Wednesday 30 January 2019

ऊँची उड़ान (भाग 6 ) : मेरे प्रेरणा-स्रोत की

पिछले काफी समय से मैं इस ब्लॉग की दुनिया से दूर रहा | कारण आज की  इस कहानी में ही छिपा है | 

ले० कर्नल एच .सी. शर्मा (रि 0)
हापुड़ जिले का एक छोटा सा गाँव है नान, जी हाँ वही जिसकी नाम-राशि की चपाती को आप होटल में बड़े स्वाद से खाते हैं | उसी गाँव में एक अच्छा –खासा, खाता-पीता किसान परिवार था श्री होशियार सिंह जी का | गाँव के गिने-चुने सम्मानित और प्रभावशाली परिवारों में से एक| उन्हीं के तीन बेटों में से एक थे श्री हुकुम चंद –यानी आज की कहानी का नायक | अपने सीधे-सरल स्वभाव के कारण यह बच्चा गाँव में सभी की आँख का तारा | सीमित साधनों के बावजूद पढ़ाई -लिखाई में तेज़ | अभी बारह  साल का था कि माँ का निधन हो गया | उस बच्चे के लिए इतना बड़ा सदमा सहना आसान नहीं था | बाल-मन पर पड़ा यह घाव जीवन भर रहा और कभी भी माँ की कमीं से उबर नहीं पाया | अब उस बिन माँ के बच्चे का दिल न तो घर पर लगता था और ना ही बाहर संगी-साथियों के बीच | अच्छा-ख़ासा हंसता-खेलता बच्चा यकायक मानों रातों-रात खामोशी की चादर ओढ़े एक गंभीर इन्सान में परिवर्तित हो गया | माँ की याद वैसे तो किसी भी तरह से भुलाई नहीं जा सकती, पर उस बालक ने आखिर एक तरीका ढूँढ ही लिया उस याद को कम करने का | और वह उपाय था खुद को पूरी तरह से पढ़ाई में समर्पित करना | दिमाग तो पहले से ही तेज था, ऊपर से यह मेहनत , नतीजा सभी परीक्षाओं में अव्वल नंबरों से पास होते चले गए | आठवीं तक की पढ़ाई गाँव के ही स्कूल में और उसके बाद पास के शहर हापुड़ में | गाँव से स्कूल जाने के लिए कभी-कभी हालत ऐसे भी बन जाते कि कपड़ों की पोटली को सर पर बाँध कर रास्ते में पड़ने वाली नदी को तैर कर पार करना पड़ता | इन कठिन परिस्थितियों में मेट्रिक और उसके बाद विज्ञान विषयों के साथ इंटर प्रथम श्रेणी के नंबरों के साथ पास किया | 

उन दिनों शादी कम उम्र में ही कर दी जाती थी | उस बालक,जो कि अब किशोरावस्था में था, के साथ भी ऐसा ही हुआ | अब शादी तो हो चुकी थी पर गौना नहीं हुआ था | यानी पत्नी अपने गाँव में पिता के घर ही रह रहीं थी और हमारी कहानी का हीरो अपने पिता के पास अपने गाँव में | अब यहाँ आता है कहानी में एक जबरदस्त मोड़ |अचानक एक दिन सुबह-सुबह पड़ोसी होशियार सिंह जी के पास पहुंचता है और अनुरोध करता है "मेरा बेटा हापुड़ जा रहा है जहां फ़ौज के लिए भर्ती चल रही है| रास्ते में साथ के लिए अपने बेटे हुकुम को भी भेज दीजिए तो मेरी चिंता दूर हो जायेगी |" अब वहां पहुँच कर पता नहीं क्या सूझी कि हीरो भी लाइन में लग गए और तकदीर का खेल , जिसे भर्ती करवाने आये थे वह तो रह गया टांय-टांय फिस्स और चुन लिया गया हमारा हीरो| अब गाँव में जाकर जब सबको बताया तो मच गया कोहराम और रोआ-पीटन | परिवार का कोई भी बड़ा-बूढ़ा इस पक्ष में नहीं था कि हुकुम जाकर फ़ौज की नौकरी करे | उनका सोचना भी एक हद तक जायज़ था | पहले और दूसरे विश्व-युद्ध की बर्बादी झेल चुके बुजुर्गों के लिए फ़ौज की नौकरी में खतरा ही खतरा था | पर जो होना था सो तो हो चुका था सो बुझे मन से दिल पर पत्थर रख कर घर-परिवार ने हालात को स्वीकार करने में ही भलाई समझी और इस के बाद मन में जोशीले अरमान लिए घर-बार छोड़, निकल पड़ा हमारा बहादुर सिपाही एक नई मंजिल की ओर | वह साल था वर्ष 1954 का | 


अब अगर थोड़े में कहूँ तो फ़ौज की नौकरी इस बहादुर हीरो ने कुछ इस अंदाज़ में की जैसे जंगल में शेर की चहल कदमी | इस बात का अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि सिपाही के रूप में भर्ती हुए इस लाजवाब इंसान ने तरक्की की हर हद को एक के बाद एक आश्चर्यजनक ढंग से पार करते हुए अपने 34 वर्ष के सेवा-काल में लेफ्टिनेंट कर्नल के ओहदे तक पहुँच कर ही दम लिया | इसके लिए काम के प्रति पूरा समर्पण और स्वयं के विकास के लिए लगातार अध्ययन जारी रख कर शैक्षिक योग्यता बढाते रहे | सेना में रहते हुए ही विभिन्न तकनीकी कोर्स के अलावा उन्होंने बी.एस.सी , बी .एड, मेनेजमेंट और विधि क्षेत्रों की  शैक्षिक  योग्यताएं अर्जित की | ईमानदारी से अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए, बिना किसी सिफारिश की बैसाखी का सहारा लिए, जो कुछ पाया बस अपने बल-बूते पर | यही ईमानदारी और सिद्धांत कहीं उनकी नौकरी-नैय्या की पतवार बने तो कहीं इन्हीं जीवन-मूल्यों ने आगे बढ़ने के रास्ते में अड़चने भी खडी कर दीं वरना शायद एक - दो अतिरिक्त प्रमोशन भी मिल गए होते | पर इस बात का उन्हें कभी कोई दुःख नहीं रहा जैसा कि वह स्वयं कई बार कहते भी थे कि जीवन मूल्यों के साथ समझौता करके कोई भी लाभ उन्हें किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं | अपने सेवा-काल में तीनों मुख्य –युद्ध – 1962 चीन के साथ , 1965 और 1971 पाकिस्तान के साथ , में सीमा पर बहुत बहादुरी से दुश्मन का मुकाबला किया | भूटान में हुए सत्ता-संघर्ष के समय विद्रोहियों से निपटने के लिए भेजी गयी भारतीय सेना की पहली टुकड़ी के सदस्य थे जहां बहुत ही खतरनाक हालातों का सामना करना पड़ा | एक से एक कठिन सीमावर्ती स्थानों पर तैनाती रही जिसे बखूबी निभाया | 1962 के भारत-चीन के युद्ध के समय जब इनकी पोस्टिंग बार्डर पर थी, तब अपने पिता श्री होशियार सिंह जी को भी खो बैठे | दरअसल  रेडियो पर आरही लड़ाई और शहीद सैनिकों के समाचारों को सुनते-सुनते ही वृद्ध पिता अपने बेटे की चिंता में हार्ट-अटेक का झटका नहीं झेल पाए थे  |
इनकी उच्च-श्रेणी की ईमानदारी और कर्तव्य-निष्ठा को देखते हुए भारतीय सेना के सिग्नल्स कोर की बहुत ही गोपनीय और संवेदनशील साइफर ब्रांच में कार्यरत रहे| इनके कार्य-कलापों की संवेदनशीलता और गोपीनयता का सम्मान करते हुए मैं इस विषय में अधिक विस्तार से नहीं जा रहा हूँ | केवल इतना कह सकता हूँ कि यह मेरे रोल माडल रहे, जिनसे मैंने सीखा ( या सच कहूँ तो सीखने का प्रयत्न किया पर पूरी तरह से आज तक सफल नहीं हो पाया ) कि कभी भी किसी की बुराई मत करो | उतना बोलो जितना आवश्यक है | जहां तक हो सके लोगों की मदद करो | एक बात और - मेहनत और ईमानदारी अगर आप के पास है तो ज़िन्दगी में सब कुछ हासिल किया जा सकता है |शायद इस ब्लॉग के माध्यम से आप सब तक यही नसीहतें पहुंचाना ही मेरा उद्देश्य है |   


मेरे यह रोल माडल, प्रेरणास्रोत हैं लेफ्टिनेंट कर्नल एच. सी. शर्मा ( सेवा निवृत ) जो अभी कुछ दिन पूर्व ही अचानक 19 जनवरी 2019 को सदगति को प्राप्त हो गए |अपने पीछे भरा-पूरा, सुखी-संपन्न परिवार छोड़ कर जाने वाले कर्नल शर्मा सबकी नज़रों में यूँ तो मेरे स्वसुर थे पर मेरे लिए सही मायने में एक ऐसे पथ-प्रदर्शक रहे जिनकी कमी जीवन- पर्यंत मुझे खलती रहेगी | अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने उनसे कहा था कि आपके इतने प्रेरणादायी और साहसिक व्यक्तित्व के बारे में एक लेख लिखूँगा | मुझे यह नहीं आभास था कि थोड़ी से देर के कारण यह लेख श्रद्धांजली-सुमन के रूप में अर्पित  करना पड़ेगा |   




                   सादर नमन – श्रद्धांजली

Wednesday 9 January 2019

बात अंतिम कविता की

स्व० श्री रमेश कौशिक 

वर्ष 2018 बीत गया और अब जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, नए साल के नए माह ने हमारे आप के जीवन मे अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया है |ऐसे समय में जब ज्यादातर लोग नए साल की ओर बड़ी आशा से देख रहें हैं, भविष्य के लिए नई-नई योजनाएं बना रहें हैं, आदर्शवाद से भरपूर तरह-तरह के संकल्प ले रहे हैं, एक मैं हूँ जो बीते हुए समय को पीछे मुड़कर ध्यान से देख रहा हूँ | याद कर रहा हूँ उन सभी की मीठी यादों को जो कभी साथ थे पर आज नहीं | वक्त के थपेड़ों ने जिन्हें दूर, बहुत दूर कर दिया, इतना दूर जहां से कोई वापिस नहीं आता | बहुत सारे हैं ऐसे बिछड़ने वाले पर कुछ ऐसे होते हैं, सच में जो सबसे ख़ास होते हैं | और ख़ास भी कोई यूं ही नहीं बन जाता, उस ख़ास में बात भी कुछ ख़ास होनी चाहिए यानी ऐसी बात जो हो सबसे अलग | यह वह ख़ासियत ही है जो सब की भीड़ में उस शख्स को सबसे अलग खड़ा करती है और साल दर साल गुजरने के बाद भी उसकी यादों की भीनी-भीनी महक से आपको हर दम महकाए रखती है | कुछ ऐसे ही शानदार, दमदार और प्रभावशाली और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के मालिक थे मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय श्री रमेश कौशिक, काव्य-जगत के जाने-माने स्तम्भ | कविता के प्रति उनका रुझान बचपन से ही रहा जिसका श्रेय वे अपने पिताश्री (मेरे दादा ) लावनी कलाकांत पंडित हरिवंश लाल जी को देते थे जिन्होंने 9-10 वर्ष की उम्र से ही कविता का अभ्यास कराना आरम्भ कर दिया था | उस अवस्था में लिखे एक दोहे का उल्लेख उन्होंने कविता संग्रह ‘कहाँ हैं वे शब्द’ के आत्मकथ्य में किया है :


सत के कारण हरिश्चंद्र ने, झेले कष्ट अपार|

राज पाट, नारी सुत तजके, करे श्वपच घर कार || 


विगत में भी उनकी लिखी कविताओं से समय-समय पर आपको परिचित करवाता ही रहा हूँ | उनसे जुड़ेअनगिनत प्रेरणादायक संस्मरण आज भी मेरे मनो-मस्तिष्क में इस तरह ताज़ा हैं जैसे कल की ही बात हो| 



यहाँ यह बताना उचित रहेगा कि मेरे पिता ने पार्किनसंस जैसे गंभीर रोग की विभीषिका को लगभग बारह वर्ष के लम्बे समय तक झेला पर अंत समय तक हार नहीं मानी | इस दौरान भी वह शरीर की दिनों-दिन क्षीण होती जा रही शक्ति के बावजूद अपने काव्य-लेखन पर उसी उत्साह से लगे रहे | एक के बाद एक कविता संग्रह आते रहे और जिन्दादिली और मनोबल की हालत यह कि अस्पताल में भर्ती होने पर भी डाक्टरों को भी अपनी कविताएँ सुना दिया करते जिसमें एक मुझे आज भी याद है : 

सब के सब बीमार
मरीज तो मरीज 
डाक्टर भी 
इसलिए मदद कर नहीं सकते 
एक-दूसरे की 

लाचार | 
सब-के-सब बीमार 
कोई आँख से 
कोई कान से 
कोई तन से 
कोई मन से | 

दुनिया एक बहुत बड़ा अस्पताल 
किन्तु कोई नहीं तीमारदार 
सब-के-सब बीमार| 

अभी पिछले दिनों उनका कविता संग्रह - प्रश्न हैं उत्तर नहीं की कविता मृत्यु पढ़ रहा था| यह संग्रह वर्ष 2006 में प्रकाशित हुआ था | कविता इस प्रकार से है : 


मृत्यु

ओ श्यामा सुन्दरी 

मुझे यह तो पता है 
कि एक दिन तुम 
मेरे पास निश्चय ही आओगी 
और अपने साथ चुपके-से ले जाओगी | 

किन्तु यह नहीं बताया कभी 
कि तुम कब आओगी 
कहाँ से आओगी 
और कहाँ ले जाओगी | 

कोई अतिथि यदि बिना बताए 
आ जाए अचानक 

तो स्वागत में कमीं बने रहने का 
अंदेशा रहता है 
अगर तुम्हारे साथ हो गया कुछ ऐसा ही 
तो मुझको यह अच्छा नहीं लगेगा | 

अत: अभी बता दो मुझको 
कब आओगी 
ताकि तुम्हारे स्वागत की 
तैयारी कर लूँ | 

************************************* 
वर्ष 2009 का उत्तर्राद्ध आते-आते रोग ने अपनी पकड़ और मजबूती से कर ली | शरीर और अधिक क्षीण हो चला | खाना-पीना भी सब नाक में डाली गयी ट्यूब के रास्ते | पूरी तरह से रोग-शैय्या पर | अधिकाँश समय नीम-बेहोशी की अवस्था में सोते हुए ही गुजरता | आवाज काफी हद तक अस्पष्ट हो चुकी थी | ऐसी ही अवस्था में फिर भी एक दिन बहुत ही हिम्मत करके कागज़ कलम लेकर स्वयं ही कुछ लिखना चाहा | आधी-अधूरी, टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं और शब्दों के द्वारा कुछ लिखने का भरसक प्रयास कर रहे थे | बहुत कोशिश करने पर भी बात नहीं बन पायी | अंत में मेरी मां ने कुर्सी-मेज पर बैठ कागज़-कलम संभाला और पत्नी हेमलता ने सिराहने बैठ उनके फुसफुसाते स्वर के अस्फुट शब्दों को कान लगाकर सुनने का भरसक प्रयास किया | अब पत्नी उन शब्दों को सुन और समझ कर बोल रहीं थी जिन्हें मेरी मां तुरंत लिखती जा रही थी | इस सारी बौद्धिक कवायत में जैसे-तैसे वह कविता पूरी हुई | माँ की तमाम नाखुशी के बावजूद भी पिता ने यह कहते हुए कि यह उनकी आखिरी कविता है, रचना का शीर्षक दिया अंतिम कविता | उस बालक की, जिसने आठ साल की उम्र से ही कविता को जीवन भर के लिए अत्यंत प्रगाढ़ रूप से आत्मसात कर लिया था, 79 वर्ष की आयु में गहन रोग शैया पर लेटे, नितांत कष्ट में लिखी यह रचना सच में जीवन की अंतिम कविता ही साबित हुई | मात्र पंद्रह दिन के अंतराल पर एक रात उन्होंने इशारे से माँ को पास बुलाया और उनकी बांह पर अपनी कांपती उंगली से कुछ लिखा | पूरी तरह से न समझ पाने पर माँ ने मेरी पत्नी को पास बुलाया| इस बार पिता ने फिर वही दोहराया जिसे पत्नी समझ गयी | उन्होंने लिखा था : अब मैं मृत्यु चाहता हूँ|

शायद मृत्यु-देव उस समय कहीं आस-पास ही विचरण कर रहे थे जिन्होंने इच्छा जानकार तुरंत कह भी दिया होगा तथास्तु | अगले ही दिन 27 सितम्बर 2009 की सुबह उनके जीवन की अंतिम सुबह थी |

जीवन काल की वह अंतिम कविता इस प्रकार से है : 

अंतिम कविता 

वे आ रहे हैं 
श्याम वर्ण अश्वों पर सवार 

मेरे घर की ओर । 

उनके काम बता दिए गए 
एक का काम है
मुझको नहीं बोलने देने का 
वाणी को छीन लें । 

दूसरे का काम है 
न सुनने देने का 
ताकि मैं उनके आने की 
आहट न सुन सकूँ । 

तीसरे का काम है 
आँख बन्द करने का- 
ताकि मैं उनका आतंक न देख सकूँ । 

चौथे का काम है 
मेरे दाँत तोड़ने का 
ताकि मैं चलते समय 
किसी पर आक्रमण न करूँ । 

कुछ देर रुक कर 
फिर एक गहन सन्नाटा। 
**************************

 श्याम वर्ण अश्वों पर सवार मृत्यु-दूत ? ? ? ?  ? 

कहते हैं जब कविता जीवन के अनुभवों से जुड़ी होती है तो उसमें बसी सच्चाई दिलो-दिमाग में कहीं गहरे तक असर करती है | मैनें महसूस किया कि व्यक्ति वही है, विषय-वस्तु भी वही है पर बदली है तो केवल एक चीज - परिस्थिति | इस बदली परिस्थिति ने पूरी कविता को एक नया ही कलेवर और आयाम दिया है | गुजरते वक्त के साथ-साथ जीवन के शाश्वत सत्य – मृत्यु पर बदलता हुआ दृष्टिकोण उनकी तीन कविताओं में स्पष्ट झलकता है | अस्पताल के बीमार मरीज, बीमार डाक्टर के वातावरण जहां कोई तीमारदार नहीं से शुरू होता सफ़र, रास्ते में कहीं पल भर को ठहर कर मृत्यु से अनुरोध करता है कि बिना किसी पूर्व-सूचना के अतिथि की भांति मत आना, जब भी आओ बता कर आना जिससे तुम्हारे स्वागत में कोई कमी न रह जाए | जब अश्व पर सवार यही अतिथि रूपी मृत्यु साक्षात नज़र आती है तो अपने दुर्बल शरीर की लाचारगी प्रबल रूप से महसूस होती है | 

इस नए वर्ष पर मैं अपने पिताश्री को श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूँ जिन्होंने सिखाया – जीवन अपनी शर्तों पर जिओ, साफगोई से जिओ, सच्चाई से जिओ | 


Thursday 3 January 2019

ऊँची उड़ान ( भाग पांच ) : चाहत की चाहत

सब से पहले सुनिए सुनिए चाहत -सौरव के संगीत निर्देशन में फिल्म नारायण के कुछ गीत 

शायद आपको याद हो कुछ माह पहले उड़ान श्रंखला (भाग तीन) के अंतर्गत संगीत के एक दीवाने की कहानी लिखी थी – सौरव मिश्रा : संघर्ष का सुरीला सफ़र | सौरव मिश्रा की बेहतरीन गायकी और उस मुकाम तक पहुँचने में संघर्ष से भरे रास्ते से आपको परिचित करवाया था | अगर आप भूल चुके हैं तो इस लिंक पर क्लिक करके अपनी याद ताज़ा कर लीजिए|  दरअसल सौरव अकेले तो काम करते नहीं हैं, उनके जोड़ीदार हैं चाहत कक्कड़, तो मेरा पहले लिखा ब्लॉग तब तक अधूरा है जब तक उसमें चाहत की कहानी भी नहीं जुड़ जाती है | इसके अलावा भी सौरव मिश्रा की कहानी पढ़ कर बहुत सारे पाठकों ने मुझ से गब्बर सिंह के अंदाज में पूछा भी था – कहाँ हे रे फ़ौजी नंबर दो ? तो चलिए आज इसी फौजी नंबर दो यानी चाहत कक्कड़  से आपकी मुलाक़ात करवाता हूँ | वैसे आपको यह भी बता दूँ कि इस फ़ौजी नंबर दो में कहीं से भी पहलवान के लक्षण नहीं हैं | पहली नज़र में ही हर तरह से कलाकार नज़र आता है, गोरा चिट्टा रंग, दर्मियाना कद , चेहरा निहायत ही मासूम पर उस मासूमियत को नज़रंदाज़ करती  शरारती आंखें | चेहरे पर एक ऐसी नटखट और निर्मल मुस्कान जिसे देखकर नई पीढी को शाहिद कपूर और मुझ जैसे को अमोल पालेकर याद आ जाए | 
चाहत कक्कड़ 

कहते हैं कि जो नज़र आता है वह दरअसल होता नहीं है और जो असल वास्तविकता होती है वह नज़रों से कोसों दूर होती है| कुछ ऐसी ही कहानी है चाहत की | जब मैं इनके जोड़ीदार सौरव मिश्रा यानी फ़ौजी नंबर एक की कहानी पर काम कर रहा था तब अपनी सीमित जानकारी की वजह से दिमाग में चाहत के बारे में तरह-तरह की भ्रांतियां पाल बैठा था | दोष मेरा भी नहीं था | सौरव की संघर्ष-गाथा पर ही पूरी तरह से केन्द्रित रहा | मुझे प्रारंभ से ही कुछ ऐसा लगा कि चाहत उन गिने-चुने खुशनसीबों में से है जिन्हें पारिवारिक रसूख की वजह से जिन्दगी में सब कुछ चांदी की थाली में परोसा हुआ हर सुख, वैभव और उपलब्धि सरलता से प्राप्त हो जाती है | बाद में मुझे पता चला कि मैं थोड़ा-बहुत नहीं, इस मामले में पूरी तरह से गलत था | अगर सच कहूँ तो जिन्दगी की हर परेशानियों की सौगात उन्हें कुछ ज्यादा ही मिली जिसने उन्हें इतने पापड़ बेलने को मजबूर किया कि अगर आज संगीत की दुनिया से नहीं जुड़े होते तो कसम से लिज्ज़त पापड से ज्यादा “कक्कड़ पापड” की दूकान चल रही होती | पर चाहत की किस्मत और शौक ने-तो कोई और ही मंजिल चुन कर रख ली थी – संगीत की मंजिल | आज के दिन चाहत एक उभरते हुए संगीतकार,स्टेज शो के जबरदस्त अदाकार होने के साथ-साथ ही साउंड रिकार्डिंग इंजीनियर भी हैं | संगीत के कई वाद्य यंत्र जैसे गिटार, पिआनो, ड्रम, तबला , कांगो, माउथ-आर्गन, की-बोर्ड बजाने में उनका कोई सानी नहीं है | अपने संगीत कार्यक्रमों में एक साथ कई वाद्य यंत्र बजा कर श्रोताओं को चकित और मंत्रमुग्ध कर देते हैं |

चलिए आज की राम कहानी चाहत कक्कड़  के नाम, सुनते हैं क्या कहते हैं अपने बारे में वो : 

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समझ में नहीं आ रहा कहाँ से शुरू करूँ अपनी कहानी | आज के बारे में बताऊँ जब संगीत के सागर में बहुत ही ठाठ से  तैर रहा हूँ या उस बीते समय की जब बचपन के ऊबड़-खाबड़ घोर परेशानियों से भरे दिनों की जिन्हें याद करके आज भी मैं भय से सहम जाता हूँ | मेरा बचपन पूरी तरह से दिल्ली में ही बीता, पढ़ाई-लिखाई भी ज़ाहिर सी बात है यहीं हुई | मेरे माता – पिता दोनों ही संगीत के इवेंट मेनेजमेंट के क्षेत्र से जुड़े थे | जगह-जगह संगीत कार्यक्रमों के स्टेज-शो में भाग लेते |घर पर भी गाने-बजाने का वातावरण रहता, जिसे सुन-सुन कर मेरी भी रूचि संगीत की और मुड़ती गयी | शुरुआती दौर में सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था | मुझे दिल्ली में जनकपुरी के एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया गया | उन दिनों ही  अचानक घर की वित्तीय स्थिति में जैसे भूचाल सा आ गया | पिता जी ने जो अपने गाढ़े खून-पसीने की बचत पूंजी छोटे मोटे व्यवसाय में लगा रखी थी वह साझीदारों की बेईमानी की वजह से ड़ूब गयी | घर खर्चों में कटोती साफ़ नज़र आने लगी | पर हालात थे कि बद से बदतर होते जा रहे थे | समय पर स्कूल फीस नहीं दे पाने के कारण मेरे पिता जी को भी स्कूल बुलवा लिया जाता | जो चीजें आप फिल्मों में देखते हैं, वे सब मेरे साथ सचमुच हुई हैं जैसे फीस के कारण ही मुझे सब बच्चों के सामने अपमानित करके, क्लास से बाहर कर दिया जाता | आप समझ सकते हैं इन सब कड़वी यादों का मेरे बाल-मन पर कितना गहरा आघात पहुंचता होगा | क़र्ज़ का दीमक घर में घुस चुका था और धीरे-धीरे नींव खोखली करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था | मेरे बड़े भाई गौरव  को इस दौरान अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर नौकरी करनी पड़ी | मैं हिम्मत और धैर्य की सराहना करता हूँ अपने माता-पिता और बड़े भाई का जिन्होंने इन विकट परिस्थितियों से जूझते हुए भी मेरी शिक्षा पर कोई आंच नहीं आने दी | 

माँ -पापा - श्रीमती सुमन व श्री गुलशन कक्कड़

बारहवी क्लास की बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद यही सोच थी कि अब आगे क्या | घर के संगीतमय वातावरण के कारण मेरा झुकाव आवाज़ की दुनिया के आस-पास ही मंडरा रहा था सो एशियन एकेडेमी ऑफ़ फिल्म एंड टेलीविजन, नोएडा से साउंड रिकॉर्डिंग के डिप्लोमा कोर्स में दाखिला लिया| मेरे पास सीनियर सेकेंडरी में विज्ञान विषय नहीं थे जबकि साउंड इंजीनियरिंग के लिए फिजिक्स की अच्छी जानकारी होनी चाहिए | इस विषय को मैंने अलग से काफी मेहनत से पढ़ा और उस बेच में मैं सबसे ज्यादा नंबर लेकर पहला स्थान प्राप्त किया | इसके बाद पत्रकारिता और मॉस कम्युनिकेशन में स्नातक कोर्स भी कर लिया | प्रयाग संगीत समिति. इलाहाबाद से शास्त्रीय संगीत की विधिवत शिक्षा भी प्राप्त की | 

अब नौकरी के लिए भी जोर-शोर से हाथ पैर मारने शुरू कर दिए थे | एक जगह नौकरी शुरू भी कर दी पर यह जो ऊपर वाला है, वह भी कुछ कम नहीं है | हमारी हिम्मत और सब्र के इम्तिहान में उसे शायद अब भी कुछ कमी नज़र आ रही थी सो हमारे सर पर एक बम और फूटा – माँ को केंसर हो गया | घर की पहले से ही जर्जर नैया जो अब तक मझदार में गोते लगा रही थी, इस केंसर के तूफ़ान से मानों पूरी तरह से बीच समुद्र में पलट चुकी थी | हालात इतने बुरे हो चुके थे कि एक तरह से दो वक्त खाने के भी लाले पड़ने लगे | अब दुनिया की सारी परेशानियां एक तरफ और माँ की जानलेवा बीमारी दूसरी तरफ| सर पर पहले से ही भारी क़र्ज़ का बोझ, ऊपर से बीमारी के इलाज़ के महंगे और कमरतोड़ खर्चे | पिछली बार जब घर पर आर्थिक संकट आया था तब बड़े भाई गौरव को अपनी पढाई छोड़ कर नौकरी पर लगना पड़ा , पर इस बार माँ की बीमारी के कारण उनकी देखभाल के लिए मुझे अपनी नौकरी ही छोड़नी पड़ी | पूरे परिवार की ज़िंदगी का एक ही मकसद रह गया था – किसी भी कीमत पर माँ की जान बचाना | पर सवाल था कीमत का, उस कीमत के लिए पैसे कहाँ से लायें | ले-देकर आसरे के नाम पर एक छोटा सा मकान था, मजबूरी में वह २५ लाख का मकान आधी कीमत में ही मन मार कर बेचना पड़ा | इस तरह ,सर पर जो छत थी, हमारा आसरा था वह भी छिन गया | किराए के छोटे से मकान में जाना पड़ा | माँ का इलाज लगातार चला | अगर मैं गलत नहीं हूँ तो लगभग 96 बार कीमियोथेरापी हुई | इस सबके बाद हमारे लिए खुशी की बात यह कि सभी शुभचिंतकों की दुआ और ईश्वर के आशीष से माँ स्वस्थ हो गयी | शायद अब तक भगवान को भी हम पर तरस आ गया था | 

संगीत का शौक मुझे बचपन से ही रहा | अपने स्कूल में कांगों बजाना अपने-आप ही सीखा | शायद नवीं क्लास में पढ़ता था तब स्कूल के ही कुछ और बच्चों के साथ मिलकर एक म्यूजिक-बैंड बनाकर पहला गाना बाकायदा रिकार्ड करवाया | स्कूल के संगीत के कार्यक्रमों में ड्रम भी बजाया करता | बाद में गिटार सीखने के लिए श्री ललित हिमांग जी की शरण में गया | गिटार जल्दी- से- जल्दी सीखने की इतनी ललक रही कि रोज आठ से दस घंटे अभ्यास करता | उँगलियों के पोर बुरी तरह से छिल जाते पर गुरु के आशीर्वाद से मैं दो माह में ही काफी हद तक गिटार पर अच्छी पकड़ बना चुका था | गिटार ने मुझे सुर-ताल का अच्छा ज्ञान दिया | रही सही कसर एशियन एकेडेमी ऑफ़ फिल्म एंड टेलीविजन में साउंड रिकार्डिंग की तकनीकी शिक्षा ने पूरी कर दी | इस पढ़ाई के दौरान मैं वहां के प्रोफेसर श्री राजेन्द्र गांधी जी से बहुत प्रभावित रहा | 
गिटार के तार - मेरा पहला प्यार 

अब मेरी नौकरी की शुरूआत हो चुकी थी | जगह –जगह हाथ पैर मारे, नामी –गिरामी रिकार्डिंग स्टूडियो में संगीतकार और साउंड इंजीनियर के रूप में काम किया, खूब अनुभव बटोरा और ख़ासा पैसा भी | पर इस बीच जैसा मैंने पहले भी आपको बताया, माँ की बीमारी की वजह से अच्छी-भली नौकरी छोड़ी क्योंकि माँ है तो सब कुछ है वरना कुछ नहीं | कुछ समय बाद दोबारा से नई शुरुआत करी लेकिन इस बार मेरे साथ एक ऐसा दोस्त मेरे साथ जुड़ गया था जो भाई से भी बढ़ कर था | जी हाँ – ये थे सौरव मिश्रा जो आज तक मेरे जोड़ीदार हैं | सुरीली आवाज के बेताज बादशाह, इनके गले में मानों साक्षात सरस्वती का वास तो था ही, साथ ही साथ गीत लिखने और धुन बनाने में भी अच्छी पकड़   | बस अब क्या था,  हम दोनों की आवाज और साज़ ही बहुत थे दुनिया में धूम मचाने के लिए | अब हम ऐसी अटूट जोड़ी बन चुके थे जिसकी सोच एक थी, राह एक थी और मंजिल एक थी | हमनें नौकरी के बंधन से दूर स्वतन्त्र रूप से काम करने की ठान ली | अब जो भी करते मिल कर करते – स्टेज शो किये, म्यूजिक वीडिओ बनाए, गानों की धुनें बनाईं, नारायण और तीन ताल जैसी फिल्मों के लिए पार्श्व संगीत दिया, मोबाइल फोन के लिए रिंग टोन्स बनाई, वीडियो गेम्स के लिए भी संगीत बनाया, रेडियो और टी.वी के लिए जिंगल्स तैयार किए   | एक तरह से देखा जाए तो यह जोड़ी ऐसे हरफनमौला दो कलाकारों की है जिसमने दोनों ही गायन, वादन और  संगीत रचना और स्टेज-शो के सही मायने में खिलाड़ी हैं |  
सौरव और मेरी जोड़ी 

मेरा बहुत ही विनम्र भाव से यह सोचना है कि अब जो भी हम काम कर रहें है, उसके बारे में अब हम नहीं बोलेंगें वरन काम बोलेगा | हमारे बनाए गाने संगीत-प्रेमियों को पसंद आ रहे हैं यही हमारे लिए संतोष की बात है | मेरे लिए सबसे बड़े आत्म-संतोष की बात यह है कि मेरे संगीत के शौक ने आज मुझे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां मैं आज की तारीख में परिवार के सर पर सवार भारी-भरकम कर्जे के अधिकाँश भाग से मुक्ति पा-चुका हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप सब के आशीर्वाद और शुभकामनाओं से इस सबसे अगले एक वर्ष में पूरी तरह से छुटकारा मिल जाएगा |अपने परिवार के सर पर किराये की छत नहीं, बल्कि अपनी छत दे पाऊं यही मेरी  सबसे बड़ी अभिलाषा है|

इस आप-बीती कहानी में अगर अपने जीवन साथी पूजा का जिक्र न करूँ तो सब कुछ अधूरा है | मेरे सबसे मुश्किल दिनों में पूजा ने सहारा दिया - न केवल मुझे वरन मेरी बीमार माँ को, मेरे पूरे परिवार को | अगर उसने इतनी जिम्मेदारी से यह घर नहीं सम्भाला होता तो शायद मैं अपने काम पर इतना ध्यान नहीं दे-पाता और इस मुकाम पर नहीं पहुँच पाता जहां आज मैं हूँ | समझ नहीं आता इस सबके लिए उसे क्या कहूँ – धन्यवाद, आभार, शाबाश या और कोई शब्द जिसका निर्णय मैं आप पर ही छोड़ता हूँ |

बस इक 'पूजा' और न कोई दूजा 

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तो दोस्तों , कैसी लगी चाहत की कहानी जो ऊबड़ -खाबड़ रास्तों से गुजरती हुई अब कामयाबी के हाई-वे पर दौड़ रही है | मेरी शुभकामनाएँ  - ईश्वर चाहत की हर चाहत पूरी करे |