Tuesday 22 October 2019

राजबन का हनुमान : अनिल शर्मा

अपनी नौकरी के कार्यकाल के दौरान मैंने महसूस किया कि अन्य स्थानों की तुलना में फेक्ट्रियों के टाउनशिप की अलग ही दुनिया होती है | सब लोग मिल-जुल कर साथ रहते हैं | एक दूसरे के हर सुख- दुःख के साथी | सब त्यौहार मिल जुल कर एक साथ मनाते हैं | हालाकि मुझे रिटायर हुए अरसा बीत चुका है पर आज भी हिमाचल प्रदेश के राजबन से दुर्गापूजा और रामलीला का निमंत्रण हर वर्ष आता है | मौक़ा मिलने पर मैं भी शामिल हो जाता हूँ | इस रामलीला की विशेष बात यह है कि इसके सभी कलाकार फ़ैक्टरी के ही  कर्मचारी होते हैं जो दिन भर की ड्यूटी करने के बाद भी पूरी भक्ति, शक्ति और उत्साह के साथ इसमें भाग लेते हैं |अगर मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो यह परम्परा विगत चालीस से भी अधिक वर्षों से अनवरत चलती आ रही है | समय के साथ -साथ पुराने कर्मचारी रिटायर होते गए, नए-नए आते गए और इसके साथ ही रामलीला के कलाकारों की भी नई पीढ़ी अवतरित होती गयी | राम, लक्ष्मण , हनुमान , रावण जैसे सभी पात्रों का नया संस्करण | लेकिन इन सब परिवर्तनों के बावजूद भी रामलीला की मूल आस्था और भक्ति भावना वही बरकरार रही| 
राजबन  की रामलीला : नीचे बैठी तत्कालीन जी॰एम  सुश्री सरस्वती देवी 
इस मौके पर पर मुझे आज की रामलीला के आज के हनुमान और उसकी कहानी बरबस याद हो आयी | अनिल शर्मा नाम है उसका | यादों की डोरी पहुँचती है उसके दिवंगत पिता श्री रामानंद शर्मा तक जो फ़ौज से रिटायरमेंट लेने के बाद, किसी ज़माने में उसी राजबन फ़ैक्टरी में नौकरी करते थे | मुझे वह समय भी याद है जब मेरे मकान के लॉन में लगे पेड़ से अमरूद तोड़ने आये बच्चों की टोली में शामिल नन्हा अनिल भी शामिल रहा करता था | इस अनिल की ज़िंदगी भी बहुत ही उथल-पुथल भरी रही है | आइये आप को भी उसकी ज़िंदगी का छोटा सा फ़िल्मी ट्रेलर दिखा देता हूँ | 

बचपन में अनिल पढ़ाई में ठीक- ठाक ही रहा | स्कूल भी अच्छा था लेकिन नौवीं क्लास तक आते-आते जैसे शरारतों के झूले की पींग ऊँची उठती गई, पढ़ाई की बैटरी डाउन होती गई | अंगरेजी स्कूल से हिन्दी मीडियम के सरकारी विद्यालय में पधारना पड़ा पर कुछ समय बाद उसे लगा पढ़ाई बस की बात नहीं | पिता भी तब तक नौकरी से रिटायर हो चुके थे| उन्होंने उम्मीदें तो बहुत पाली हुई थी अनिल से, मगर मन मसोस कर रह जाते | आखिर कर भी क्या सकते थे | इसी बीच दुर्भाग्य ने उस हँसते -खेलते परिवार पर जैसे कोई बम छोड़ दिया | पिता को बीमारी ने जकड़ लिया और बीमारी भी कोई छोटी-मोटी नहीं – वह थी साक्षात मौत का दूसरा नाम – कैंसर | पूरा परिवार मानों एक तरह से हिल गया | इलाज के खर्चों से घर की आर्थिक व्यवस्था चरमराने लगी | दिन में तारे दिखना किसे कहते है ज़िंदगी में पहली बार अनिल ने यह भी जान लिया था |
अधूरी पढ़ाई के साथ नौकरी की तलाश में पता नहीं कहाँ -कहाँ धक्के खाने पड़े | दिल में पहली बार यह ख्याल भी आया कि काश अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाया होता तो शायद आज यह वक्त नहीं देखना पड़ता | उधर पिता की तबीयत दिन पर दिन खराब होती जा रही थी | आखिरकार उसी सीमेंट फ़ैक्टरी में  जहाँ पर उसके फ़ौजी पिता अच्छी-ख़ासी नौकरी करते थे वहीं पर ठेके के मजदूरों में भर्ती होकर काम करना पड़ा | पिता की इच्छा थी जीते जी अपनी आँखों के सामने ही अनिल का घर बसते देखने की सो विवाह भी जल्द ही कर दिया | कुछ समय बाद ही दबे कदमों से आती मौत ने भी पिता को अपने बेरहम शिकंजे में ले ही लिया | इधर पिता की मौत का सदमा और उधर पिता की फौज से मिलने वाली पेंशन भी बंद | सिर पर भरे -पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई जिसमें थे माँ, बहन , भाई, पत्नी और बेटा | खुद की कमाई इतनी कम जैसे ऊंट के मुंह में जीरा | अनिल आज भी उस वक्त को याद करते हुए कहते हैं वह शायद मेरे ज़िंदगी के सबसे बुरे दिन थे | खाने तक के लाले पड़ गए थे | दस रुपये का मेगी का पेकट लाते थे – मेगी परिवार के अन्य सदस्यों को खिला कर उसके बचे हुए पानी में ही रोटी डूबा कर खा लेते | कई बार तो रोटी भी  खेत से तोड़कर लायी प्याज में नमक -मिर्च डाल कर खाने की नौबत रहती 
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हर बुरे वक्त का कभी तो अंत होता है | अनिल के बुरे वक्त ने भी विदाई लेनी शुरू कर दी – बेशक धीरे-धीरे ही सही | खेत की ज़मीन पर मोबाइल टावर लगा तो किराये की आमदनी से कुछ सहारा लगना शुरू हुआ | दिवंगत पिता की पेंशन का मामला सुलझा और माँ को पेंशन मिलनी शुरू हुई | किसी ने सच ही कहा है – अच्छे वक्त में भाग्य और बुद्धि भी साथ देती है | अनिल ने अपनी अधूरी पढ़ाई की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया |पत्राचार के माध्यम से पहले मेट्रिक पास किया और उसके बाद बारहवीं | किस्मत का खेल देखिए – फ़ैक्टरी की सरकारी नौकरी के लिए आवेदन मांगे गए और फार्म भरने की अंतिम तिथि पर ही बारहवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ | भागते-दौड़ते आवेदन पत्र भरा | प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार के कड़े मापदण्डों पर खरा उतरने पर आखिरकार सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया  में मिलर की नियमित पक्की नौकरी मिल पायी| सीमेंट उद्योग में मिलर का पद अत्यंत तकनीकी और महत्वपूर्ण होता है | बस वह दिन है और आज का दिन , अनिल ने कभी वापिस पीछे मुड़ कर नहीं देखा | जीवन में जो चाहा मिल गया – अच्छी नौकरी, मोटी तनख़्वाह, भली से पत्नी और दो भोले-भाले प्यारे से बच्चे |
अनिल शर्मा :: मिलर के रूप में 

आज का सुखी परिवार : पत्नी और बच्चों के साथ 
अनिल का मानना है की इस सारी सफलता में उसके परिवार का पूरा सहयोग है विशेषकर पत्नी का | पत्नी स्वयं स्नातक हैं जिसका अनिल की अधूरी पढ़ाई को पूरा करवाने में उल्लेखनीय योगदान है | इन सबसे ऊपर वह विशेष कारण जिसकी वजह से भाग्य भी मेहरबान रहा – वह है ईश्वर पर अटूट आस्था | अनिल हनुमान भक्त है और राजबन सीमेंट फेक्टरी  की रामलीला में विगत बारह वर्षों से हनुमान का पार्ट सफलता पूर्वक अदा कर रहा है | हनुमान की भूमिका निभाने के दौरान अनिल को अपने शरीर में अद्भुत शक्ति का संचार महसूस होता है | एक हाथ से ही रसोई गैस का भरा हुआ सिलेन्डर अपने कंधे पर रखने की ताकत आ जाती है जो सामान्य दिनों में संभव नहीं होती |  वह रामलीला का एक मँजा हुआ कलाकार है और आवश्यकता पड़ने पर जोकर से लेकर मंथरा और राजा जनक से लेकर रावण सेना के गण  तक का रोल बखूबी निभा लेता है | रामलीला के एक से बढ़ कर एक मज़ेदार किस्से-कहानियों का भंडार है अनिल के पास- पर उन सब के लिए एक अलग से ही ब्लाग कभी लिखना पड़ेगा |
अनिल - हनुमान रूप में 
सिगरेट शराब जैसे व्यसनों से दूर अनिल की  भविष्य के प्रति सुनहरी योजनाएँ हैं | सबसे पहले अपने आपको ग्रेजुएट होते हुए देखने का इरादा  | एक बड़ी सी गाड़ी खरीद कर परिवार को सैर -सपाटा करने का सपना | मुझे विश्वास है राम जी इस रामलीला के साक्षात हनुमान की मनोकामना अवश्य पूरा करेंगे |
यह थी रामलीला के हनुमान अनिल  के उथल - पुथल भरे जीवन  की एक छोटी सी बानगी जो हमें याद दिलाती है एक बहुत ही पुराने गीत की :

गर्दिश में हो तारे, ना घबराने प्यारे ,
गर तू हिम्मत ना हारे तो होंगे वारे-न्यारे |

Sunday 13 October 2019

घर में सावन

इस संसार में कोई भी पूरी तरह से स्वाबलंबी नहीं है | हर किसी को किसी न किसी पर कुछ हद तक निर्भर तो रहना ही पड़ता है | एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि बेशक आप कितने ही आला दर्जे के फन्ने खां क्यों न हों, कहीं तो आपको सज़दा करना ही पड़ेगा | अब किसी से अपना काम निकलवाना भी अपने आप में एक हुनर है जो हर किसी के बूते की बात नहीं | कुछ लोग इस कला में माहिर होते हैं तो कुछ फिस्सडी | पुराने से भी बहुत पुराने ज़माने में एक अत्यंत विद्वान व्यक्ति थे जिनका दिमाग चाचा चौधरी से भी तेज़ चलता था | उनके नाम से आप सभी भली- भांति परिचित होंगे – चाणक्य | वह भी लुकमान हकीम की तरह हर मर्ज़ की दवा बता गए थे – अब यह बात अलग है कि उनके बताये इलाज़ शारीरिक कष्टों से सम्बंधित न होकर, दुनियादारी, राजनीति और कूटनीति से ताल्लुक रखते हैं | हज़ारों वर्ष बीत जाने के बाद आज भी चाणक्य नीति के विचार आपको व्हाट्सेप के सुविचारों की दुनिया में उड़ान भरते नजर आ जायेंगे | किसी से भी काम निकलवाने के लिए चाणक्य नीति का एक बहुत ही कारगर और दमदार नुस्खा है – “ साम- दाम- दंड- भेद” | साम : समझा कर , दाम : लालच दे कर , दंड : धमका कर, भेद : कुटिल, तिकड़मबाजी और घाघ तरीके अपना कर ( जैसे ब्लेकमेलिंग ) | अब आप कहेंगे मैं यह सब आपको क्यों बता रहा हूँ | कारण केवल इतना है कि आज तक एक मजेदार घटना और चाणक्य नीति के बीच ताल-मेल नहीं बैठा पा रहा हूँ | 
यह किस्सा भी बहुत पुराना है और उस किस्से को मुझे सुनाने वाले मेरे ख़ास मित्र भी उतने ही पुराने हैं | उनका नाम भी बता ही देता हूँ - श्री रविन्द्र  निगम | देश -विदेश में सीमेंट उद्योग के तकनीकी क्षेत्र में एक तरह से भीष्म पितामह का रुतबा हासिल कर चुके हैं | विदेशों में भी अपने कार्य-कौशल के झंडे गाढ़ चुके हैं | इतिहास के पुराने पन्नों से निकाला यह किस्सा भी आज से तकरीबन तीस साल पुराना तो होगा ही | निगम साहब उन दिनों भारतीय सीमेंट निगम के हरियाणा में स्थित चरखी दादरी प्लांट में तैनात थे | लगे हाथ यह भी बताता चलूँ कि हमारे निगम साहब और सीमेंट निगम में कहीं से भी दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी नहीं है ठीक उसी तरह से जैसे प्राचीन गणितज्ञ -वैज्ञानिक आर्य भट्ट और आज की आलिया भट्ट में | चरखी दादरी जो आज के समय में अपने आप में एक जिला बन चुका है, रोहतक और भिवानी के साथ भौगोलिक रूप से सटा हुआ है | देश के सबसे पुराने सीमेंट कारखानों में से एक वहीं पर था| इसे उद्योगपति डालमिया ने वर्ष 1940 के दौरान बनवाया था | ज़ाहिर सी बात है , समय के साथ-साथ कारखाना पुराना और बीमार पड़ता चला गया और वर्ष 1980 के आते -आते एक तरह से दम ही तोड़ दिया | अब उस फेक्ट्री के बंद होने से सैकड़ों कर्मचारी बेरोजगार हो गए | तत्कालीन सरकार पर जब तरह-तरह के राजनैतिक दबाव पड़ने लगे तब उस बंद पुराने बीमार कारखाने को केंद्र सरकार के आधीन सीमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (सी.सी.आई ) के सुपर्द कर दिया गया | एक पुरानी कहावत है – मरी गैय्या , बामन के नाम | बस कुछ उसी तर्ज़ पर उस फटे - पुराने ढ़ोल को सी.सी.आई के गले में लटका दिया गया कि बेटा बजाते रहो अगर बजा सकते हो तो | सी.सी.आई ने अपने जिन अनुभवी और प्रतिभाशाली अधिकारियों की टीम को उस मरियल बैल को हांकने की जिम्मेदारी सौपीं थी , हमारे निगम साहब भी उन्हीं में से एक थे | 
उन दिनों के निगम साहब ( बाएं) के साथ मैं  मुकेश कौशिक 
अब जैसा कि आपको बता चुका हूँ वह सीमेंट प्लांट जितनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था , वहां की रिहायशी कॉलोनी के मकानों की हालत भी उसी तरह की थी | वहां पर सिविल डिपार्टमेंट के प्रमुख थे श्री एच.सी.मित्तल | 
स्व० श्री एच.सी. मित्तल 
आज वह इस दुनिया में नहीं हैं – ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे | निहायत ही शरीफ़ और दीनो-दुनिया से दूर , अपने काम से काम रखने वाले | अब उन पुराने मकानों की मरम्मत करवाने से संबंधित तरह- तरह की शिकायतों का ढेर किसी पहाड़ से कम नहीं था | अब हालत यह कि इधर सीमेंट प्लांट की दिक्कतें और दूसरी ओर टाउनशिप के मकानों की टूट -फूट का रोज का रोना-पीटना और मित्तल साहब का दफ्तर में बैठना मुश्किल, सड़क पर चलना उससे भी ज्यादा मुश्किल | अपनी तरफ से जितना बन पड़ता करते पर कुल मिला कर मामला वही – एक अनार और सौ बीमार | 
ऐसी ही एक समस्या निगम साहब के घर में भी खड़ी हो गयी जब उनके फ्लेट में छत से ऊपर की मंजिल पर बने मकान का पानी टपक-टपक कर गिरना शुरू हो गया | निगम साहब ने भी अपनी फ़रियाद मित्तल साहब के डिपार्टमेंट में करवा दी| कुछ दिनों बाद एक-आध बार मित्तल साहब को याद भी दिलवा दिया | दिन बीतते गए और निगम साहब के फ्लेट में बेमौसम का सदाबहार सावन बदस्तूर जारी रहा | थक हार कर निगम साहब भी अपने दिल को तस्सली देकर चुप बैठ गए कि चेरापूंजी में भी तो लोग रहते ही हैं | समय एक सा नहीं रहता, आखिर एक दिन वक्त ने करवट ली और सड़क पर निगम साहब और सिविल डिपार्टमेंट के प्रमुख मित्तल साहब का आमना -सामना हो गया | मित्तल साहब खुद ही पूछ बैठे – आपके घर की जो प्रोब्लम थी वह ठीक हो गयी क्या ? निगम साहब थोड़ा सा मुस्कराए फिर बोले – “सर अभी तक तो नहीं | हाँ इतना जरूर है कि मैंने उस टपकती आलमारी के ठीक नीचे अपने पूजा घर के सभी देवी-देवता बिठा दिए हैं यह कह कर कि भगवन मैं तो अब मजबूर हूँ | जब तक मित्तल साहब की दया- दृष्टि नहीं होती तब तक इसी प्रकार से स्नान करते रहिए |हम से तो हो नहीं पाया, आप काम करवा सकते हैं तो करवा लीजिए |” सुनकर मित्तल साहब कुछ नहीं बोले , सिर्फ मुस्करा कर चल दिए और निगम साहब भी अपने काम काज में व्यस्त हो गए | 
अगले दिन जब रोज की तरह फेक्ट्री के लंच टाइम में निगम साहब अपने फ्लेट पर पहुंचे तो वहां का नज़ारा देख कर हक्के-बक्के रह गए | सुपरवाइज़र के साथ करीब दस -बारह मजदूर हल्ला बोल चुके थे | सभी उस टपकती छत के इलाज़ में मुस्तैदी से व्यस्त थे | उनके सुपरवाइजर ने बताया कि मित्तल साहब का आदेश है जब तक निगम साहब की ( या यूँ कह लीजिए देवी-देवताओं की ) शिकायत दूर नहीं होती है, वापिस मत लौटना | और इस प्रकार से निगम साहब के यहाँ से सदाबहार सावन की विदाई हुई | 
मैं आज तक यह नहीं समझ पाया हूँ कि इस सारे प्रकरण में “साम-दाम-दंड-भेद “ की चाणक्य नीति, या मित्तल साहब की शराफत या भक्ति-भाव  के कौन से फार्मूले ने काम कर दिया | अगर आप बता सकते हैं तो मुझे ज़रूर बताइयेगा |