भजन की राह पर चरन जी |
इंसान चाहता कुछ है लेकिन तकदीर किसी ऐसे रास्ते पर धकेल देती है जिसे उसने खुद चुना है । अपना ही उदाहरण देता हूँ – मेरा बचपन से ही रेडियो एनाउंसर बनने का सपना था । पिताश्री स्वयं साहित्यकार होने के कारण कलाकारों की कमजोर आर्थिक मजबूरियों से भली-भांति परिचित थे । उन्होंने मुझे डाक्टर बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी पर जब किस्मत में सीमेंट बेचना लिखा था तो रेडियो जॉकी और डाक्टरी के पटाखे हो गए फुस्स । हम में से बहुत कम ऐसे खुशनसीब होते हैं जिन्हें नौकरी , काम-धंधा , व्यवसाय भी अपनी पसंद और रुचि के अनुसार मिलता है । पिछले दिनों मुझे एक ऐसे ही अत्यंत दिलचस्प व्यक्तित्व से संपर्क हुआ । आमने – सामने मुलाकात तो नहीं हुई पर फोन पर ही लंबी बातचीत हुई । इस शख्स की ज़िंदगी बहुत ही उतार – चढ़ाव वाली रही पर मजे की बात यही कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी । इन सबके बावजूद उसे आखिर में हासिल क्या हुआ – वह भी बताऊँगा ।
चलिए बात बचपन से ही शुरू करते हैं – उस बच्चे का नाम था गुरप्रीत सिंह । इस नाम का अर्थ है गुरु से प्रेम करने वाला । पता नहीं इस नाम में ही ऐसा क्या जादू डाला उस बच्चे पर कि कम उम्र से ही आध्यात्म और भक्ति की ओर झुकाव शुरू हो गया । जिस उम्र में बच्चे कंचे खेलते, पतंग उड़ाते, वह किसी और ही दुनिया में लीन रहता । गुरु नानक जी महाराज की जीवनी कई बार पढ़ी । माँ को बड़ी शांति मिलती । गुरुद्वारे की संगत में शबद – कीर्तन सुनने में उसे अद्भुत आनंद मिलता । अगर यह कहें कि पढ़ाई से ज्यादा उसे आनंद भक्ति की दुनिया में मिलता तो कुछ गलत नहीं । गुरुद्वारे में जाकर खुद भी शबद गाने लगा । उसके पिता एक ठेठ व्यवसायी थे । हर पिता की तरह उनकी भी चाहत थी कि अपने दूसरे भाई की तरह गुरप्रीत भी फेक्टरी के काम में हाथ बटाए । यहीं से शुरू होता है दोनों के बीच विचारधारा का टकराव । पिता को हमेशा यही लगता कि ईश्वर भक्ति के द्वारा रोज़ी -रोटी का इंतजाम करना कठिन ही नहीं – नामुमकिन है । दूसरे शब्दों में कहें तो – काम-धंधा अपनी जगह और भक्ति – भावना अपनी जगह ।
पिता-पुत्र की इस विचारधारा में टकराव ही कई बार घर में कटुता का वातावरण ला देता । पिता भी अपनी जगह ठीक थे – इस दुनिया में माँ – बाप से बढ़कर अपनी औलाद का भला सोचने वाला और कौन हो सकता है । समझदारी गुरप्रीत में भी कुछ कम नहीं थी - 16 - 17 वर्ष की आयु में भी अपने हमउम्र साथियों से ज्यादा परिपक्वता थी । उसकी सोच थी कि जिंदा रहने के लिए जितनी जरूरी रोज़ी -रोटी है उससे भी कहीं ज्यादा आवश्यक है कि पैसा कमाने का तरीका भी सात्विक होना चाहे । अब आप खुद ही सोचिए – कितना कठिन रास्ता चुना गुरप्रीत ने । घर के अच्छे -खासे पारिवारिक फेक्टरी -व्यवसाय को छोड़ कर निकल पड़े मन की शांति की खोज में गौतम बुद्ध की तरह । गुरुद्वारे में भक्ति की – वहाँ भी चैन नहीं मिला । एक तरह से कहा जाए तो जगह – जगह धक्के खाए । एक से एक बुरे दिन भी देखने पड़े । उधर पिता नाराज और इधर रोटियों के भी लाले पड़ रहे थे । कभी – कभी मन में निराशा का भाव भी आता – कहीं ऐसा ना हो कि ना खुदा ही मिला , ना विसाले सनम , ना इधर के रहे ना उधर के रहे । पर दिल के किसी कोने में विश्वास भी था – ऊपर वाला सब भला ही करेगा । हुआ भी कुछ ऐसा ही । खुद उनके ही शब्दों में “ सारा जीवन शांति की तलाश में अलग-अलग रास्ते खोजता रहा । रास्ता सादगी और सहज ध्यान में था जिस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया ।“ खोजते -खोजते आध्यात्मिक पंथ सहज मार्ग के संपर्क में आए । पुराना सब कुछ भुला – नाम ही नया अपना लिया – “चरन जी” । तब से संगीत और भजन – यही दुनिया है चरण जी की । अब उन्हें अपना संगीत का शौक, ईश्वर के प्रति भक्ति और आजीविका सब एक ही माध्यम से अपनाने का भगवान ने सुनहरा मौका दिया । अपनी मेहनत ,लगन , सुरीली आवाज और ईश्वर के आशीर्वाद की बदौलत आज चरन जी भजन गायकी के क्षेत्र में चमकता हुआ सितारा हैं ।
बाएं से अभिनेता विवेक वासवानी, संगीतज्ञ विश्व मोहन भट्ट, चरन जी |
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