Saturday, 31 October 2020

थक गया ख़ुदा !



वह भी था समय ,

महामारी  का था ना नामो - निशान ,

चारों ओर बस भीड़ , शोरगुल,

धूल - धुएं से परेशान इंसान ।


फिर आया कोरॉना,

जैसे फटा कोई बम,

पूरी दुनिया गई जैसे थम,

आदमी घरों  में कैद

हवा - नदियां हुई साफ़    ,

आसमां ने ओढ़ा नीला लिहाफ़ ।

साथ ही . . .  

शुरू हुआ आदमी का  सफ़ाया,
  
और कुदरत की सफाई।

एक तरफ दर्द - एक तरफ दवाई ।




बदले फिर हालात,

दिख रहा अब चारो ओर दर्द ही दर्द ,

आसमां में छाई धूल की गर्त,

जीवन बन रहा फिर से नर्क।

नहीं कोई राहत,

सर पर सवार कोराना की शामत ।


देख कर यह सब,

बात इतनी समझ आयी

थक चुका  ख़ुदा भी

कर कुदरत की सफाई ,

करता है अब  इंसान का सफाया ।

Saturday, 17 October 2020

यादों का सफर : अनिल डी शर्मा

 अनिल डी  शर्मा 
यादों के समंदर में गोते लगाना भला किसे अच्छा नहीं लगता – मुझे भी लगता है । मैं भी उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जब सीनियर सिटीजन की उम्र की दहलीज को छू ही लिया है । यद्यपि अभी भी अपने आपको हर तरह से सक्रिय रखा हुआ है फिर भी जब कभी फुरसत के क्षणों में बैठ कर सोचता हूँ कि इस भाग-दौड़ की ज़िंदगी में अब तक क्या खोया और क्या पाया तब बीती हुई ज़िंदगी की कहानी किसी सिनेमा के परदे पर चल रही तस्वीरों की तरह बंद आँखों में सपने की तरह दौड़ने लगती है । यह आज की बात नहीं है – मेरे साथ पिछले दस सालों से यादों की आंधी कुछ ज्यादा ही झकझोर रही है । इन पुरानी यादों में सबसे करीब हैं वह मीठी यादें जो बचपन से जुड़ी हुई हैं । उन यादों ने दिल में कुछ ऐसी अमिट छाप और कसक छोड़ी हुई है कि आज भी मैं उन लम्हों को फिर से जीना चाहता हूँ । 

गुलधर रेलवे स्टेशन 
थोड़े में कहूँ तो मेरा जन्म वाराणसी में हुआ जहाँ मेरी ननसाल हुआ करती थी । एक तरह से आप मुझे बनारसी बाबू भी कह सकते हैं । पिता रेलवे में थे – कुछ यादें छुटपन की गाजियाबाद – मेरठ लाइन पर स्थित छोटे से रेलवे स्टेशन गुलधर से भी जुड़ी हैं । बाद में राजस्थान के कोटा में बस गए । मैं भी नौकरी के सिलसिले में काफ़ी घूमा -फिरा । भारत सरकार के सीमेंट कार्पोरेशन के मार्केटिंग विभाग में काफी समय तक जगह -जगह काम किया । आजकल कोटा के एक जाने-माने कोचिंग इंस्टीट्यूट में अपनी सेवाएं दे रहा हूँ । रोजमर्रा की काम – काज की व्यस्तता ही कुछ ऐसी रहती है कि दम मारने की फुरसत ही नहीं मिलती । लेकिन इतना जरूर है कि जब भी दो घड़ी सुकून के मिलते हैं तब भी यह कमबख्त दिमाग चैन से नहीं बैठ पाता । तब इस दिमाग पर दिल हावी हो जाता है जो ले जाता है मुझे पुरानी बचपन की प्यारी – प्यारी यादों में । 
मेरी नानी - प्यारी नानी 
इंसान को इस दुनिया में माँ से प्यारा कोई नहीं होता । ज़ाहिर सी बात है कि माँ की भी माँ यानि नानी तो दिल के सबसे प्यारे कोने में रहती है । मुझे भी अपनी ननसाल से इतना जबरदस्त लगाव और जुड़ाव रहा है जिसके आगे फेविकोल का जोड़ भी कुछ मायने नहीं रखता । मेरी उम्र तब रही होगी यही कोई आठ – नौ वर्ष की । अपने नाना को तो मैंने कभी नहीं देखा । उनका स्वर्गवास मेरी माँ की शादी से भी पहले ही हो चुका था । वह सही मायने में अंग्रेजों के जमाने के जेलर थे । माँ और नानी के मुंह से उनके राजसी ठाठ -बाट और रहन- सहन के किस्से सुनकर मैं अचंभित रह जाता । नानी के घर अक्सर छुट्टियों में जाया करता था ।

मेरे नाना  : सचमुच अंग्रेजों के ज़माने  के जेलर 



नानी का घर : अहमद मंजिल 
मेरी ननसाल थी बनारस के अर्दली बाजार इलाके में । वहाँ एक अंग्रेजों के जमाने की पुरानी सी दुमंजिला हवेलीनुमा शानदार इमारत थी जिसका नाम था – अहमद मंजिल । उस जैसी शानो-शौकत वाली इमारतें आजकल तो सिर्फ पुरानी फिल्मों में ही देखने को मिलती हैं । जहाँ तक मुझे याद आता है उसमें लगभग अट्ठारह - बीस कमरे थे – ऊंची – ऊंची छत वाले । गुसलखाने से लेकर रसोईघर तक सभी विशालकाय जिनके सामने आजके हाउसिंग सोसायटी के फ्लेट - मकान कबूतरखाने का आभास देते हैं । वह ज़माना था 1960 के दशक का । मेरी ननसाल में भरा-पूरा परिवार था – नानी , मामा , मौसी – सब तरफ से चहल-पहल से भरपूर । अपने जमाने में तब के बनारस में इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी । घर के पास ही हनुमान मंदिर था । एक दुकान थी बालमुकंद की जहाँ जाकर चटपटी लेमनचूस गोलियां खरीदकर चटखारे ले-ले कर खाते । उन गोलियों का स्वाद और याद आज भी बचपन के झूले पर बैठा देता है । घर के पास ही बरना नदी का पुल था जहाँ तक जाने के लिए रिक्शा या तांगा मिलता था । यह बरना नदी वही है जो मध्य प्रदेश से लंबी दूरी तय कर अंत में बनारस में गंगा में विलीन हो जाती है । 
बरना नदी का पुल 
वक्त के साथ – साथ हालात भी बदलते चले गए । अर्दली बाज़ार की अहमद मंजिल किराये की रिहाइश थी सो एक दिन तो उसे विदा कहना ही था । नानी ने भी इस दुनिया से रुखसत ले ली और नानी की सुनाई कहानियाँ वक्त की धूल के नीचे धीरे -धीरे धूमिल होने लगीं । लेकिन यादों में बसा रही तो वही अहमद मंजिल की ननसाल जो मेरे दिलों-दिमाग पर कुछ इस कदर हावी थी कि समय – समय पर दिल में हूक मारती – चल उसी आशियाने में जहाँ बचपन के पंछी ने अपने छोटे- छोटे पंखों से उड़ान भरना सीखा । नौकरी की व्यस्तता और तरह-तरह की मजबूरियों के जंजाल में यह सब संभव नहीं हो पाया । पर कहने वाले कह गए हैं लाख टके की बात – अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो नीली छतरी वाला भगवान भी खुद आपकी मदद को हाज़िर हो जाता है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । कोटा के जिस कोचिंग इंस्टीट्यूट की प्रशासकीय जिम्मेदारी निभा रहा हूँ वहाँ के लिए अध्यापकों की नियुक्ति करने के सिलसिले में केम्पस सलेक्शन के लिए एक बारगी आई.आई.टी, वाराणसी ( इंजीनियरिंग कॉलेज – भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) जाने का कार्यक्रम बना । मुझे लगा भगवान ने मेरे अंतर्मन की पुकार आखिर सुन ही ली । शायद अर्दली बाजार और अहमद मंजिल भी उस मासूम बच्चे से मिलने को बेताब थी जिसके छोटे – छोटे कदमों की आहट और खिलखिलाहट से उसकी शान में भी चार चाँद लग जाते थे । मैंने मन में उसी क्षण ठान लिया कि इस सुनहरे मौके को मैं हाथ से व्यर्थ नहीं जाने दूंगा । अपनी पुरानी यादों के सपने को साकार करने का समय सचमुच आ चुका था । 
वाराणसी में आई. आई. टी के गेस्ट हाउस में ही ठहरा । सबसे पहले तो कॉलेज के जिस काम के लिए आया था उसे निपटाया । अब बारी थी अपने बचपन में लौटने की । वाराणसी में ही मेरा ममेरा भाई भी रहता है । स्थानीय व्यक्ति की मदद के बिना मेरे ननसाल खोजी अभियान की सफलता संभव नहीं थी इसलिए वाराणसी में ही रहने वाले अपने ममरे भाई से संपर्क साधा । आशा के मुताबिक वह भी तुरंत हाजिर हो गया और फिर निकाल पड़े हम दोनों भाई अपनी पुरानी यादों के सफर पर । 
पहले का शांत अर्दली बाजार अब भीड़भाड़ और शोरगुल का केंद्र बन चुका था । बालमुकुंद की टॉफी वाली दुकान अभी भी मौजूद थी पर नए रूप- रंग में जिसकी कमान अब नई पीढ़ी के हाथ में थी । मेरे बचपन की ननसाल रहे अहमद मंजिल के आसपास का इलाका भी काफी बदल चुका था । उस पुरानी इमारत का दरवाजा धड़कते दिल से खटखटाया । दरवाजा खोलने वाले एक मुस्लिम शख्स थे । हमने अपना परिचय दिया और अनुरोध किया कि हमें अपने बचपन की यादों से जुड़े इस घर को एक बारगी देखने का मौका दें । आज के इस हिन्दू- मुस्लिम के बीच अविस्वास के दौर में भी भले लोगों की कमी नहीं है । वह जनाब बड़ी इज्जत से हमें घर के अंदर ले गए । मैं अब एक नई ही दुनिया में आ चुका था – वह दुनिया जो आज भी मेरे सपनों में जिंदा थी । मैं एक के बाद एक उस इमारत के कमरों को देख रहा था – किसी कमरे में मुझे अपनी नानी बैठी नजर या रहीं थी तो किसी में अपने मामा – मौसी । उन अद्भुत क्षणों में मैं बिल्कुल बेबस था क्योंकि यादों पर किसी का वश नहीं चलता । शायद मुझे परखने के इरादे से ही मकान मालिक ने कहा कि आगे आप खुद जाएं क्योंकि आप जब यहाँ रह चुके हैं तब तो यहाँ के चप्पे – चप्पे से वाकिफ़ होंगे । उस दुमंजिला विशाल इमारत के अंदर और छत पर मैं मंत्रमुग्ध सा घूम रहा था और सही मायने में यादों के समंदर में गोते लगा रहा था । 

हर सुनहरे सपने का एक अंत होता है – मेरे सपने का भी हुआ । वापिस चलने का समय आ गया । यहाँ की यादों को हमेशा के लिए मैं अपने साथ समेट कर अपने साथ ले जाना चाहता था । मकान मालिक से वहाँ के फ़ोटो खींचने की अनुमति मांगी । अहमद मंजिल इमारत की विरासत मुकदमेबाज़ी में फंसी होने के कारण उन्होंने फोटोग्राफी के मामले में अपनी असमर्थता जताई । वैसे तो मैं निहायत ही शरीफ़ किस्म का इंसान हूँ पर कुछ मौकों पर थोड़ा-बहुत दाएं – बाएं भी हो जाता हूँ । यहाँ भी कुछ ऐसा ही मामला था सो इज्जत का फ़लूदा होने का खतरा उठाते हुए भी आँख बचा कर कुछ फ़ोटो खीच ही डाले । यह बात अलग है कि वे फ़ोटो आज मेरे पास से भी गुम हो चुके हैं क्योंकि पुरानी कहावत है ‘चोरी का माल मोरी में’। 

पत्नी के साथ 

मेरी माँ और बच्चे 


                      (फ़ोटो सौजन्य : श्रीमती संगीता और श्री  राजीव कुमार)

वापिस कोटा आकर यादों को अपने परिवार के साथ बाँटा । माँ की आँखों में जो खुशी की चमक आई थी उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है ।  आज जब भी फुरसत के लम्हों में उन पुरानी यादों की जुगाली करता हूँ वह गीत अक्सर होंठों पर आ ही जाता है : 

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन🎵🎵🎵🎵🎵

                                                                (प्रस्तुतकर्ता : मुकेश कौशिक) 




Monday, 5 October 2020

मॉनीटर मित्र : श्याम लाल

मॉनीटर मित्र : श्याम लाल 
पुरानी कहावत है – सैयाँ भए कोतवाल अब डर काहे का । मतलब यही कि जब कोई दोस्त या रिश्तेदार किसी ऊंचे पद पर बैठा हो तो फायदा मिलने की पूरी संभावना होती है । स्कूल के दिनों में मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस होता था – क्योंकि श्याम लाल मेरा दोस्त था और दोस्त होने के साथ वह क्लास का मॉनीटर भी था । स्कूल खालिस सरकारी था । जब भी कभी क्लास में मास्टर जी नहीं होते या खाली पीरियड होता तब हमारी मस्ती की बात ही कुछ अलग होती । जबान पर लगा ताला मानो टूट जाता और संगी – साथियों के साथ हल्ला – गुल्ला उस स्तर पर पहुँच जाता कि पार्लियामेंट भी एक बारगी शर्म से पानी – पानी हो जाए । बातों का सिलसिला भी ऐसा जो रुकने का नाम ना ले । अब ऐसे समय में जब हम सब बातों के रस में पूरी तरह से सराबोर हो रहे होते थे तब अचानक ब्लेकबोर्ड पर लिखने वाले चॉक के टुकड़े बंदूक से निकली गोलियों की तरह शरीर से टकराती । नजर उठा कर देखता – ब्लेकबोर्ड के ठीक सामने मास्टर जी की जगह क्लास के मॉनीटर – यानी श्याम लाल को पाता । ब्लेकबोर्ड साफ़ करने का लकड़ी का डस्टर मेज पर ठकठका कर मॉनीटर की चेतावनी का नगाड़ा पूरी क्लास में गूंज उठता । पलक झपकते ही क्लास रूम मानों कोर्ट रूम में बदल जाता जहाँ के जज साहब अपना श्याम लाल होता । उसकी पैनी निगाह क्लास के बच्चों पर रडार की तरह नज़र रखती । इतने पर ही बात निबट जाए तब भी गनीमत समझो , वह तो शरारत करने वाले बच्चों के रोल नंबर एक -एक करके सामने ब्लेकबोर्ड पर लिखना शुरू कर देता । दिमाग का वह तेज था इसीलिए केवल नाम ही नहीं क्लास के सभी बच्चों के रोल नंबर तक उसे रटे पड़े थे । उसके द्वारा ब्लेकबोर्ड पर नाम लिखा जाना ठीक वही डर पैदा कर देता जैसा अमरीका द्वारा किसी देश को आतंकवादी घोषित करने पर होता है । मास्टर जी का जब क्लास में अवतरण होता तब उनके लिए ब्लेकबोर्ड ही गीता – बाइबिल – कुरान होता । उस पर आतंकवादियों के रोल नंबर वेद वाक्य की तरह अटल , शाश्वत सत्य माने जाते । उन आतंकवादी – शरारती – बातूनी बच्चों की किसी भी फ़रियाद पर कोई सुनवाई नहीं होती । हाँ- बतौर सज़ा, कुटाई होगी, मुर्गा बनना है या छड़ी से पिछाड़ी की सिकाई होनी है , यह मास्टर जी के मूड पर निर्भर होता । यह थी ताकत मेरे मॉनीटर मित्र श्याम लाल की जिससे क्लास के सारे बच्चे हद दर्जे की खौफ खाते थे । जहाँ तक मेरा सवाल है – पूरी क्लास का गब्बर मेरा तो दोस्त था , बल्कि एक तरह से कहूँ तो सही मायने में लँगोटिया यार था । यारी का फर्ज निभाने में कभी भी कतई पीछे नहीं रहा । जब शोर मचाती क्लास में आतंकवादियों के रोल नंबर ब्लेकबोर्ड पर लिखे जा रहे होते थे , तब मुझे वह केवल आँखे तरेर, अपने मुँह पर उंगली रख चुप होने का इशारा करता हुआ चाक का टुकड़ा मिसाइल की तरह खींच कर दे मारता । मास्टर जी की कुटाई – पिटाई के मुकाबले मैं भी उस चॉक के टुकड़े की गोली खाकर अपने को धन्य समझता कि चलो सस्ते में छूट गए । उसकी इस रहमदिली का कारण बहुत बाद में पता चला । दरअसल मेरी माँ भी उसी स्कूल में अध्यापिका रहीं थी और श्याम लाल किसी जमाने में उनका छात्र रह चुका था । 

स्कूल था मेरा दिल्ली – यमुना पार इलाके के झिलमिल कॉलोनी में । श्याम लाल भी नजदीक की ही कच्चे – पक्के मकानों की बस्ती विस्वास नगर में रहता था । जब भी मौका मिलता मैं अपने एक और दोस्त चंद्रभान- जो श्याम का पड़ोसी भी था , के साथ उसके घर चला जाता । यद्यपि वह समाज के उस वर्ग से था जिसे आर्थिक और सामाजिक नजरिए से अविकसित माना जा सकता है लेकिन उस बंदे में गजब का आत्मविश्वास भरा हुआ था । दिमाग का तेज था, क्लास का मॉनीटर था, एन.सी.सी का अच्छे केडेट्स में से एक था । खेल-कूद में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेता । लिखाई इतनी सुंदर जैसे मोती जड़ दिए हों । उस कच्ची उम्र में भी जिम्मेदारी का इतना एहसास था कि अपने पिता का हाथ बटाने के लिए उनकी किरियाने दुकान की जिम्मेदारी संभालनी शुरू कर दी थी । 

स्कूल के बाद रास्ते अलग -अलग हो गए । लंबे समय तक एक दूसरे की कोई खोज -खबर नहीं रही लेकिन मॉनीटर मित्र दिलों-दिमाग की तिजोरी में महफ़ूज रहा । पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के कोल्हू में जुत गए और रिटायर होते -होते कब जवानी ने विदा ली और बुढ़ापे ने दस्तक दी समय का पता ही नहीं चला । बचपन से बुढ़ापे तक के सफ़र में दुनिया ने भी बहुत तरक्की कर ली थी । सोशल मीडिया और मोबाइल का ज़माना आ चुका था । उसी के जरिए श्याम लाल की खोज खबर ली गई । असली दोस्ती वही होती है जिसका रंग समय के साथ फीका नहीं पड़ता वरन और भी पक्का होता जाता है । श्याम के साथ भी ऐसा ही था । वह भी नौकरी के बाद रिटायर हो चुका था । उसे भी मेरे तरह दोस्ती के उसी कीड़े ने काटा हुआ था जो हालचाल पता करने के लिए समय-समय पर फोन करता रहता । 

अब सिर्फ फोन पर बात करने से मन तो भरता नहीं । सो एक दिन प्रोग्राम बना कि अपने उसी झिलमिल कॉलोनी के स्कूल में श्याम लाल और चंद्रभान के साथ जाकर पुराने दिनों की यादें ताज़ा की जाएं । समय का फेर कुछ ऐसा रहा कि किसी न किसी कारणवश यह स्कूल दर्शन और मित्र मिलन का कार्यक्रम टलता ही रहा – कभी हारी- बीमारी, कभी व्यस्तता तो कभी दिल्ली का प्रदूषण । आखिर में रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी जब दिल्ली तो क्या सारी दुनिया ही ठहर गई । 

श्याम लाल के फोन हमेशा की तरह आते रहते – गपशप होती ।स्कूल के दिनों से आज तक उसमें कोई अंतर नहीं आया था सिवाय एक बात के – अब वह मुझे नाम के साथ जी भी लगा कर संबोधित किया करता । अभी कुछ दिन पहले की बात है – मोबाइल पर दोस्त चंद्रभान का संदेश था जिसमें श्याम लाल के आकस्मिक दु:खद निधन की सूचना थी । दिल को गहरा धक्का लगा । श्याम के घर फोन लगाया – बच्चों से बात की – जो पता लगा वह और भी कष्टकारी था । अचानक तबीयत खराब होने पर गंभीर हालत में श्याम को एम्बुलेंस में कई अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़े पर किसी ने भी उसे भर्ती तक नहीं किया । सब एक दूसरे पर टरकाते रहे और अंत में इलाज के अभाव में श्याम लाल के प्राण पखेरू एम्बुलेंस में ही उड़ गए । वह श्याम लाल जो बचपन में ही मॉनीटर बन कर पूरी क्लास की अनुशासन व्यवस्था संभाला करता था , अस्पतालों की अनुशासनहीनता से उसके प्राणों की रक्षा इस दुनिया का मॉनीटर नहीं कर पाया । ऊपर वाले से यह शिकायत मुझे ताउम्र रहेगी और साथ ही खुद अपने से भी – मिलने का वादा नहीं निभा पाया । 

अलविदा मॉनीटर मित्र 🙏