Saturday 27 August 2022

सुखमय जीवन : अपनी सोच

ज़रा अपने आसपास नजर घुमाइए । आपको मोटे तौर पर दो तरह के लोग नजर आएंगे । पहले वे –जब भी देखिए रोनी सूरत, माथे पर सिलवटें, परेशान हालत, ऊपर वाले से अपनी किस्मत को लेकर इतनी शिकायतें कि आप भी बोर होकर उनसे किनारा काटना शुरू कर देते हैं । इसके ठीक विपरीत दूसरे वे जिनकी ज़िंदगी का फलसफ़ा ही है – जिस हाल में जिओ – खुश रहो। खुशकिस्मती से मेरे लगभग सभी मित्र इस दूसरी श्रेणी में ही आते हैं और खुशहाल ज़िंदगी व्यतीत कर रहे हैं । यूं तो उन सबसे समय -समय पर फोन पर बातें होती ही रहती हैं । एक दिन बैठे – बिठाए दिमाग में खुजली उठी और उनमें से कुछ से जानना चाहा जीवन के प्रति उनका नजरिया, सुखी जीवन का रहस्य और अनुभव । उन सभी के अनुभव और विचारों के निचोड़ में अद्भुत समानता थी । छोटे छोटे गाँव, कस्बे से लेकर महानगरों तक में रहने वाले ये सीधे-सरल मित्र भी वही कह रहे हैं जो दुनिया – जहान घूम चुके जाने-माने पत्रकार स्व 0 खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा । आप इसे यूं भी समझ सकते हैं कि सच एक ही होता है चाहे वह किसी के मुंह से भी निकले । हो सकता है शायद आपभी जानना चाहें कि मस्त -मौला ज़िंदगी गुजर बसर करने वालों की सोच क्या कहती है ।

मुस्कराहट पर टेक्स नहीं लगता 

सुख की सीढ़ी का पहला पायदान अच्छा स्वास्थ है जिसके बिना सारी दुनिया वीरान और नीरस है । मेरा तो यहाँ तक मानना है कि दांत का दर्द होने पर अडानी और अंबानी जैसे दुनिया के दौलतमंद इंसान भी अपनी सारी हैसियत भूल जाते हैं ।

अपनी जरूरतें कम और इच्छाएं सीमित रखें । वैसे तो इस मामले में मन को लाख समझाने के बावजूद हाल कुछ ऐसा रहता है कि दिल है कि मानता नहीं । पर जिसने भी इस दिल को काबू कर लिया वही सुखी रहा । इच्छा और लालच का तो कोई अंत ही नहीं । रोज़ समाचारों में बड़े – बड़े घोटालों की खबरें छपती रहती हैं और उन अरबपति घोटालेबाजों का अंत अस्पतालों में अत्यंत दयनीय परिस्थियों में होता है । सब सुविधाएं और रुतबा धरा का धरा रह जाता है ।

तीसरी बात – आत्म-संतुष्टी । ईश्वर ने जो भी आपको दिया है उसी में संतुष्ट रहना सीखिए । दूसरों की उन्नति देखकर मन में द्वेष मत पालें और किसी हीन भावना से ग्रस्त न हों । शायद आपको याद हो किसी जमाने में टीवी पर एक विज्ञापन चला करता था - उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा उजली क्यों । ऐसी सोच से कुछ लाभ नहीं – सोचेंगे तो कमीज तो उजली होने से रही अलबत्ता अपना ही खून जलेगा ।

इसके अतिरिक्त एक समझदार दोस्त और जीवनसाथी भी हो तो जीवन का आनंद ही कुछ और होता है । कहने वाले तो यहाँ तक कह गए कि आपस में झगड़ते रहने की बजाय अलग होकर शांति से जीना बेहतर है। जहाँ तक सवाल है मित्र मंडली का - उनका चुनाव सावधानी से करें । सर खाने वालों से, समय नष्ट करने वालों से, हमेशा रोने-धोने वालों से किनारा करना ही बेहतर रहता है । कंकड़ पत्थर के ढ़ेर इकट्ठा करने के बजाय अपने पास गिने चुने रत्न रखें – चाहे वे नाते रिस्तेदारों के रूप में हों या मित्रों के ।

पाँचवा मंत्र – अपनी रुचि के अनुसार कुछ अच्छे शौक पालें जैसे – संगीत, बागवानी, अध्ययन मनन, समाजसेवा । इस प्रकार के कार्यों का कोई अंत नहीं ।

सबसे महत्वपूर्ण जो मुझे लगता है वह है आप प्रतिदिन कुछ समय आत्मचिंतन और ध्यान के लिए अवश्य निकालें । मानसिक शांति के पौधे के लिए यह खाद का काम करता है ।

चलते- चलते- सुखमय जीवन के लिए इतनी सारी बातों महामंत्र चंद शब्दों में कुछ इस तरह से कह सकते हैं :

मस्त तबीयत , सर पर छप्पर ,
तन पर कपड़ा और दो रोटी ,
सुखमय जीवन बीत जाएगा ,
चाहत रखिए छोटी – छोटी ।

Thursday 18 August 2022

सूखते रिश्ते और परिवार

संकल्पना :सुश्री रेखा शर्मा । लगभग तीन दशकों का अनुभव लिए आप दिल्ली के एक जाने-माने पब्लिक स्कूल मे समाज शास्त्र की वरिष्ठ व्याख्याता हैं । 

अभी कुछ दिन पहले देश की स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ पर अमृत महोत्सव उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था । सब तरफ़ तिरंगे की बहार रही । टेलीविजन पर जननायकों के भाषण को जनता बड़े ध्यान से सुन रही थी और मैं भी । बहुत सारी बाते थीं – कुछ सर के ऊपर से निकल रहीं थी तो कुछ भीतर तक मार कर रही थीं । जब बात आई परिवारवाद और राष्ट्रीय एकता की तो दिमाग में कुछ हलचल सी हुई । कहा जा रहा था कि देश को जगह-जगह फैले परिवारवाद से मुक्ति चाहिए । अब मैं ठहरी राजनीति से कोसों दूर विचरण करने वाली अध्ययन-मनन के खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने वाली पक्षी । राम चरित मानस की वह चौपाई सुनी तो आपने भी होगी – जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । अब कहने वालों का आशय चाहे जो भी रहा हो, मुझे लगता है कि हमारे इर्द गिर्द समाज में, देश में परिवारवाद तो है ही नहीं । अगर परिवारवाद होता तो परिवारों, बुजुर्गों की इतनी दुर्दशा नहीं होती । हाँ जिस प्रकार के परिवारवाद की आजकल जगह-जगह चर्चा की जाती है वह वास्तव में परिवारवाद का बिगड़ा हुआ स्वरूप है । हम बात करते हैं राष्ट्रीय एकता की लेकिन स्वयं के परिवार की खोज – खबर नहीं ।

मेरी कल्पना का परिवार तो आज भी वही है जो मैंने बचपन में देखा । गर्मी की छुट्टियों मे नाना -नानी, दादा -दादी के पास जाना । अपने उन भाइयों के साथ – जिन्हें आज की अंग्रेजीयत की भाषा में कजिन – ब्रदर्स कहा जाता है – घुलमिल कर एक अलग ही संसार में खो जाना । घर के लंबे-चौड़े दालान में रात को खटियाओं की कतार ही लग जाती । घर का पालतू शरारती कुत्ता शिमलू हमारी हर शरारत का भागीदार होता । वह बीता हुआ समय जैसे समय के साथ ही खो चुका है । आज का परिवार घर की चारदीवारों से बाहर अस्तित्व नहीं रखता । इसमें केवल पति, पत्नी और बच्चों का ही स्थान है। मकान तो बन जाता है लेकिन वह कभी घर नहीं बन पाता । उस मकान में सभी भौतिक सुख-सुविधाएं तो जुट जाती हैं लेकिन शांति का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं होता । बूढ़े माँ -बाप से ही जब किनारा कर लिया जाता है तो बाकी रिश्तेदार तो सुदूर ग्रहों में बसने वाले प्राणी हो जाते हैं । हालात यहाँ तक हो जाते हैं कि खून के निकटतम संबंधियों के चेहरा देखे भी इतना अरसा हो जाता है कि अगर सड़क पर सामने से गुजर भी जाएं तो पहचान नहीं पाएं । हाँ इन रिश्तों में एक अपवाद अवश्य है कि युवावस्था में मित्रों को वह विशेष दर्ज़ा दिया जाता है जिसके आगे अन्य सभी घरेलू रिश्ते फीके पड़ जाएं । कोई बात नहीं – समय का चक्र सब हिसाब एक बराबर कर देता है । वक्त के साथ -साथ उम्र गुजरती जाती है । जब तथाकथित गोद लिए हुए मित्रगण भी वक्त के साथ अपनी- अपनी विवशताओं के कारण किनारा कर लेते हैं तब याद आती है कहाँ गए मेरे अपने जो सच में अपने थे । जो तब आपके पास आने को व्याकुल थे पर अपनी मनमौजी सोच के कारण आप लगातार उपेक्षा करते रहे । आज हालात ठीक उसके विपरीत हैं । आज आपको उन बिछड़े हुए रिश्तों की आवश्यकता है, आज आप अपनी मजबूरी में दरवाज़ा खटखटा रहे हैं पर जरूरी नहीं कि दूसरी ओर भी आपकी जरूरत महसूस हो रही हो । हम सब इंसान हैं देवता नहीं । बीता हुआ समय और आपबीती सब को याद रहती है जो वक्त पर गुल खिला ही देती । अगर मैंने अपने माता – पिता को उनके बुढ़ापे में उपेक्षित किया है तो भूल जाइए कि मेरी स्वयं की ढलती उम्र सम्माजनक तरीके से गुजरेगी ।

सूखते रिश्ते - वीरान घर

कुल मिलकर कहने का सार यह कि हम सब परिवारवाद की उसी स्नेहिल डोरी से जुड़े रहें जो हम सब के बचपन की यादों में कहीं खो सा गया है । राष्ट्र को मज़बूत करना है तो पहले अपने घर के सूखे पड़े रिश्तों से करें । अब इसे चाहे आप परिवारवाद कहें या परिवार प्रेम, रिश्तों के वटवृक्ष की जड़ों को मजबूत करने के लिए और हम सब के सुखद भविष्य के लिए बहुत आवश्यक है। मेरी सोच है – आप तक पहुंचा दी कहाँ तक आप सहमत हैं यह आप पर निर्भर है ।
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(प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक)

Tuesday 9 August 2022

शतक और दो वर्षों की दुविधा

एक लंबे अरसे की चुप्पी के बाद आपके सामने प्रस्तुत हूँ ।

हम  सब बचपन से सुनते आ रहे हैं , मेरे मन कछु और है, दाता के कछु और । इंसान सोचता रहता है, बड़े – बड़े मंसूबे पालता है – मैं यह करूँगा , वह करूँगा – पर अंत में जो नतीजा निकलता है वह वही होता जिस पर ऊपर वाले की मंजूरी की मोहर लगती है। बहुत पहले बचपन में फिल्म देखी थी ‘वक्त’ । उसमें बलराज साहनी एक ऐसे सेठ थे जिन्होनें अपने बच्चों के लिए बहुत ऊँचे -ऊँचे सपने पाले थे लेकिन वक्त की मार के आगे सब छिन्न-भिन्न हो गए । आपको यह बात इस लिए बता रहा हूँ कि जीवन से जुड़े छोटे-मोटे कहानी किस्से अपने ब्लाग के माध्यम से आप सबके पास पहुंचाता रहा हूँ । लगभग हर सप्ताह कोई नई कहानी, नया किस्सा आप सब तक पहुँच ही जाता था । यह सब सिलसिला निर्बाध रूप से चलता रहा और ब्लाग की पोटली में किस्सों की गिनती बढ़ती गई – दस .. बीस.. पचास .. अस्सी .. नब्बे और एक दिन जब उस आँकड़े ने 99 की गिनती छू ली तब दिमाग ने कुछ ऐसी खिचड़ी पकानी शुरू करदी कि बस कुछ मत पूछिए। बस हर दम एक ही विचार खोपड़ी में दौड़ लगाता रहता कि शतक बनाने वाले किस्से का नायक कौन होगा, विषय क्या होगा, वगैरा .. वगैरा ।

अब मज़े की बात यह कि जितनी सहजता से अब तक लेपटॉप के कीबोर्ड पर उँगलियाँ दौड़ती रही थी, अचानक उनमें जैसे ब्रेक लग गया । यह ब्रेक भी टेलीविजन पर चलाने वाले कार्यक्रम के बीच दिखाए जाने वाला कोई छोटा-मोटा कमर्शियल ब्रेक नहीं था । दिमाग में दही जमने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी । दिन हफ्तों में, हफ्ते महीनों में और महीने साल का रूप लेने लगे और उस नायक का दूर-दूर तक नामों-निशान नहीं जिसे स्वर्णिम शतक के घोड़े पर सवार होकर आपके पास आना था ।

समय था कि गुजरता जा रहा था । उस ऊपर वाले की कुदरत ने भी अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया । कोरोना की महामारी  दैत्याकारी प्रचंड रूप धारण कर चुकी थी । हर आदमी एक तरह से मौत के साये में जी रहा था । कितनों ने अपनी जान गवाईं , अपने प्रिय जन गँवाए, मौत से किसी प्रकार बच भी गए तो बीमारी ने अधमरी हालत में ला पटका ,अपना रोज़गार खोया । शायद ही कोई परिवार हो जो इस महामारी की मार से अछूता रहा हो । अब हालात कुछ ऐसे कि मैं स्वयं दुखी, मेरे निकट संबंधी कष्ट में, मेरे मित्रगण परेशानी में । ऐसी परिस्थितियों में कहानी-किस्सों के बारे में सोचना किसी भी संवेदनशील प्राणी के बस की बात नहीं । यही वजह रही मेरी खामोशी की ।

अब इस सारे घटनाक्रम ने पूरे दो साल निकाल दिए । बकौल मशहूर शायर मिर्ज़ा गालिब “मुश्किलें इतनीं पड़ी मुझ पर कि आसां हो गईं”। कुल मिलाकर हालात अब पहले जैसे बदतर नहीं हैं लेकिन फिर भी मंज़र कुछ-कुछ तो ऐसा ही है जिसके लिए कवि नीरज कह गए - – “कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे” ।

इस तूफान के बाद की खामोशी ने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया । मानों अंदर से कोई आवाज कह रही हो –“ बेटा ! क्रिकेट में क्रीज़ पर बल्ला लिए अच्छे -अच्छे धुरंधर खिलाड़ी 99 रनों पर ही आउट हो जाते हैं। शतक खिलाड़ी नहीं बनाता, मैं बनवाता हूँ । इस दुनिया का सबसे बड़ा खिलाड़ी मैं हूँ । जिसने भी इस रहस्य को जान लिया, समझ लिया उसीका जीवन सफल है, सुखमय है।“

विगत दो वर्षों में जो कुछ अनुभव हुआ – कुछ आपबीती कुछ जगबीती, उसने इतना तो स्पष्ट इशारा कर दिया कि ‘शतक- कथा’ का नायक, जी नहीं – क्षमा कीजिए – महानायक उस आदि शक्ति, परमपिता परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता जो इस संसार को चलाता है। जबतक यह विचार मेरे दिमाग में नहीं आया तब तक इस ब्लाग की रेलगाड़ी ने स्टेशन पर डेरा ही जमा लिया ।

इतने समय के बाद जबकि आपमें से बहुतों के स्मृतिपटल से शायद मैं गायब भी हो चुका होऊँगा, यह लेख महानायक परमेश्वर को समर्पित इस अर्चना के साथ :

जीवन-चक्र चमत्कार है
साँसें हैं उपहार,
परमपिता को याद रखो
मानो उसका उपकार ।