स्व० श्री रमेश कौशिक |
वर्ष 2018 बीत गया और अब जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, नए साल के नए माह ने हमारे आप के जीवन मे अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया है |ऐसे समय में जब ज्यादातर लोग नए साल की ओर बड़ी आशा से देख रहें हैं, भविष्य के लिए नई-नई योजनाएं बना रहें हैं, आदर्शवाद से भरपूर तरह-तरह के संकल्प ले रहे हैं, एक मैं हूँ जो बीते हुए समय को पीछे मुड़कर ध्यान से देख रहा हूँ | याद कर रहा हूँ उन सभी की मीठी यादों को जो कभी साथ थे पर आज नहीं | वक्त के थपेड़ों ने जिन्हें दूर, बहुत दूर कर दिया, इतना दूर जहां से कोई वापिस नहीं आता | बहुत सारे हैं ऐसे बिछड़ने वाले पर कुछ ऐसे होते हैं, सच में जो सबसे ख़ास होते हैं | और ख़ास भी कोई यूं ही नहीं बन जाता, उस ख़ास में बात भी कुछ ख़ास होनी चाहिए यानी ऐसी बात जो हो सबसे अलग | यह वह ख़ासियत ही है जो सब की भीड़ में उस शख्स को सबसे अलग खड़ा करती है और साल दर साल गुजरने के बाद भी उसकी यादों की भीनी-भीनी महक से आपको हर दम महकाए रखती है | कुछ ऐसे ही शानदार, दमदार और प्रभावशाली और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के मालिक थे मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक, काव्य-जगत के जाने-माने स्तम्भ | कविता के प्रति उनका रुझान बचपन से ही रहा जिसका श्रेय वे अपने पिताश्री (मेरे दादा ) लावनी कलाकांत पंडित हरिवंश लाल जी को देते थे जिन्होंने 9-10 वर्ष की उम्र से ही कविता का अभ्यास कराना आरम्भ कर दिया था | उस अवस्था में लिखे एक दोहे का उल्लेख उन्होंने कविता संग्रह ‘कहाँ हैं वे शब्द’ के आत्मकथ्य में किया है :
सत के कारण हरिश्चंद्र ने, झेले कष्ट अपार|
राज पाट, नारी सुत तजके, करे श्वपच घर कार ||
विगत में भी उनकी लिखी कविताओं से समय-समय पर आपको परिचित करवाता ही रहा हूँ | उनसे जुड़ेअनगिनत प्रेरणादायक संस्मरण आज भी मेरे मनो-मस्तिष्क में इस तरह ताज़ा हैं जैसे कल की ही बात हो|
यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि मेरे पिता ने पार्किनसंस जैसे गंभीर रोग की विभीषिका को लगभग बारह वर्ष के लम्बे समय तक झेला पर अंत समय तक हार नहीं मानी | इस दौरान भी वह शरीर की दिनों-दिन क्षीण होती जा रही शक्ति के बावजूद अपने काव्य-लेखन पर उसी उत्साह से लगे रहे | एक के बाद एक कविता संग्रह आते रहे और जिन्दादिली और मनोबल की हालत यह कि अस्पताल में भर्ती होने पर भी डाक्टरों को भी अपनी कविताएँ सुना दिया करते जिसमें एक मुझे आज भी याद है :
सब के सब बीमार
मरीज तो मरीज
डाक्टर भी
इसलिए मदद कर नहीं सकते
एक-दूसरे की
लाचार |
सब-के-सब बीमार
कोई आँख से
कोई कान से
कोई तन से
कोई मन से |
दुनिया एक बहुत बड़ा अस्पताल
किन्तु कोई नहीं तीमारदार
सब-के-सब बीमार|
अभी पिछले दिनों उनका कविता संग्रह - प्रश्न हैं उत्तर नहीं की कविता मृत्यु पढ़ रहा था| यह संग्रह वर्ष 2006 में प्रकाशित हुआ था | कविता इस प्रकार से है :
मृत्यु
ओ श्यामा सुन्दरी
मुझे यह तो पता है
कि एक दिन तुम
मेरे पास निश्चय ही आओगी
और अपने साथ चुपके-से ले जाओगी |
किन्तु यह नहीं बताया कभी
कि तुम कब आओगी
कहाँ से आओगी
और कहाँ ले जाओगी |
कोई अतिथि यदि बिना बताए
आ जाए अचानक
तो स्वागत में कमीं बने रहने का
अंदेशा रहता है
अगर तुम्हारे साथ हो गया कुछ ऐसा ही
तो मुझको यह अच्छा नहीं लगेगा |
अत: अभी बता दो मुझको
कब आओगी
ताकि तुम्हारे स्वागत की
तैयारी कर लूँ |
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वर्ष 2009 का उत्तर्राद्ध आते-आते रोग ने अपनी पकड़ और मजबूती से कर ली | शरीर और अधिक क्षीण हो चला | खाना-पीना भी सब नाक में डाली गयी ट्यूब के रास्ते | पूरी तरह से रोग-शैय्या पर | अधिकाँश समय नीम-बेहोशी की अवस्था में सोते हुए ही गुजरता | आवाज काफी हद तक अस्पष्ट हो चुकी थी | ऐसी ही अवस्था में फिर भी एक दिन बहुत ही हिम्मत करके कागज़ कलम लेकर स्वयं ही कुछ लिखना चाहा | आधी-अधूरी, टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं और शब्दों के द्वारा कुछ लिखने का भरसक प्रयास कर रहे थे | बहुत कोशिश करने पर भी बात नहीं बन पायी | अंत में मेरी मां ने कुर्सी-मेज पर बैठ कागज़-कलम संभाला और पत्नी हेमलता ने सिराहने बैठ उनके फुसफुसाते स्वर के अस्फुट शब्दों को कान लगाकर सुनने का भरसक प्रयास किया | अब पत्नी उन शब्दों को सुन और समझ कर बोल रहीं थी जिन्हें मेरी मां तुरंत लिखती जा रही थी | इस सारी बौद्धिक कवायत में जैसे-तैसे वह कविता पूरी हुई | माँ की तमाम नाखुशी के बावजूद भी पिता ने यह कहते हुए कि यह उनकी आखिरी कविता है, रचना का शीर्षक दिया अंतिम कविता | उस बालक की, जिसने आठ साल की उम्र से ही कविता को जीवन भर के लिए अत्यंत प्रगाढ़ रूप से आत्मसात कर लिया था, 79 वर्ष की आयु में गहन रोग शैया पर लेटे, नितांत कष्ट में लिखी यह रचना सच में जीवन की अंतिम कविता ही साबित हुई | मात्र पंद्रह दिन के अंतराल पर एक रात उन्होंने इशारे से माँ को पास बुलाया और उनकी बांह पर अपनी कांपती उंगली से कुछ लिखा | पूरी तरह से न समझ पाने पर माँ ने मेरी पत्नी को पास बुलाया| इस बार पिता ने फिर वही दोहराया जिसे पत्नी समझ गयी | उन्होंने लिखा था : अब मैं मृत्यु चाहता हूँ|
शायद मृत्यु-देव उस समय कहीं आस-पास ही विचरण कर रहे थे जिन्होंने इच्छा जानकार तुरंत कह भी दिया होगा तथास्तु | अगले ही दिन 27 सितम्बर 2009 की सुबह उनके जीवन की अंतिम सुबह थी |
जीवन काल की वह अंतिम कविता इस प्रकार से है :
अंतिम कविता
वे आ रहे हैं
श्याम वर्ण अश्वों पर सवार
मेरे घर की ओर ।
उनके काम बता दिए गए
एक का काम है
मुझको नहीं बोलने देने का
मुझको नहीं बोलने देने का
वाणी को छीन लें ।
दूसरे का काम है
न सुनने देने का
ताकि मैं उनके आने की
आहट न सुन सकूँ ।
तीसरे का काम है
आँख बन्द करने का-
ताकि मैं उनका आतंक न देख सकूँ ।
चौथे का काम है
मेरे दाँत तोड़ने का
ताकि मैं चलते समय
किसी पर आक्रमण न करूँ ।
कुछ देर रुक कर
फिर एक गहन सन्नाटा।
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श्याम वर्ण अश्वों पर सवार मृत्यु-दूत ? ? ? ? ?
कहते हैं जब कविता जीवन के अनुभवों से जुड़ी होती है तो उसमें बसी सच्चाई दिलो-दिमाग में कहीं गहरे तक असर करती है | मैनें महसूस किया कि व्यक्ति वही है, विषय-वस्तु भी वही है पर बदली है तो केवल एक चीज - परिस्थिति | इस बदली परिस्थिति ने पूरी कविता को एक नया ही कलेवर और आयाम दिया है | गुजरते वक्त के साथ-साथ जीवन के शाश्वत सत्य – मृत्यु पर बदलता हुआ दृष्टिकोण उनकी तीन कविताओं में स्पष्ट झलकता है | अस्पताल के बीमार मरीज, बीमार डाक्टर के वातावरण जहां कोई तीमारदार नहीं से शुरू होता सफ़र, रास्ते में कहीं पल भर को ठहर कर मृत्यु से अनुरोध करता है कि बिना किसी पूर्व-सूचना के अतिथि की भांति मत आना, जब भी आओ बता कर आना जिससे तुम्हारे स्वागत में कोई कमी न रह जाए | जब अश्व पर सवार यही अतिथि रूपी मृत्यु साक्षात नज़र आती है तो अपने दुर्बल शरीर की लाचारगी प्रबल रूप से महसूस होती है |
इस नए वर्ष पर मैं अपने पिताश्री को श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूँ जिन्होंने सिखाया – जीवन अपनी शर्तों पर जिओ, साफगोई से जिओ, सच्चाई से जिओ |
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