Tuesday 13 August 2019

पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा

मैं एक संभ्रांत परिवार को बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ | पति-पत्नी दोनों बहुत ही मधुर स्वभाव के नौकरी पेशा इंजीनियर हैं, एक छोटी सी लगभग साढ़े तीन वर्ष की उम्र की बड़ी ही प्यारी सी बिटिया भी है- नव्या, जो बहुत ही कुशाग्र बुद्धि है |
छोटी सी नव्या : पढ़ाई का पहाड़ 



अपनी तोतली सी जुबान में ही पूरा राष्ट्रगान, गायत्री मन्त्र और संस्कृत के श्लोक भी सुना देती है | मुझे प्यार से नानू  कहती है और अक्सर टी.वी. पर कार्टून फिल्म्स देखने के लिए मेरे पास आ जाती है | माता और पिता के नौकरी पर जाने के कारण नन्हीं नव्या के लिए प्ले स्कूल में जाने की मजबूरी रहती है | सुबह-सुबह ही उस छोटी सी परी को ले जाने के लिए स्कूल- वेन हाज़िर हो जाती है |स्कूल टाइम के बाद छोटे बच्चों के शिशु पालन गृह (क्रेच) में रहती है | माता –पिता के नौकरी से वापिस लौटने पर ही शाम को नव्या वापिस घर आ पाती है | घर आने के बाद उसे अपना स्कूल से मिला होम वर्क (जी हाँ आपने ठीक सुना ) भी करना पड़ता है जिसे करने की जिम्मेदारी ऑफ़िस से थके-हारे लौटे मम्मी –पापा की | अब जिसे देखिए वही परेशान – नन्ही नव्या परेशान, थके-हारी मम्मी परेशान, पापा परेशान और बाद में उस होम वर्क को अपनी उम्मीद के अनुसार नहीं पाकर स्कूल की टीचर परेशान | कुल मिलाकर खेलने कूदने की उम्र में ही नव्या की छोटी सी दुनिया परेशानियों से भरी हुई है जिससे छुटकारा पाने के लिए वह कुछ समय के लिए टी.वी. कार्टून की काल्पनिक दुनिया का सहारा लेती है | यहाँ उसे खेलने और दिल बहलाने के लिए नटखट चम्पू भी मिल जाता है | जब शुरू –शुरू में वह हमारे यहाँ आती थी तब उसके व्यक्तित्व में तनाव, गुस्सा और जिद साफ़ तौर पर महसूस किया जा सकता था पर धीरे- धीरे घर के तनाव मुक्त, हंसते - खेलते वातावरण में समय गुजारने के बाद अब लगता है एक नयी नव्या आपके सामने है |
यह किसी एक नव्या की कहानी नहीं है | आपको ऐसे बहुत सारे परिवार मिल जायेंगे जो उस प्रकार की समस्या से जूझ रहे हैं | इसमें दोष किसी का भी नहीं है | बदलते सामजिक मूल्य, बिखरते संयुक्त परिवार, असुरक्षित होती नौकरियाँ, ऊँचे जीवन स्तर की इच्छाएं और दूसरों को टंगड़ी मारकर आगे बढ़ने की अंधी दौड़ - इन सबने मिलकर इस जीवन को अजीब तरह की आपाधापी से भर दिया है | हर व्यक्ति मजबूर हो गया है इस आपाधापी से भरे जीवन को जीने के लिए जिसकी शुरुआत नन्ही नव्या की उम्र से शुरू होकर उस उम्र तक लगातार जारी रहती है जिसे मैं नौकरी से रिटायर होने के बाद भी व्यतीत कर रहा हूँ | 
इस बारे में सोचा तो अक्सर करता था पर लिखने का विचार आया अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी सुश्री अर्चना उपाध्याय के सुझाव पर| अर्चना जी एमिटी इंटरनेशनल स्कूल, मयूर विहार, दिल्ली में इंगलिश की वरिष्ठ प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हैं| एक संवेदनशील शिक्षाविद होने के नाते बाल-मनोविज्ञान पर इनकी गहरी पकड़ है |अपने देश और विदेशों में भी अध्यापन के अनुभव के आधार पर इनकी सोच है कि अधिकाँश अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य के प्रति कुछ ज्यादा ही चिंतित हैं | वैसे इसमें कुछ गलत भी नहीं है | पर जब यह चिंता बढ़कर चिता का रूप ले लेती है तो उस चिता में वह सब भी स्वाहा हो जाता है जिसकी किसीने कल्पना भी नहीं की होती है | सभी माँ –बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे ज़िंदगी में उनसे भी आगे जाएँ | जिस मुकाम पर खुद नहीं पहुँच पाए उस मंजिल को हासिल कर उनका अधूरा सपना पूरा करें | अपनी इस चाहत को पूरा करने के लिए किस प्रकार का रास्ता या तरीका अपनाया जाता है यही सबसे महत्वपूर्ण है | 

अगर आप को याद हो – वर्ष 2007 में एक फिल्म आयी थी – तारे जमीं पर | इसी प्रकार के हालातों पर बनी बाल मनोविज्ञान पर आधारित फिल्म थी, कभी मौक़ा मिले तो जरुर देखिएगा | ज्यादातर अभिभावक सोचते हैं कि क्योंकि वे उम्र में, अनुभव में बड़े हैं इसलिए जो भी वे सोचते हैं बस वही सही है | उन्हें लगता है कि बच्चों के सामने दबाव की रणनीति ज्यादा कारगर साबित होती है | उन्हें बस अपना ज़माना और अपने ज़माने के घर पर सख्त पिता जी और स्कूल में मास्टर जी की ही याद रहती है | बच्चे के सामने हर समय केवल एक ही मन्त्र का जाप होता है – पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो | अडोस-पड़ोस के दूसरे तेज़ दिमाग बच्चों से तुलना भी होती रहती है | इस सबका नतीजा यह होता है कि बच्चे में धीरे-धीरे हीन भावना उपजने लगती है | उसे लगता है कि वह शायद दुनिया का सबसे नालायक बच्चा है | आत्मविश्वास की कमी होती चली जाती है |बात घर तक ही सीमित रहे तब भी गनीमत है, स्कूल में भी उसी प्रकार का वातावरण मिलता है | अपनी ब्रांड इमेज बनाने के चक्कर में स्कूल को अपने रिजल्ट की चिंता होती है जिसके सहारे अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर अपनी दुकानदारी और बढ़ा सकें | अब सभी बच्चे अच्छे नंबरों ( मतलब नब्बे प्रतिशत और उससे अधिक ) से पास हों इसकी सारी जिम्मेदारी अब मास्टर जी के सिर पर और इस सब चूहा दौड़ के अंत में मास्टर जी का डंडा बजता है शिष्य के सिर पर आकर | अब इस वातावरण में बच्चे को कहीं भी चैन नहीं - न तो घर में और ना ही स्कूल में | सारे साल तो यही मारा- मारी रहती है, हमें होश आता है वर्ष के अंत में जब परीक्षा सिर पर आ खड़ी होती हैं | उस समय बाकायदा  रेडिओ, टी.वी. , अखबारों और चौबीस घंटे खुली रहने वाली हेल्पलाइनों के माध्यम से अभियान शुरू होजाता है बच्चों को उपदेश देने का, परीक्षा के भूत से तनाव मुक्त करने का | बच्चों के समझाने के लिए मंत्री से संतरी तक सब में मानो हौड़ लग जाती है कि इम्तहान से डरो मत | मैं पूछता हूँ कि भाई सारे साल आप सब लोग सो रहे थे क्या ? पूरे वर्ष बच्चे तो घर से लेकर बाहर तक सभी मिलकर पढ़ाई और इम्तहानों का हौवा दिखाते रहे और अब चले हैं मरहम लगाने | कभी सोचा इस बारे में कि यह अंत समय में लगाया जाने वाला बातों का मरहम उस बच्चे पर किस हद तक काम करेगा | अगर इन हवाई उपायों से कुछ असर होना ही होता तो आपको अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ने को नहीं मिलती कि फेल होने पर अमुक बच्चे ने आत्मह्त्या कर ली या घर से भाग गया | तनाव की दुनिया से छुटकारा पाने के लिए कुछ बच्चे अपने आप को ड्रग्स, शराबखोरी और नशे और अपराध की दुनिया में भी धकेल लेते हैं | अब स्कूल तो ऐसे मामलों में बच्चे का नाम काट कर छुटकारा पा लेते हैं, रह जाते हैं मां-बाप जिनके पास सिवाय अपना सिर धुनने के और कोई चारा नहीं |
अब आप पूछेंगे इस समस्या का हल क्या है ? तो मेरे भाई ! मेरा मानना है कि कुछ बीमारियाँ ऐसी होती हैं जिनका सर्वश्रेष्ठ इलाज़ यही है कि उन्हें पनपने ही मत दो अर्थात बचाव ही निदान है| पढाई का हौवा और इम्तहान का डर भी कुछ ऐसी ही बीमारी है जो अगर एक बारगी शरीर में घर कर जाए फिर उसका इलाज तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं है | यह काम यूँ तो स्कूल और बच्चे के माता-पिता दोनों का ही है, पर बच्चा क्योकि आपका है अत: पहली जिम्मेदारी आपकी ही बनती है | स्कूल में बच्चा पांच घंटे के लिए जाता है , बाकी के उन्नीस घंटे आपके ही तो साथ है | स्कूल तो दूसरे अच्छे विद्यार्थियों का चुनाव कर लेगा आप तो नहीं कर सकते | आपका सम्बन्ध तो बच्चे के साथ जीवनभर के लिए है |इसलिए बच्चे के व्यक्तित्व का समग्र और सम्पूर्ण विकास हो इसके लिए आपको अपनी खुद की आँखें खुली रखनी पड़ेंगी, पूरी तरह से स्कूल के भरोसे मत रहें | 
और सबसे अंत में , आपको इस बारे में करना क्या है ? इस इतनी बड़ी समस्या का बड़ा ही सरल और छोटा सा उपाय है | हिटलरी माँ –बाप मत बनें , दोस्त बन कर रहें | नियंत्रण बस उतना ही जो सहज हो, सामान्य हो | खुद तनाव रहित रहिए और बच्चे की समस्या को खुशनुमा वातावरण में हल करने का प्रयत्न करें | दोस्त बन कर ही आप बच्चे का विश्वास जीत सकते हैं | उस पर विश्वास करें, वह आपको गलत नहीं साबित होने देगा | सबसे बड़ी बात : पांचो उंगलियाँ बराबर नहीं होती हैं, इसी तरह हर बच्चा भी रेंक होल्डर , जीनियस, भावी डाक्टर या साइंटिस्ट नहीं होता | अपने बच्चे की असल क्षमता पहचानिए और उस भगवान की दी हुई प्रतिभा में फेरबदल करने के लिए अपनी टांग तो हरगिज़-हरगिज़ मत अड़ाईये | कलाकार को डाक्टर बनाने की जुर्रत गलती से भी मत कर बैठिएगा| यकीन मानिए , मेरी सलाह पर अमल करेंगे तो सभी सुखी रहेंगें - आप भी, बच्चा भी और उसका आने वाला भविष्य भी |

2 comments:

  1. Very well penned.
    Ironically we all know this and often feel very strongly against it but then express our inability to do anything.

    ReplyDelete
  2. पुरुषोत्तम कुमार15 August 2019 at 00:03

    घर घर की समस्या और समाधान। सुझाव सही लगता है लेकिन पहल कौन करे? नई पगडंडी पर चलने के लिए हिम्मत चाहिए।

    ReplyDelete