Friday 31 August 2018

कहानी कम्बल के दंगल की


एक बार तो शायद आपको भी लगा होगा की कहीं नज़रों का धोखा तो नहीं है , जी नहीं आपने बिलकुल सही पढ़ा है । आपने चम्बल की कहानियाँ तो बहुत पढ़ी होंगी पर इस बार लगे हाथों एक क़िस्सा कम्बल का भी सुन ही लीजिए ।
कभी आपने सोचा है क़िस में गरमी ज़्यादा है , आदमी में या कुर्सी में ? कहने को तो बड़े बूढ़े कह गए हैं कि आदमी माटी का पुतला है , पर  इस दिल का क्या करें जो  कम्बख़्त मानता ही नहीं वरना किसी शायर को यह क्यूँ कहना पड़ता :
हमने देखा है कई ऐसे खुदाओं को यहाँ,
सामने जिनके वो सचमुच का खुदा कुछ भी नहीं ।



अब और कुछ हो या ना हो पर इतना ज़रूर है कि ये ज़मीं के ख़ुदा या फ़रिश्ते और किसी काम के हों या ना हों पर अपने पीछे ऐसे अनगिनत सिरफिरे क़िस्सों और कारनामों की एक ऐसी लम्बी फ़ेहरिस्त छोड़ जाते है जिन्हें आने वाली पीढ़ियाँ तक चटकारे ले लेकर खाना हज़म करतीं हैं । तो भाई मेरे , इस बार भी बात घूम फिर कर गेस्टहाउस पर ही आकर टिक जाती है । कारण साफ़ है , अगर आप को किसी तथाकथित  'महापुरुष' का असली रूप देखना है तो ऐसी जगह पकड़िए जहाँ वो जनसामान्य की पहुँच से दूर हों और इस मामले में गेस्ट हाउस से बढ़ कर और कौन सी जगह हो सकती है । बात जब भी हँसी - ठिठोली की होती तो दबी ज़ुबान यार लोग कहने में गुरेज़ नहीं करते कि घर पर साहब लोग बेशक फटी लुँगी में घूमते हों पर सरकारी आतिथ्य पर आते ही साहब बहादुर को शहंशाह के गिरगिटी रूप में आने में देर नहीं लगती । भरी मीटिंगों में शोर -शराबे  और हंगामे की वजह काम काज की शिथिलता से कहीं अधिक होती थी - चाय ठंडी क्यों है, ज़्यादा गरम क्यों है, स्ट्रॉंग क्यों है । अब फ़ेक्ट्री की परफ़ोरमेंस गई तेल लेने ,  बताइए महामहिम को उनकी चाय इतनी स्ट्रोंग क्यों ? अब क्या बताएँ मुगलेआज़म को कि हुज़ूर आप होटल में नहीं , हिमाचल प्रदेश के दूरदराज़ के जंगल में स्थित छोटी सी फ़ेक्ट्री के पिद्दी से गेस्ट हाउस के तख़्ते ताउस पर विराजमान हैं । अब मज़े की बात लगे यह कि जब क़भी शहंशाह के दिल्ली दरबार में उनके व्यक्तिगत आतिथ्य में जो चाय नसीब होती थी ( जिसे वो  अंजीर और अखरोट के साथ सड़ाप से पूरे मज़े से गटक जाते थे)ऐसी चाय अगर हमारी फ़ेक्ट्री में पेश कर दी जाती तो बंदा तो  क्या चीज़ है, बंदा और बंदे का जीएम दोनों ही आसाम के चाय बाग़ानों में कमर पर टोकरी लटकाए चाय की ताज़ी पत्तियाँ बीनते नज़र आते।




चलिए अब मुद्दे की बात पर आता हूँ क्योंकि अब  आप भी कह रहे होंगे कि पंडित जी बहुत हो गया , ये कम्बल के क़िस्से में चाय का अफ़साना कहाँ से उठा लाए । तो हुआ कुछ यूँ  कि  वाक़या रहा होगा यही कोई दिसम्बर 2014 का । दिल्ली मुख्यालय से  उपमहामहिम का राजबन फ़ेक्ट्री का दौरा हुआ । सारे दिन भर सल्तनत में उठा पटक और गहमागहमी चलती रही । उन दिनों मैं वहाँ के  कार्मिक  और प्रशासन विभाग को देख रहा था सो  सीधी सी बात है बम का गोला यानी गेस्ट हाउस की भी ज़िम्मेदारी थी । गेस्ट हाउस को बम का गोला इसलिए कह रहा हूँ कि जब तक आपकी जन्मकुंडली में ग्रह नक्षत्र सही दिशा में हैं , तब तक आप मंगल आपके लिए मंगलमय है , पर ग़लती से भी अगर शनि की कुदृष्टि पड़ गई तो राम क़सम थानेदार से हवलदार बनने में गिनती के मिनट दो लगेंगे ।

सो हमारा तो उस दिन का मुंगेरी लाल का हसीन ख़्वाब यही था कि सब कुछ ठीक रहे और डिनर करके शेरे बब्बर अपनी मांद में प्रस्थान करें । सब कुछ भली प्रकार चलता रहा और डिनर करके श्रीमान अपने कमरे में सोने चले भी गए । साहब  को गुड नाइट बोलते हुए हमारे दिमाग़ के किसी कोने से आवाज़ आई चलो मन की मुरादऔर आज की दिहाड़ी तो पूरी हुई ।  मैं वापिस जाने को मुड़ा ही था कि कमरे का दरवाज़ा फिर से खुला और साहब बहादुर ने अंदर आने का इशारा किया । धड़कते दिल से मैंने सोचा अब क्या आफ़त आई। एक तरह से आफ़त ही थी क्योंकि हुकुमनामा जारी किया जा रहा था -  Kaushik ! I Want brand new blanket , absolutely unused. अब अपलोग उस वक़्त शेर की मांद में  मुझ ग़रीब मेमने  की हालत समझ सकते हैं । रात के साढ़े ग्यारह बजे, उस जंगल में इस विविध भारती के पंचरंगी कार्यक्रम की ये अजीबोग़रीब सिरफ़िरी फ़रमाइश कैसे और कहाँ से पूरी करूँ । फ़रमाइश एक तरह से अटपटी इसलिए भी थी क्योंकि उनके कमरे का कम्बल भी दो चार दिन पहले ही ख़रीदा गया था। पर यहाँ तो सवाल था ऐसे कम्बल का जो नवजात (nascent) हो , जिसमें से गर्मागर्म भाप उठ रही हो गोया कि कम्बल ना हुआ भैंस का ताज़ा ताज़ा दूध हो गया । पर फिर वही बात , अब उन्हें समझाए तो समझाए कौन , और सच कहूँ तो थानेदार से हवलदार बनने का शौक़ मुझे भी नहीं था । करता क्या , चुपचाप बाहर आकर लाबी में लगे सोफ़े पर बैठकर अपने सारे इष्ट देवों को याद करके प्रार्थना करने लगा कि हे भगवान , क्या कलयुग में अलादीन के जिन्न का अवतार नहीं हो सकता । भगवान का तो पता नहीं पर शाहरुख़ खान का एक डायलाग़ याद आ गया : अगर किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो सारी कायनात उसे पूरी करने में लग जाती है । 
गेस्ट हाउस अटेंडेंट जो आस पास ही मंडरा रहा था , मुझे परेशान देखकर कारण पूछा । वजह जानकर चुपचाप चला गया पर पाँच मिनट बाद ही वापिस लौटा । इस बार उसके होठों पर मीठी मुस्कान थी और हाथ में बाक़ायदा एक नयी नकोर पेकिंग में चमकता दमकता कम्बल था । एक बारगी तो आँखों को विश्वास नहीं हुआ , होले  से पूछा - कहाँ से लाए ये चमत्कार । एक भोली सी पहाड़ी मुस्कराहट बिखेरते हुए बोला - सर दिवाली पर जो कम्बल  मुझे गिफ़्ट में सीसीआई से मिला वही है । अभी तक बक्से में बंद पड़ा था घर से निकाल कर लाया हूँ । सच मानिए उस भाई की बात सुनकर दिल में जो भाव आए , आजतक उनके लिए उचित शब्द नहीं मिले । कुल मिलाकर कुछ ऐसा ही लगा होगा राम जी को जब हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर आए होंगे। हँसने की बात नहीं है पर यह सच है उस वक़्त वो कम्बल मेरे लिए किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं था ।
अब आइये इस फ़िल्म के क़्लाएमेक्स सीन पर - हमारे मुगले आज़म तो अब तक हमें टेंशन देकर आराम से सोने की पूरी तैयारी में लगभग चले ही गए थे । सच्चाई से शायद वो भी वाक़िफ़ रहे होंगे , सोचा होगा सोने में ही भलाई है क्योंकि अब आधी रात को तो जंगल में भेड़ भी नहीं मिलेंगी जिनके ऊन से शायद नया कम्बल बुना जाएगा । पर यहाँ तो वर्दी से फ़ीत उतरने का ख़तरा था सो राम का नाम लेकर बजा दी डोरबेल । आँख मिचमिचाते हुए ज़िल्ले इलाही ने एक नज़र हम को देखा, फिर देखा  अटेंडेंट के हाथ में 'नवजात कम्बल ' फिर जैसे विश्वास न हुआ हो सो करने लगे कम्बल का उसके पेकेट समेत सूक्ष्म निरीक्षण । संतुष्ट होने पर आख़िरी गोली दाग़ी - इस वक़्त इसे लाए कहाँ से ? एक बारगी तो दिल ने कहा सच बयाँ कर दूँ पर तभी दिमाग़ ने कहा तुम्हारा सच इन लोगों को हज़म नहीं हो पाएगा क्योंकि सवाल हाकिम की मूँछ और पूँछ दोनों का है । एक अदने से मुलाजिम के घर से लाए कम्बल में, बेशक वह नया ही क्यों न हो , हाकिम को नींद कैसे आ सकती है ।
श्रीमान के प्रश्न के जवाब को एक मीठी नम्र मुस्कराहट के साथ टालते हुए गुड़नाइट कहकर चुपचाप खिसकने में ही मुझे भलाई लगी।




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