ास दोस्त आज भी हँसी-मज़ाक में कहते हैं कि तुम्हारी आवाज की मिठास चीनी मिल के मिठास भरे वातावरण की वजह से है, ना कि रियाज़ की वजह से |  खैर दोस्तों की बातें तो दोस्त ही जानें पर मुझे संगीत का शौक काफी हद तक विरासत में मिला है | मेरे पिता के अलावा चाचा-ताऊ भी वहीं चीनी मिल में कार्यरत थे और हम सब एक संयुक्त परिवार की तरह मिल के टाउनशिप के मकानों में साथ ही रहते थे | अब मज़े की बात यह कि संगीत के सभी हद दर्जे के शौक़ीन | इसका मुझे सबसे बड़ा फ़ायदा यह मिला कि जब मैंने संगीत सीखने और व्यवसाय के रूप में चुनने के प्रति गंभीरता दिखाई तो सबने मेरा हौसला बढ़ाया | बात फिर से उसी बचपन की, घर का वातावरण शुरू से ही धार्मिक रहा | मंदिर नियमित रूप से जाते ही थे, वहीं पर भजन भी गाने का मौक़ा मिल जाता था | रोहाना कस्बे  में हर साल रामलीला भी होती थी जिसमें शुरुआत वानर सेना के बन्दर के रूप में की  और बाद में राम के मुख्य पात्र तक की भूमिका निभाने का मौक़ा मिला |आप यह भी कह सकते हैं कि  बन्दर से आदमी बनने का मैं जीता-जागता उदाहरण हूँ |  यहाँ की पारंपरिक  रामलीला में पात्रों द्वारा संवाद चौपाई के रूप में गायन शैली में बोले जाते थे अत: मुझे प्रतिभा दिखाने का स्वत: ही अवसर आसानी से मिल जाता  | दर्शकों से मिलने वाली तालियाँ और प्रोत्साहन यह मेरी जिन्दगी की संगीत की दुनिया से मिलने वाला पहला पुरस्कार था |
रामलीला सौरव ( दाईं ओर)  की प्रतिभा का पहला मंच 
अब मुझे लगाने लगा कि वक्त आ गया है जब संगीत को गंभीरता से सीखने-समझने की आवश्यकता है | इस बीच में मैंने अपने किसी परिचित की सलाह पर निकटवर्ती स्थान पर ही रहने वाले गन्धर्व संगीत महाविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक से संगीत सीखना शुरू किया |  इधर यू.पी. बोर्ड से मैं इंटर भी अच्छे नंबरों से पास कर चुका था | गणित और फिजिक्स विषयों में ख़ास तौर से मुझे एक तरह से देखा जाए तो मुझे महारत हासिल थी | अब मेरे सामने जिन्दगी की दुविधा मुँह खोले सामने आ खडी हुई | दिमाग कहता बी.एस.सी. में दाखिला लो, पास करो और लग जाओ रोजी-रोटी के जुगाड़ में जोकि मेरी उस समय की पारिवारिक आर्थिक हालातों की सबसे बड़ी मजबूरी थी |
दुविधा : किस राह पर जाना है 
पर दिल तो मेरा संगीत के पंख लगाकर एक अलग ही आसमान पर उड़ने के सपने ले रहा था |  दिल और दिमाग की लड़ाई आखिरकार बराबरी पर आकर रुकी – मैंने कालेज में दाखिला भी ले लिया और दिल्ली स्थित गन्धर्व संगीत महाविद्यालय में भी एडमीशन के लिए भाग-दौड़ शुरू करदी | काफी कठिन ऑडिशन टेस्ट को पास करने के बाद मुझे इस प्रतिष्ठित संगीत महाविद्यालय में प्रवेश मिल गया|  अब वही बात- दाखिला मिलना एक बात और उस दाखिले के बाद वहां की पढाई को निभाना दूसरी बात | अब पूछिए मत एक तरफ बी.एस.सी के लिए  मुजफ्फरनगर और संगीत के लिए दिल्ली, कुल मिलाकर मेरी हालत दो नावों पर सवार उस इंसान जैसी थी जिसका एक पाँव पाजामें में और दूसरा पतलून में | समझ लीजिए इज्ज़त कहीं से भी सुरक्षित नहीं |  दिल्ली में संगीत की क्लास सुबह नौ बजे से लगती थी जिसके लिए रोहाना में घर से तड़के चार बजे निकल कर स्टेशन से ट्रेन पकड़ता था , साढ़े आठ बजे दिल्ली  तिलक ब्रिज पर ही उतर कर मुंह धोता और चल देता अपने संगीत विद्यालय की ओर | यद्यपि मेरी क्लास सुबह 10 बजे तक समाप्त हो जाती थी पर मुझे वापसी की ट्रेन के लिए शाम चार बजे तक का समय भी बिताना होता था | इसके लिए काफी समय मैं कालेज में रियाज़ ही कर लेता था | रात को 10 बजे तक ही  मेरा वापिस घर पर पहुँचना हो पाता था |
मेरे संघर्ष के सफ़र का साक्षात् गवाह : रोहाना कलां 
तड़के सुबह का वक्त और देर रात - दोनों ही समय स्टेशन से  घर का रास्ता इतना सुनसान- वीरान कि रामसे ब्रदर्स की भूतिया फिल्मों के नज़ारे की याद दिला दें | ऐसे डरावने मंजर में मेरी हिम्मत सिर्फ बजरंग बली की हनुमान चालीसा ही बढाती थी | दिल के किसी कोने में यह विश्वास भी था कि जिसके सर पर संगीत का फ़ितूर हो उसका सचमुच का भूत भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता|
संगीत का फ़ितूर या सचमुच का भूत 
वैसे सच कहूँ तो संगीत का फ़ितूर ही नहीं बल्कि उसका जादू भी पूरी तरह से मेरे सर पर सवार था| गन्धर्व विद्यालय के बाद भी मैंने  एक के बाद एक अन्य विश्वविद्यालयों से संगीत  की विधिवत शिक्षा जारी रखी जिनमें इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय- खेरागढ़ (म.प्र.), प्रयाग संगीत समिति- इलाहबाद , और भातखंडे विश्वविद्यालय- लखनऊ  भी शामिल हैं |
संगीत साधना 
इतना सब करने के बाद अब भविष्य के प्रति मैं कुछ हद तक  निश्चित हो चुका था कि अब कम से कम भूखा तो मरूंगा नहीं | संगीत शिक्षक की नौकरी तो कम  से कम मिल ही जायेगी | मेरी संगीत की शिक्षा में मेरे आदरणीय गुरु सर्वश्री अरिनंदम मुख्योपाध्याय जी, पीताम्बर पाण्डेय जी और सुधांशु बहुगुणा जी का अमूल्य योगदान रहा | प्रसिद्ध पंजाबी सूफी गायक श्री हंस राज हंस जी की छत्र-छाया में मुझे अभी भी बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिल रहा है |
मार्ग दर्शक श्री हँस राज हँस जी 
अपने सभी आदरणीय गुरुओं के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए, मैं अपने दिल की समस्त गहराइयों और स्नेहिल भावनाओं से एक बात जरुर बताना चाहूँगा | अगर इन गुरुओं तक मैं पहुँच पाया और उनसे संगीत की शिक्षा ले पाया तो इसका सबसे बड़ा श्रेय मेरी मां श्रीमती सरोज मिश्रा को  जाता है | वह मेरी मां ही हैं जो ब्रह्ममुहूर्त से भी पहले तीन बजे सिर्फ इसलिए बिना माथे पर कोई शिकन डाले  उठ जाती थीं जिससे मैं तैयार होकर सुबह चार बजे स्टेशन के  लिए रवाना हो सकूँ | हद तो तब हो जाती थी जब मेरे लाख मना करने के बावजूद भी स्टेशन के बियाबान रास्ते पर साथ चल देती थीं | मुझे ही पता है कितनी जिद करने के बाद ही मैं उन्हें आधे रास्ते से वापिस लौटने को मना पाता  था | कहने की बात नहीं पर  ऐसी ममतामयी और साहसी  मां के आगे मेरा सर हमेशा ही आदर से झुका रहेगा |
 
मेरी हिम्मत : मेरी मां - श्रीमती सरोज मिश्रा 

अभी जो मेरा वक्त चल रहा था वह काफी  बदहाली, तंगहाली और संघर्ष का था | निजात पाने के लिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए | जहां कहीं भी गाने का मौक़ा गाने का मिलता, हाथ से नहीं जाने देता - चाहे जागरण हो, भजन-संध्या हो या संगीत कार्यक्रम | बस यह समझ लीजिए कि अपना जेब-खर्च खुद ही निकाल लेता और घर वालों पर कोई बोझ नहीं डालता | बची-कुची कसर इधर-उधर ट्यूशन करके पूरी कर देता |

वक्त ने धीरे-धीरे करवट लेनी शुरु कर दी टी सीरिज सुपर केसेट्स इंडस्ट्रीज की हिमाचल प्रदेश में  बद्दी स्थित प्लांट में मुझे काम मिल गया | काम मेरी ही पसंद का था पर मेरी मंजिल तो कुछ और ही थी | चुपके-चुपके टी.वी. चेनेल्स के लिए होने वाले म्यूजिक आडिशन में भी अपना भाग्य  आजमाता रहा अब क्या-क्या बताऊँकहाँ-कहाँ पापड बेले और किस्मत थी कि जैसे ही मंजिल के पास पहुंचतासफलता थी कि फुर्र से सर के ऊपर से निकल जाती| बस समझ लीजिए मानों हिम्मत और तकदीर के बीच जैसे जंग छिड़ी होहौसला मैंने भी नहीं छोड़ा कितने ही कितने ही गायन रिएल्टी शोज़ में भाग लिया | सफलता का किनारा भी धीरे-धीरे नज़र आना शुरू हो गया | सहारा चेनल  का प्राइड आफ़ यू.पी., एम.एच. चेनल के आवाज पंजाब दी, साधना चेनल का भक्ति गायन का  रिएल्टी शो सभी में  जबरदस्त  कामयाबी  और शौहरत दोनों मिली |

जोड़ी हमारी :चाहत -सौरभ 
इस बीच मेरे संगीत के सफ़र में एक साथी भी जुड़ गया जिनका नाम है चाहत कक्कर | मेरे लिए वह दोस्त भी है और साथ ही भाई से बढ़ कर भी है बल्कि सच कहूँ तो  सही मायने में परिवार के सदस्य की तरह | अब हो गए हम एक और एक ग्यारह | चाहत यूँ तो पत्रकारिता में स्नातक हैं पर बाद में साउंड इंजीनियरिंग के तकनीकी क्षेत्र में पढाई करके संगीत की दुनिया से भी मेरी तरह से ही जुड़ गए | अब हम दोनो ही जुट गए एक साथ एक नए जोश से नए गीत बनाते, धुन रचते, रिकार्डिंग करते; साथ ही  साथ संगीत कार्यक्रमों में स्टेज शो भी करते | सरस्वती की दयादृष्टि तो पहले से ही थी अब लक्ष्मी की कृपा भी हम पर होने लगी है  | बंजारा म्यूजिक वीडिओ आया, काफी तारीफ़ मिली | फिर एक के बाद कई और गाने भी आए जिनकी झलक आपको इसी ब्लॉग के लिंक  में देखने को मिल जायेगी | कई फिल्मों के लिए पार्श्व संगीत संगीत भी देने का मौक़ा मिला जैसे -  नारायण, तीन ताल,  बौद्ध भिक्षुक (Buddhist Monk) | रेडियो और टी.वी. विज्ञापनों  के लिए जिंगल भी बना रहे हैं जिनमें से कुछ हो सकता है आपने भी देखे- सुने होंगें | जिन्दगी लगातार व्यस्त होती जा रही है पर संगीत की दुनिया में मसरूफ़िअत का भी अलग ही मज़ा है, नशा है | हमारे लिए सफलता का यही मूल मन्त्र है “ सितारों के आगे जहां और भी है, अभी इश्क के इम्तहां और भी हैं”| 
सितारों से आगे जहां और भी है 
आगे कभी कुछ और बताने लायक हुआ तो आपके साथ अपनी खुशियाँ जरूर बाटूँगा क्योंकि मैं जानता हूँ कि एक कलाकार के सुख-द:ख के सच्चे साथी उसके प्रशंसक और आप जैसे चाहने वाले ही होते हैं| अपनी कहानी फिलहाल अब यहीं समाप्त करता हूँ |           
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तो दोस्तों, हालाँकि मुझे लग रहा है कि लेख ज्यादा लंबा हो रहा है इसलिए  फिलहाल की कहानी केवल सौरव के बारे में ही है | इस जोड़ी के चाहत कक्कड़ के बारे में लेख फिर किसी समय, जिसके लिए आपको करना पडेगा कुछ इंतज़ार | जैसा मैंने पहले भी कहा मेरा आज का यह लेख एक संघर्षशील संगीत साधक के बारे में है, उसकी लगन  और हर दिक्कत के बावजूद अपनी मंजिल को पाने की पुरजोर कोशिश के बारे में है | यह उभरता सितारा एक छोटे से कस्बे की बहुत ही साधारण परिवार की  पृष्ठभूमि से निकला गुदड़ी का लाल है जिसे आप एक दिन निश्चित रूप से सफलता के अंतरिक्ष में चमकते हुए पाएंगे- यह मेरा अनुमान नहीं विश्वास है, शुभकामनाओं सहित भविष्यवाणी है | 

Thursday 1 November 2018

सिरमौर : राजा का बन और उजाड़ नगरी


गिरी नदी और पर्वतों के बीच आज का सिरमौर  गाँव 

हिमाचल प्रदेश में एक जिला है सिरमौर जहाँ पर पावंटा साहिब नाम का सिक्खों का प्रमुख धार्मिक स्थल है | यहीं से लगभग 12 कि.मी. दूर राजबन स्थित है | यहाँ पर भारत सरकार की एक सीमेंट फेक्ट्री है और रक्षा मंत्रालय के अधीन डी.आर.डी.ओ. का अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण संस्थान भी है | राजबन का नाम  जितना सुन्दर है उससे अधिक सुन्दर यह जगह है|  मन को खुश करने को आपको जो भी चाहिए सब कुछ यहाँ है – घना जंगल, पर्वत, गिरी नदी, प्रदूषण रहित स्वच्छ, शांत वातावरण, सुहावना मौसम और सबसे बढ़कर प्यारे सीधे-सादे इंसान, कहाँ तक इसकी तारीफ़ गिनवाऊं | बस कुछ यूँ समझ लीजिए कि यहाँ पहुँच कर आपको लगेगा कि यदि देवलोक कहीं है तो यहीं है | ऊँचें-ऊँचे साल के वृक्ष जिनसे गर्मियों के मौसम में गिरते हुए पराग-कणों की भीनी-भीनी सुगंध पूरे वातावरण को आलोकिक छटा में रंग देती है | कैसी विडम्बना है कि जब यहाँ दिल्ली में  खुद इंसान के पैदा किए दमघोंटू, धूल-धक्कड़ और धुएं से भरे वातावरण में सांस लेने की मजबूरी है, ईश्वर ने  यहाँ अपनी स्नेहिल गोद में हमें सब कुछ स्वच्छ, निर्मल और साफ़-सुथरा दिया है| दिल्ली में यमुना इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि उसे देखने की भी जरूरत नहीं है | जब चार्टेड बस से आफिस जाता था तो ऊँघते हुए, बंद आँखों से भी बदबू का भभका आने पर पता लग जाता था कि यमुना के कालिंदी कुंज के पुल के ऊपर से जा रहा हूँ | यही पवित्र यमुना नदी  पांवटा साहिब में इतनी निर्मल है कि तलहटी के पत्थर तक साफ़ नज़र आते हैं |
  
आप पूछ सकते हैं इस जगह का नाम राजबन क्यों है ? राजबन का अर्थ है राजा का वन यानि राजा का  जंगल | अब यह इस जंगल में राजा कहाँ से आ गया यह जानने के लिए आप को राजबन से और आगे सड़क के रास्ते ऊपर  लगभग 4 कि.मी. चलना पड़ेगा | नीचे पर्वतों के बीच  खाई में एक छोटा सा  गाँव बसा है जिसका नाम है सिरमौर, जिसके पीछे गिरी नदी बह रही है  | वही सिरमौर जिसके नाम पर इस पूरे जिले का नाम पड़ा है | ज्यादातर मामलों मे जिले के मुख्यालय के नाम पर ही जिले का नाम पड़ता है पर यहाँ की बात ही निराली है | इस जिले का मुख्यालय  है नाहन नाम के शहर में पर यह जिला सिरमौर के नाम से जाना जाता है | सिरमौर पर राजपूत वंश के शासकों ने शासन किया था| सिरमौर भारत में एक स्वतंत्र साम्राज्य था, जिसकी स्थापना जैसलमेर के राजा रसलु ने लगभग वर्ष 1090 में की थी |  इनके एक पुरखे का नाम सिरमौर था जिसके नाम पर इन्होंने अपने राज्य को सिरमौर का  नाम दिया गया था। बाद में अपने मुख्य शहर नाहन के नाम पर ही  राज्य को भी  नाहन  के नाम से ही  जाना जाता रहा ।
कहा जाता है कि सबसे पहले सिरमौर के राजा का महल उसी जगह पर था जहां आज यह सिरमौर नाम का गाँव है |  दूसरे की सुनी-सुनाई बात पर क्या जाना, हाँ इतना जरूर है कि लगभग 40 साल पहले, जब मेरी पहली पोस्टिंग राजबन सीमेंट फेक्ट्री में हुई थी तब एक दिन घूमते-घूमते सिरमौर गाँव तक गया था और वहाँ पर उस पुराने महल के खंडहर मैंने स्वयं देखे थे | समय की मार के साथ उन खंडहरों का भी अब नामों-निशान मिट चुका है | उन खंडहरों के पत्थरों तक को गाँव के लोगों ने अपने मकान बनाने में लगा दिया | हाँ अगर किसी धरोहर को उनकी छूने की हिम्मत नहीं हुई तो वह थी  प्राचीन शिव मंदिर और गुफ़ा वाला मंदिर,  जो कि अभी भी सुरक्षित है | मेरे  पुराने मित्र श्री मुन्ना राम ने,  जो सिरमौर गाँव के ही निवासी हैं, उस जगह के कुछ फोटो  उपलब्ध कराये  हैं |


श्री मुन्नाराम

गुफ़ा मंदिर 


प्राचीन गुफा वाला मंदिर 




महल की प्राचीन मूर्तियों के अवशेष ( मंदिर के सभी फोटो श्री मुन्ना राम के सौजन्य से प्राप्त हुए )
उस भव्य महल के नष्ट होने की भी अपनी ही एक कहानी है जिससे लगभग हर सिरमौर वासी वाकिफ़ है | कहा जाता है कि राजा ने  नदी के आर-पार पर्वत की चोटियों पर रस्सी बंधवाई और एक नटनी को चुनौती दी कि अगर तुम इस रस्सी पर चलकर नदी पार करलो तो आधा राज्य ईनाम में दे दिया जाएगा | चुनौती स्वीकार करके नटनी ने रस्सी पर चलना शुरू किया और जब आधा रास्ता पूरा करके नदी के बीचों-बीच पहुँची तो आधा राज्य गवाँ देने के डर से राजा की नीयत में खोट आ गया और उसने रस्सी कटवा दी | नटनी ऊँचाई से गिरकर मर गई पर मरने से पहले राजा को श्राप दे गई कि तुम्हारा यह सारा राज-पाट नष्ट हो जाएगा | होनी की करनी भी कुछ ऐसी ही हुई कि बाद में वह महल भी किसी प्राकृतिक आपदा कारणवश मिट्टी में मिल गया |  यहाँ का राजवंश लगता है बाद में नाहन जाकर बस गया  |
मेरे पिता, जोकि एक प्रख्यात कवि थे,  अक्सर मेरे पास राजबन भी आया करते थे | उन दिनों के दौरान उन्हें  एक बार सिरमौर के खंडहर  दिखाने ले गया |  खंडहरों को देखकर उनके कवि मानस-पटल से एक कविता ने जन्म लिया जिसमें राजा और नटनी की कहानी को एक नया ही आयाम मिला | आप भी आनंद लीजिए उस कविता का :    
    

कवि  स्व० श्री रमेश कौशिक 
राजा और नटनी


नटनी को
वचन दिया राजा ने 

यदि कच्चे धागे पर चलकर
कर लेगी नदी पार
और वापस चली आएगी
तो आधा राजपाट उसका पाएगी |

नटनी ने विश्वास किया
राजा का 

आखिरकार प्रजा थी उसकी
कच्चे धागे पर चलकर
जब नदी पार कर ली उसने
और लगी वापस आने
तब राजा ने
आधा राजपाट देने के डर से
बीच धार कटवाया धागा |

गिरी नदी में नटनी
मर कर दूर बह गई
तब से नाम नदी का पड़ गया ‘गिरी’
विशवासघात के कारण
राजा का सिरमौर राज्य हो गया नष्ट |

अब आप कहेंगें
राजा बहुत बुरा था
नटनी से छलघात किया था
लेकिन वह भी तो मूरख थी
क्यों विश्वास किया राजा का |

राज अगर मिल भी जाता
तो भी क्या करती –
नाचा करती |
क्या करती .... बस नाचा करती 😄


लगभग चालीस वर्ष पहले लिखी यह कविता आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी सन्देश दे रही है कि अयोग्य व्यक्ति के हाथ में सत्ता आना कितना हानिकारक हो सकता है |