Sunday, 16 August 2020

जिन खोजा तीन पाइया

यह जो नीली छतरी वाला है – बहुत ही अव्वल दर्जे का कहानीकार है । दुनिया के हर बंदे के जीवन और भाग्य - कहानी का ताना-बाना इस चतुराई से बुनता है कि उस गोरखधंधे को अच्छे -अच्छे नहीं समझ पाते । इस सबका नतीजा कई बार वही होता है जैसा मेरी कहानी – “कौन है वह" के बाद पाठकों से मिली कुछ प्रतिक्रियाओं से पता लगा । ( अगर उस कहानी को अभी तक आपने नहीं पढ़ा तो उसे एक बार पढ़िएगा जरूर ) उस किस्से में एक ऐसे अनजान, अनदेखे शख्स का जिक्र था जो अंधेरी बियाबान रातों में, जब सारी दुनिया नींद के गहरे आगोश में सो रही होती है –अपनी बड़ी सी गाड़ी में सड़कों पर घूमता रहता । कड़कती सर्दी, घनघोर बरसात , भीषण गर्मी – कुछ भी हो उसकी राह और उद्देश्य में रुकावट नहीं बन पाती है । हर रात उसका एक खास मकसद होता है – सड़क किनारे बैठे बेसहारा कुत्तों ,  और पशु-पक्षियों के लिए खाना , दाना -पानी का शानदार इंतजाम करना । 
कुछ ऐसी ही प्रतीक्षा होती है रात के देवदूत की 
उसके इस नेक कार्यकलाप को मैं पिछले एक साल से महसूस कर रहा हूँ पर कभी उस बंदे को देखा नहीं क्योंकि वह तो ठहरा रातों का देवदूत । अब ज़िंदगी की असलियत को तो मैं बदल नहीं सकता । किस्सा पढ़ने के बाद मेरे दोस्त , मेरे सुधि पाठक सब मेरा कान पकड़ रहे हैं उस कहानी के लिए क्योंकि उस किस्से का नायक ही अदृश्य और गुमनाम है । सब का सिर्फ एक ही सवाल – वह कौन है , इसका जवाब भी चाहिए । झूठ मैं लिख नहीं सकता और उम्र के  इस दौर में जासूसी का काम मेरे बस का नहीं । पर जब आपने सवाल किया है तो खोजबीन और जवाब देने की जिम्मेदारी भी तो मेरी ही है । बस यह समझ लीजिए कि पता नहीं कितने पापड़ बेलने पड़े इस काम में । पूरी – पूरी रात जागा – कान सड़क पर हर आती -जाती गाड़ी की आवाज पर । एक रात साढ़े तीन बजे खटका होने पर तीर की तरह बाहर की ओर भागा । सामने वही काली गाड़ी और यह लीजिए वह शख्स भी जिसके बारे में जानने के लिए सभी उत्सुक । इसी को तो कहते हैं : जिन खोजा तिन पाइया । 

वह सज्जन- एक उम्रदराज सरदार जी , बड़ी तसल्ली से सड़क किनारे बेसब्री से इंतजार कर रहे कुत्तों की टोली को बिस्किट्स की दावत कराने में व्यस्त थे । सरसरी निगाह से उनकी बड़ी सी काले रंग की  एस.यू.वी गाड़ी की डिक्की में नजर दौड़ाई जो खाने पीने के सामान से ठसाठस भरी हुई थी । मैंने सरदार जी को अभिवादन कर अपना परिचय दिया । थोड़ी बहुत इधर -उधर की बातें हुईं । अपने मन में उमड़ रहे ढेर सारे सवालों के जवाब भी जानना चाह रहा था । दिक्कत यही थी कि उन्हें अभी और भी आगे जाना था, बातें करने का समय भी नहीं था और सही वक्त भी नहीं था । उन्होनें मेरा फोन नंबर लिया और चलते – चलते यह वायदा किया कि जल्द ही मेरे से मिलने आएंगे और तब जी भर कर बातें भी करेंगे । मेरे देखते -देखते उनकी गाड़ी रात के अंधेरे में गुम हो गई । 
देवदूत  की रसद गाड़ी 
इसी बीच दो दिन निकल गए । दोपहर का वक्त था – यही कोई तीन बज रहे होंगे - कॉल बेल बजी । झाँक कर देखा बाहर वही सरदार जी खड़े थे । गोरा -चिट्टा रंग, मजबूत कद – काठी, चलने – फिरने का अंदाज  देखकर यकीन नहीं हुआ कि यह इंसान 78 वर्ष की उम्र का है । चेहरे पर गोल्डन फ्रेम का चश्मा, हाथ में बेशकीमती घड़ी, ब्रांडेड - सलीकेदार कपड़े उनकी शख्सियत को और भी प्रभावशाली और गरिमामय बना रहे थे । नेक काम करने का प्रभाव ही कुछ ऐसा होता है कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अनोखा ही तेज आ जाता है । ऐसा ही कुछ उस रातों के देवदूत को देख कर भी लगा । कोरोना संक्रमण के समय में हर आदमी नए अनजान शख्स से मिलने से डरता है – पर वह तो ठहरा देवदूत, दिल ने कहा – उससे डर कैसा । उनसे घर पर बैठ कर तसल्ली और आत्मीयता से बातचीत हुई । 

सबसे पहले उन्होनें बहुत ही विनम्रता से अपनी पहचान उजागर नहीं करने का अनुरोध किया । इसीलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए अब मैं उन्हें एक काल्पनिक नाम से ही संबोधित करूँगा – ‘सिंह साहब’ । उनका मानना है कि जिस दिन इंसान प्रसिद्धी के घोड़े पर सवार हो जाता है उसमें घमंड आने की पूरी संभावना होती है । उन्हें गुमनामी के अंधेरे में रह कर ही सेवा करने में आत्म संतोष मिलता है । लोग बेशक तरह-तरह की बातें बनाते रहें पर रात में जीव – जगत की सेवा पर निकलने के पीछे यही कारण है । इस प्रकार से कुत्ते -बिल्लियों से जन्मजात दुश्मनी रखने वाले कुछ लोगों की फ़िजूल टोका- टाकी से भी बच जाते हैं । यद्यपि मेरे घर के आस-पास उन्होंने विगत एक साल से ही आना शुरू किया है पर यह सेवा वह पिछले दस वर्षों से करते आ रहे हैं । अपने स्वभाव की विनम्रता के अनुसार के ही अनुकूल सिंह साहब कहते हैं वह जो भी कर रहे हैं उसमें उनका निजी स्वार्थ है । यह स्वार्थ है सेवा के बाद मिलने वाले संतोष का ।अपने जीवन में मिली सफलताओं और आज  ज़िंदगी के जिस मुकाम पर वह  खड़े हैं व वहाँ तक पहुँचने में शायद इन बेजुबान प्राणियों की दुआएं ही काम कर रही हैं । इस सेवा के कारण इंसान की मदद करने में वह कई बार धोखा खा चुके हैं क्योंकि मदद के हकदार सच्चे इंसान को पहचानने के मामले में कई बार भूल भी हो जाती है । नतीजा यही होता है कि कपटी और चालबाज लोग गलत फायदा उठाने में सफल हो जाते हैं और सिंह साहब के पास बाद में पछताने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता । इसीलिए वह कहते हैं कि पशु -जगत की सेवा में कम से कम खुद के ठगे जाने का खतरा तो नहीं होता । जितनी भारी -भरकम खाने की रसद की खरीद सिंह साहब करते हैं उसे देख कर तो यही महसूस होता है कि उनका नाम दरियादिल सिंह होना चाहिए । 

अब अचंभे की बात सुनिए । ज़िंदगी में जितने उतार -चढ़ाव सिंह साहब ने देखे हैं वह भी किसी फिल्मी कहानी की तरह कुछ कम दिलचस्प नहीं है । पुरखों का किसी जमाने में धन- दौलत से भरपूर , सम्पन्न परिवार था। आजादी के बाद भारत – पाक विभाजन के कारण सब कुछ छोड़ कर शरणार्थी बन कर हिंदुस्तान में कदम रखना पड़ा । लेकिन उस समय के बालक सिंह साहब के पिता जी का इतना रुतबा तो था ही कि वहाँ से हवाई जहाज से आए थे और उनका पहला ठिकाना अंबाला रहा । गर्दिश के दिनों ने दस्तक देनी शुरू कर दी । जमा -पूंजी की नैया भी धीरे -धीरे डूबने लगी और जल्द ही ऐसे हालात बन गए कि 12 साल के उस बच्चे को पटियाला की सड़कों पर दही- भल्ले बेचने की भी नौबत आ गयी । लेकिन उस बच्चे में भी गजब की हिम्मत थी । हर छोटे-बड़े काम में हाथ आजमाता रहा । कभी स्कूल के बस्ते बेचे तो कभी बनाए, और तो और ऑटो रिक्शा तक चलाया । किसी भी काम को छोटा नहीं समझा – मेहनत करने में कोई कोताही नहीं की । उम्र के साथ -साथ तजुर्बा भी बढ़ता गया । छोटी – मोटी मशीनों से शुरुआत की, काम धीरे -धीरे बढ़ाना शुरू किया । अब उस नीली छतरी वाले भगवान की भी इस नेकदिल और मेहनती इंसान पर नजर पड़ी और उसके बाद तो सिंह साहब ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा । इनकी नोएडा-सूरजपुर में लंबी – चौड़ी फेक्टरी हैं जिसमें 450 लोगों को रोजगार मिलता है ।अपने भरे -पूरे परिवार के साथ सिंह साहब नोएडा के पॉश इलाके में वैभवशाली कोठी में सुख शांति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । जीवन के भौतिक सुख के साथ -साथ आत्मिक शांति से परिपूर्ण जीवन बिरलों को ही नसीब होता है – सिंह साहब भी उन्हीं में से एक हैं । अब तो आप भी मुझ से सहमत होंगे कि नेक नीयती से की गए निस्वार्थ सेवा कार्य कभी बेकार नहीं जाते । 

और हाँ चलते -चलते – जिस इंसान को हम संदेह और शक की निगाह से देख रहे थे उसकी असलियत जानकार क्या हमें आत्म- निरीक्षण की जरूरत नहीं है ?        

Tuesday, 11 August 2020

कौन है वह ????


मैं आपको कोई डरावनी कहानी नहीं सुना रहा । पर यह सच है कि रात के सन्नाटे में साढ़े तीन बजे अक्सर मेरी नींद उचट जाती है । बाहर सड़क पर किसी गाड़ी के रुकने की आवाज आती है । कुछ ही मिनिट रुकने के बाद उस गाड़ी के इंजिन की धीर-धीरे मंद होती आवाज बताती है कि वह गाड़ी फिर कहीं आगे की ओर चली गई है । उस खामोशी में कुत्तों के लगातार भौंकने की आवाज पूरे वातावरण को और अधिक रहस्यमयी , भूतहा और कुछ हद तक डरावना बना देती है । यह लगभग रोज का ही किस्सा है । उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ । समय वही था जाना – पहचाना रात के साढ़े तीन बजे का । वही बाहर गाड़ी रुकने की आवाज – कुत्तों के भौकने का शोरगुल और मैं अपनी उचटती नींद में दिमाग में उठ रहे कई सवालों की पहेली को सुलझाने की कोशिश में उलझा हुआ – आखिर यह सब माजरा है क्या ? सोचा आज तो हिम्मत जुटा कर इस रहस्य पर से परदा उठाने की कोशिश करनी ही चाहिए । कमरे की बत्ती जलाई ,मेन गेट की चाभी लेकर बाहर निकला । ताला खोला – सामने बड़ा अजीब नजारा था । मेरे घर के बाहर बने रेंप पर कुत्तों का भरा - पूरा जमावड़ा लगा हुआ था । जमावड़ा भी क्या – आप यह भी कह सकते हैं कि उनकी महासभा चल रही थी । इस कुत्ता-महासभा के आयोजन का कारण जल्द ही समझ भी आ गया । घर के बाहर सड़क किनारे कुत्तों के खाने के स्वादिष्ट बिस्किट्स बिखरे पड़े थे । उन्हीं बिस्किट्स की पार्टी का मज़ा लेने के लिए कुत्तों के झुंड में लूट-खसोट मची हुई थी । यहाँ तक तो सब ठीक था पर यह समझ नहीं आया कि आखिर इतने महंगे बिस्किट्स आखिर कहाँ से आ गए – कौन डाल गया ? बाहर सड़क पर ही दूर तक नजर दौड़ाई – अपने सवाल का कुछ हद तक जवाब मिल गया । कुछ ही दूरी पर अंधेरे में सड़क पर खड़ी एक बड़ी सी काले रंग की (एस यू वी ) कार की टेल -लाइट की लाल रोशनी चमक रही थी । उस गाड़ी का शीशा खुला और अंदर से ही ढेर सारे बिस्किट्स की बौछार पास के चबूतरे पर हुई । आसपास के कुत्ते दौड़ कर उस जगह पहुंचे और अपनी पार्टी शुरू कर दी । इतनी देर में वह गाड़ी आगे चल दी और उसकी टेल लाइट की लाल रोशनी को धीरे - धीरे मानों अंधेरे ने निगल लिया । उस गाड़ी में कौन बैठा है मैं नहीं देख पाया । 

अगले दिन इस बारे में मैंने आस-पड़ोस के कई लोगों से बात की – जानकारी चाही । सारी कहानी धीरे-धीरे साफ़ होने लगी । इस बारे में पक्के -तौर पर कोई भी सटीक और विश्वसनीय जानकारी नहीं दे पाया । सबने केवल सुनी-सुनाई बात का ही अलग-अलग तरीकों से बखान किया । उस गाड़ी में कौन होता है – यह किसी ने नहीं देखा । इतना सभी को पता था कि वह गाड़ी पिछले एक वर्ष से लगातार आ रही है । वह गाड़ी कहीं दूर से आती है । रास्ते में जिधर भी कुत्तों की पलटन नजर आती है – उसी जगह पर बिस्किट्स की भरपूर बौछार करती जाती है । सर्दी , गरमी, बरसात – किसी भी मौसम की कोई भी रुकावट उस रहस्यमयी गाड़ी को रोक नहीं सका । 

मैंने उस इंसान को कभी नहीं देखा । लोग उसके बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाते हैं । रात के साढ़े तीन बजे के अजीबोगरीब समय में बिस्किट्स खिलाने के पीछे उसकी मंशा पर सवाल भी खड़े हो रहे हैं । यह दुनिया और पुलिस का दस्तूर है – जब तक सबूत न मिले तब तक हर इंसान संदेह के घेरे में होता है । कुछ लोगों की नज़रों में वह शातिर चोर है तो कुछ उसे आतंकवादी समझ रहे हैं जो किसी बड़ी घटना को अंजाम देने से पहले इलाके के कुत्तों से दोस्ती गांठ रहा है । जहाँ तक मेरा सवाल है – तो मुझे भी लगता है सड़क पर घूमते आवारा, निरीह , भूखे-प्यासे कुत्तों की शानदार – जॉयकेदार पार्टी का रोज़ इंतजाम करने वाला शख्स निश्चित रूप से कोई असामाजिक तत्व ही हो सकता है । जब समाज के अधिकांश तथाकथित दयावान सदस्यों के सेवा-भाव पर निजी स्वार्थ का चश्मा चढ़ा हो तो इन बेसहारा, दर -दर भटकते और पानी की दो बूंदों के लिए भी तरसते मासूम कुत्तों का भला सोचने वाला इंसान उस कठोर समाज का हिस्सा नहीं हो सकता । नेक इंसान को सिरफिरा , पागल और असामाजिक समझने की भूल करना हमारी आदत में शुमार हो चुका है ।

Saturday, 1 August 2020

फटफटिया झूला

सिनेमा के शौकीन पुरानी पीढ़ी के लोगों को शायद याद हो - एक जमाने में राज कपूर साहब की फिल्म आई थी – मेरा नाम जोकर । फिल्म तो खास चली नहीं पर प्रख्यात कवि और गीतकार नीरज जी का एक गाना जरूर चला – 
ऐ भाई ज़रा देखा कर चलो , आगे ही नहीं पीछे भी ,
दाएं ही नहीं बाएं भी , ऊपर ही नहीं नीचे भी ।
नीरज जी तो आज इस दुनिया में नहीं हैं पर उनका यह यादगार गीत अभी भी रेडियो पर कभी - कभार सुनने को मिल जाता है । मैं जब भी इस गीत को सुनता हूँ तो इस गीत के साथ जुड़ी यादें भी ताज़ा हो जाती हैं । यादें उस दौरान की जब मैं अपनी बुलेट फटफटिया को फर्राटे से सड़कों पर दौड़ाते हुए इस गीत को गुनगुनाया करता था । आज का किस्सा उसी बुलेट फटफटिया और इस गीत से जुड़ा है । 

ज़माना वर्ष 1994 के आस-पास का था ।  उन दिनों मेरी पोस्टिंग हिमाचल प्रदेश के पाँवटा साहिब के निकट स्थित राजबन नाम की जगह में सीमेंट फैक्ट्री में थी । मार्केटिंग विभाग में होने के कारण समय -समय पर आस-पास की जगहों पर सरकारी दौरे पर भी जाता रहता था । उम्र का तकाजा और कुछ जवानी का जोश - ऐसे अवसरों पर सार्वजनिक यातायात के साधनों के बजाय अधिकतर अपनी भारी -भरकम बुलेट मोटर साइकिल का ही प्रयोग करता था । दफ्तर का काम भी हो जाता था और फटफटिया पर मस्ती -भरा सैर -सपाटा भी – और वह भी सरकारी खर्चे पर । ऐसे ही किसी मौके पर पास की एक जगह विकास नगर जाने का कार्यक्रम बना जो कि लगभग 20 किलोमीटर दूर थी । हिमाचल प्रदेश का मौसम तो हमेशा ही सुहावना रहता है – उस दिन भी कुछ ऐसा ही था । सुबह का वक्त था ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी और ऐसे ही सुहावने मौसम में फटफटिया धकधक की आवाज करती सरपट दौड़ती चली जा रही थी । अब उसे मेरे अकल का फेर कहिए या कुछ और , मुझे उस आवाज़ में भी मानो : माधुरी दीक्षित की फिल्म का गाना सुनाई देरहा था – “धक-धक करने लगा , ओ मेरा जियरा डरने लगा ।“ पर मुझे डर काहे का जब - सड़क बिल्कुल साफ थी और भीड़-भाड़ का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था । मेरी मंजिल अब नजदीक ही थी । सड़क के दोनों और हरे-भरे खेत और आम के पेड़ों की भरमार थी । आम के पकने का मौसम आ चुका था और पेड़ों पर लगे पके आमों की महक उस दौड़ती मोटर साइकिल पर भी एक अलग ही किस्म का मदहोश करने वाला अनुभव करा रही थी । अचानक एक झटका सा लगा और महसूस हुआ कि सड़क से ऊपर उठ कर मोटर साइकिल ने रनवे पर दौड़ते हुए हवाई जहाज की तरह उड़ान लेनी शुरू कर दी । मेरी मोटर साइकिल सड़क से पंद्रह फीट की ऊंचाई तक पहुँच गई और उसके बाद वापिस उलटी दिशा में आकर सड़क पर ही बहुत धीमे से झटके से उतर भी गई । मेरा संतुलन बिगड़ चुका था और मैं भी मोटर साइकिल के साथ सड़क पर लमलेट हो चुका था । अब तक आसपास के खेतों में काम कर रहे लोग तुरंत मेरी सहायता के लिए आ गए । सहारा देकर मुझे खड़ा किया – भाग्यवश कोई गंभीर चोट मुझे नहीं आई थी । दायें हाथ की कलाई में मामूली सी खरोंच भर लगी जो बाद में पता चला छोटा सा फ्रेकचर था । यह सब इतना पलक झपकते हुआ कि इस कांड को मैं तुरंत समझ नहीं पाया । बाद में जब इधर-उधर नजर दौड़ाई तो सारा मामला साफ़ हुआ । 

दरसल जैसा मैंने पहले बताया जिस सड़क से मैं गुजर रहा था वह यातायात के हिसाब से बिल्कुल साफ थी – मेरे आगे -पीछे आधा किलोमीटर तक तक कोई नहीं था । पर उस सड़क के किनारे लगे पेड़ों पर कुछ लोग चढ़ कर आम तोड़ रहे थे । उन्होंने रस्सी का फंदा बनाया हुआ था जिससे ऊपर की टहनियों पर लगे आम झटका देकर नीचे गिरा रहे थे । वह रस्से का फंदा उनके हाथों से फिसल कर नीचे सड़क तक झूले की तरह लटक आया । अचानक नीचे से गुजर रही मेरी मोटर साइकिल उस झूले की चपेट में आकर बुरी तरह से उलझ गई । झूले के आकार का वह रस्सी का फंदा सीधे मेरी गरदन पर उलझने वाला ही था पर उससे पहले ही मोटर साइकिल के हेंडल पर दोनों ओर लगे मजबूत रियर व्यू मिरर में अटक गया । दौड़ती मोटर साइकिल की रफ्तार ने अचानक पेड़ से लटकते रस्सी के झूले में उलझ कर वहाँ सर्कस का खतरनाक करतब दिखा दिया । बिना सावन के ही मेरी फटफटिया अपने सवार समेत पेंडुलम की तरह हवाई झूले का भरपूर मज़ा ले गई । एक और अचंभे की बात यह कि रस्सी का एक अन्य सिरा मोटर साइकिल के तेजी से घूमते हुए पहिए में उलझ कर उसे हवा में ही पूरी तरह से जाम कर चुका था । इस कारण जब मेरा हवाई घोड़ा वापिस जमीन पर अवतरित हुआ तो बहुत ही शांत भाव से – बिना इसी प्रकार की खतरनाक उछल-कूद मचाए । 
बाद में जब ठंडे दिमाग से सोचा तो महसूस हुआ कि बहुत बड़ी विपत्ति थी जो बगल से निकल गई । शायद कुछ अच्छे कर्मों का और कुछ दोस्तों की शुभकामनाओं और बड़े -बूढ़ों के आशीर्वाद का प्रताप रहा होगा । रस्सी का फंदा उस वक्त मेरी गरदन तोड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार था - पर मेरी किस्मत में आपको यह किस्सा सुनाना बाकी जो था । इस किस्से का सार यही है कि कई बार मुसीबत आपको ऐसे कोने में आकर घेर लेती है जहाँ बिल्कुल उम्मीद नहीं होती । सड़क पर आप जा रहे हैं – मौसम साफ है - आगे कोई नहीं – पीछे कोई नहीं – अब आप सपने में भी नहीं सोच सकते कि आपकी ऐसी-तेसी करने के लिए मुसीबत आसमान के रास्ते उतर आएगी । नीरज जी ने तभी ठीक ही लिखा – ऐ भाई ज़रा देख के चलो – नीचे ही नहीं – ऊपर भी । 
इस किस्से का सबसे दुखद पहलू मेरे लिए यही रहा कि पूज्य पिताश्री का आदेश हुआ – “ तुम्हारी बुलेट फटफटिया मनहूस है । तुम्हारी जान जाते-जाते बची है । इसे घर में मत रखो – तुरंत बेच डालो । दुपहिए से नाता तोड़ो , कार से रिश्ता जोड़ों ।” मैं उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूँ जिनके लिए बुजुर्गों की इच्छा और आदेश सर्वोपरि होता है अतः आज्ञा का पूरा पालन हुआ । जान से प्यारी बुलेट फटफटिया को भारी मन से अपने घर ही नहीं अपनी ज़िंदगी से भी निकाल दिया । अब तो बस कभी -कभार अपने बेटे की बुलेट पर दिखावटी सवार होकर शौकिया फ़ोटो खिंचवा लेता हूँ । इस तरह पिताश्री की इच्छा का सम्मान भी हो जाता है और मेरे दिल के अधूरे अरमान भी कुछ हद तक पूरे हो जाते हैं।