Sunday, 16 February 2020

एक कहानी अधूरी सी : देवेन्द्र कुमार पालीवाल

एक बात बताइएगा - आपने कभी यादों के शीशे पर जमा धूल को हटा कर देखा है ? अगर नहीं, तो एक बार ज़रूर देखिएगा, कभी- कभी भूले-भटके सुनहरी यादों के समंदर में से ऐसे-ऐसे नायाब मोती निकल आएंगे जिनकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । अखबार में पढ़ रहा था कि सरकार ने निर्णय लिया है कि काम नहीं करने वाले नाकारा-निकम्मे कर्मचारियों को वक्त से पहले ज़बरन रिटायर कर घर भेज दिया जाएगा । ठीक भी है – मुफ्त की रोटियाँ तोड़ने वालों को कोई आखिर कब तक बरदास्त करेगा । जिस काम के लिए मोटी – ताजी तनख़्वाह मिलती है उसे तो करना ही पड़ेगा । अब उसे चाहे हँस कर करिए या रोते हुए यह आप पर निर्भर है । मेरा तो ऐसे -ऐसे छटें हुए गुरु घंटाल किस्म के सरकारी मुलाजिमों से भी पाला पड़ा है जो बहुत ही बेशर्मी से खुले आम ढ़ोल  पीटते हुए भरे दफ्तर बीच मुनियादी करते थे कि वेतन तो दफ्तर में कुर्सी पर बैठने के लिए मिलता है । काम करने की फीस तो रिश्वत के रूप में मुट्ठी गरम करके अर्पित करने ही पड़ेगी । मुझे पक्का यकीन है आप में से शायद ही कोई ऐसा खुशनसीब होगा जिसका इस किस्म के लालची – निखट्टुओं से पाला नहीं पड़ा हो । इन कामचोरों की दुनिया के ठीक उलट मुझे आज याद आ रही है अपने एक ऐसे वरिष्ठ अधिकारी श्री देवेन्द्र कुमार पालीवाल की जिनकी काम के प्रति लगन और समर्पण आज भी मुझे प्रेरणा देती है | 



स्व ० देवेन्द्र कुमार पालीवाल 
बात बरसो पुरानी है – वह दौर था आज से लगभग 37 वर्ष पहले यानी 1982-83 के आसपास का । मैं भी उम्र के उस पड़ाव से गुजर रहा था जिसे युवावस्था कहा जाता है । वह उम्र होती भी है खुराफ़ातों और शरारतों से भरी मौज -मस्ती की । मेरा भी वही हाल था । हरियाणा में एक जगह है चरखी-दादरी – वहीं पर सीमेंट फ़ैक्टरी में उन दिनों मेरी पोस्टिंग थी ।
चरखी दादरी की पोस्टिंग के दौरान मैं - मुकेश कौशिक 
दिन में दफ़्तर और शाम को अपनी येजदी फटफटिया पर सैर-सपाटा और मटरगस्ती बस यही अपनी ज़िंदगी थी । घर – परिवार की दुनिया में कदम रखा नहीं था । मुझे सबसे अच्छा वही लगता था जो शाम को चाय-नाश्ता करवा दे । दुनिया भी इसी विश्वास पर चल रही है कि भूखे ब्राह्मण का कोई पेट भर दे इससे बड़ा पुण्य और कुछ नहीं हो सकता । शायद पालीवाल जी का भी यही विश्वास था इसीलिए समय – समय पर उनके घर से खाने-पीने का न्योता मिल जाता था जिसका मैं भी पूरा फायदा उठाता था । पालीवाल जी फैक्टरी में प्रॉडक्शन डिपार्टमेन्ट के प्रमुख थे। बहुत ही मिलनसार , सरल और हँसमुख स्वभाव के थे । शाम के समय बिना किसी संकोच के अपने किसी भी छोटे -बड़े कर्मचारी का हाल-चाल पूछने परिवार सहित उसके घर पहुँच जाते । उनके मन के किसी भी कोने में अपने ऊँचे ओहदे का लेश-मात्र भी कोई घमंड नहीं था । उम्र में काफी छोटा होने के कारण मुझे तो हमेशा बच्चों की तरह ही माना । मुझे अच्छी तरह से याद है यद्यपि मैं अलग मार्केटिंग डिपार्टमेन्ट में काम करता था पर शादी के तुरंत बाद उन्होने मुझे पत्नी सहित अपने घर बहुत ही स्नेह से डिनर पर बुलाया था । फ़ैक्टरी की रामलीला कमेटी के प्रमुख सदस्य थे।
रामलीला कमेटी में पालीवाल जी 
समय -समय पर होने वाले सामाजिक उत्सवों में भी उनकी तरफ़ से पूरा सहयोग रहता। सबसे बड़ी बात – अपने काम में पूरी तरह से कुशल और मेहनती थे । यही कारण था कि फैक्टरी में सख्त से सख्त माने जाने वाले जनरल मेनेजर भी पालीवाल जी को बहुत पसंद करते थे । 

लगे हाथों आपको बताता चलूँ – मेरी नौकरी भारत सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान सीमेंट कॉर्पोरेशन आफ़ इंडिया में थी । उन दिनों कंपनी की 11 फ़ैक्टरी और विशाल मार्केटिंग नेटवर्क पूरे देश में फैला हुआ था । कुछ -कुछ समय के अंतराल पर हम अधिकारी वर्ग के लोगों के बोरिया-बिस्तर समेत ट्रांसफर होते रहते थे । अपने साथियो से मिलना – बिछड़ना एक तरह से ज़िंदगी का रूटीन बन चुका था । कुछ समय के साथ के बाद मेरा ठिकाना भी अलग और पालीवाल जी भी कहीं और चले गए । उन दिनों आज की तरह दूरसंचार के साधन इतने सुलभ नहीं थे अत: संगी -साथियों की खोज-खबर भी बमुश्किल ही मिल पाती थी । साल-दर - साल इसी प्रकार से गुजरते जा रहे थे । समय का मैं भी ठीक से हिसाब नहीं रख पाया । 

काफी समय के बाद मेरा ट्रांसफर दिल्ली स्थित कंपनी के हेडक्वाटर में ही हो गया । वहाँ पहुंचा तो रिसेप्शन डेस्क पर श्रीमती पालीवाल को देख कर दंग रह गया - निस्तेज चेहरा और चेहरे पर फीकी सी मुस्कान । वहाँ पर मौजूद कई लोगों के सामने मैं ज्यादा कुछ पूछने की स्थिति में नहीं था ।बरसों पहले चरखी दादरी में उनके सौम्य चेहरे पर जो चमक, तेज और प्रसन्नता की लालिमा हर दम मौजूद रहती थी वह अब दूर दूर तक नज़र नहीं आ रही थी । 

अपने मन में उठ रहे तरह-तरह के ढेर सारे सवालों को दिल में ही दबाए उस वक्त वहाँ से चला गया । पर बाद में अपने एक पुराने सहयोगी मित्र से इस बारे में पूछा । जो कुछ भी मेरे मित्र ने बताया वह मेरे दिमाग की सारी नसें चीर देने के लिए काफ़ी था । 

जैसा मैंने पहले ही बताया - दरअसल पालीवाल जी अपने काम में बहुत ही माहिर और मेहनती थे । अब ऐसे डाक्टर को जिसके पास हर मर्ज की दवा हो उसे तो हर कोई अपने पास रखना चाहेगा ही । चरखी दादरी से उन्हें मध्यप्रदेश के अकलतारा सीमेंट फ़ैक्टरी में भेजा गया था जहाँ अक्सर कोई न कोई समस्या मुँह उठाए खड़ी रहती थी । अपनी आदत के अनुरूप पालीवाल जी इन सब दिक्कतों से बिना माथे पर कोई शिकन लाए पूरी हिम्मत और ताकत से जूझते और सुलझाते रहते । ऐसा ही एक दिन था 20 जून 1989 का । श्रीमती पालीवाल अकेले ही अपने मायके मुरादाबाद गई हुई थीं । अकलतारा में पालीवाल जी अकेले ही थे क्योंकि उन्हें काम की वजह से लंबी छुट्टी नहीं मिल पायी थी । उनके पास एक फिएट कार हुआ करती थी जिसे उन्होने कुछ दिन पहले मरम्मत के लिए पास के ही एक शहर भिजवाया हुआ था । उस कार की वापिस लाने के लिए पालीवाल जी ने एक दिन की छुट्टी ले ली थी और सुबह – सवेरे ही पास के अकलतारा  स्टेशन पहुँच गए जहाँ से उन्हें ट्रेन पकड़नी थी ।

स्टेशन पर बैठ कर इंतज़ार कर रहे थे – पता चला कि ट्रेन लेट है और आने में अभी समय लगेगा।फ़ैक्टरी और रेलवे स्टेशन पास-पास ही थे । उन्होने सोचा कि स्टेशन पर इतने समय बैठ कर इंतज़ार करने के बजाय एक चक्कर फ़ैक्टरी का ही लगा लिया जाए । छुट्टी पर होने के बावजूद पालीवाल जी पहुँच गए प्लांट का मुआयना करने कि कहीं कोई दिक्कत तो नहीं आ रही । फ़ैक्टरी में सचमुच एक जगह गंभीर समस्या आ रही थी । उन्होने आव देखा ना ताव , पहुँच गए खुद उन मशीनों के बीच । अपने आस-पास मौजूद अन्य इंजीनियरों को वहाँ से हटने का आदेश दिया क्योकि उस छोटी सी जगह में ज्यादा लोगों की उपस्थिती और अधिक खतरा पैदा कर सकती थी । पालीवाल जी ने एक तरह से उन खतरनाक हालात में भी पूरी तरह से बिना डरे मोर्चा संभाला हुआ था । अचानक भयंकर आवाज के साथ मशीनों की लंबी -चौड़ी पाइप में फँसा हुआ 900 डिग्री के तापमान वाला गरम सीमेंट का विशालकाय ढेर ऊपर से नीचे आ गिरा । उस गरम, धधकते सीमेंट के ढेर के नीचे पालीवाल जी और एक अन्य मजदूर दब चुके थे । यह सब इतना अचानक हुआ कि संभलने का मौका तक नहीं मिला । चारों और हाहाकार मच गया । जब तक उन्हें बाहर निकाला गया , बहुत देर हो चुकी थी । कुछ ही देर पहले तक मौजूद उस हंसते - खेलते इंसान का शरीर उस प्रचंड गरम सीमेंट के ढेर में फँस कर इतनी बुरी तरह से झुलस चुका था कि पहचान भी उनकी पहनी घड़ी, बेल्ट और अंगूठी द्वारा ही हो सकी। ।
पालीवाल जी तो ऐसी दुखद और दर्दनाक परिस्थितियों में इस दुनिया को छोड़ कर चले गए पर अपने पीछे छोड़ गए एक सवाल और एक मिसाल । सवाल उन सुस्त , कामचोर और मुफ़्त की तंख्वाह लेने वाले निकम्मे लोगों के लिए – कि भाई हराम की रोटी तुम्हें हजम कैसे हो पाती है ? अगर दुनिया में सभी तुम्हारी तरह हो जाएँ तो समाज का काम कैसे चलेगा ? पालीवाल जी तो जब तक जीवित रहे खुद एक मिसाल रहे मेहनत और काम और कर्तव्य के प्रति संजीदगी बरतने वाले इंसान के रूप में । उनकी ज़िंदगी तो थी ही , अंतिम सांस भी काम के प्रति ज़िम्मेदारी को पूरी संजीदगी से निभाते हुए ईश्वर को समर्पित कर दी । आप ही सोचिए – हम से कितनों में है इस तरह का जज़्बा और हिम्मत । आप में से कुछ यह भी कह सकते हैं कि होनी को कौन टाल सकता है । दुर्घटना थी - हो गई । पर मेरे भाई – आप ज़रा उन हालात पर भी तो गौर फरमाइए जब यह सब हुआ । अच्छे भले छुट्टी पर जा रहे उस इंसान को किस कीड़े ने काट लिया जो वापिस फ़ैक्टरी में जा पहुंचा और लग गया बंद मशीनों की खराबियों को दूर करने में। उसे क्या ज़रूरत थी खुद उस खतरनाक जगह पर काम करने की । खुद बड़ा अफसर था – किसी भी इंजीनियर या सुपरवाइज़र को आगे कर सकता था । पर उसने तो खतरा भाँप कर, मौके पर मौजूद अन्य कर्मचारियों को भी वहाँ से हटा दिया वरना इस हादसे में बहुत सारी ज़िंदगियाँ चली जातीं । इन सब सवालों का एक ही जवाब है – हाँ , उस शक्स को वाकई में एक कीड़े ने काट खाया था जिसकी वजह से उसे अंत में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा । वह कीड़ा था – ज़िम्मेदारी का, फर्ज़ का, ईमानदारी का, नेकनीयत का । आज के चापलूसी और मक्कारी से भरी दफ्तरों की दुनिया में जिन सीधे-सच्चे इन्सानों को यह आदर्शवाद का कीड़ा काट लेता है उन्हें बौड़म -बैल समझा जाता है । काम लेने के मामले में उनका जमकर शोषण होता है । तरक्की के मामले में मक्खन-बाज चापलूस बाज़ी मार ले जाते हैं । बौड़म-बैल रह जाते हैं अपने गैर-जिम्मेदार , उच्च-अधिकारियों की गलतियों पर लीपा-पोती करने और उसका दंड भुगतने के लिए । नौकरशाही का सीधा सा उसूल है – राजा कभी गलती नहीं कर सकता । इसीलिए राजा की गलती तुरंत उसके मातहत के गले में यह कह कर डाल दी जाती है कि अब आगे तुम जानो और तुम्हारा काम । यह सब मैं उस अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ जिसे पालीवाल जी के परिवार ने महसूस किया और एक ज़माने में जिससे मैं खुद भी गुज़रा । यह कहानी अधूरी रह जाएगी बिना यह जाने कि केवल 47 साल की अल्पायु में ही कच्ची गृहस्थी छोड़ कर दुनिया से विदा लेने वाले इस कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के परिवार को बाद मे किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा । इसके लिए इस कहानी की अगली कड़ी का इंतज़ार कीजिए । 

चलते -चलते सिर्फ एक बात आपसे कहनी है : ईमानदारी, नेकनीयती और मेहनत का रास्ता कठिन ज़रूर है पर तमाम दिक्कतों के बावजूद इस पर चलने में भी गरूर है, एक अजब नशा है जिसे दिवंगत देवेन्द्र कुमार पालीवाल जैसे इंसान ही समझ सकते हैं ।

5 comments:

  1. झकझोर दिन वाला वृत्तांत सुबह सुबह पढ़ कर अंदर तक हिल गया!
    सच कहा,ईमानदारी, नेकनियती और मेहनत का रास्ता कठिन जरूर है,मगर इस पर चलने में भी गुरूर है!
    अगली कड़ी का इंतजार है और ये भी देखना है कि ऊपर वाले ने अग्ला सीन क्या लिखा है पालीवाल जी के परिवार के लिए।

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  2. शशि
    बहुत ही मार्मिक कहानी। ईश्वर के निर्णय सर्वोपरि है लेकिन यह मेरी समझ से दूर है की परमात्मा के ऐसे कठोर निर्णय ईमानदार और कर्तव्य निष्ठा भरे लोगो पर अक्सर क्यों होते हैं। वर्तमान में मेरी पत्नी भी RWA mein selfless service karte kue aise hi shano se gujar rahi hain.

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  3. क्या bolu sir शब्द नहीं हैं.... May his soul rest in peace sir.... Bhagwan उनके परिवार को खुश रखे हमेशा.....

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  4. Very nice effort to being out sacrifice of one of our Sr.Officer, Mr.D.K Paliwal,Manager(Production) fortunately recruited during my tenure at Head office of CCI. We heard about sad incident of Akaltara at CO nd felt real loss of a dedicated officer. Your presentation is from heart of a friend and nicely presented. Congratulations for making it public. Waiting for next part.

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  5. 🙏Really an excellent officer at the golden age of CCI. I was in Operations Deptt. from 1978 to 1987 and had chances to meet Mr.Paliwal in person many time.
    कौशिक साहब की गैर जिम्मेदार कर्मचारियों के प्रति की गई टिप्पणी काबिले तारीफ है 👍

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