Tuesday, 12 February 2019

गंगा मैया – पार उतारे सबकी नैया

इससे पहले कोई लाए,
तुम्हें  लोटे या जार में,
इक बार तो आ जाइए ,
जीते-जी हरिद्वार में |

ज़िंदगी का पूरा फ़लसफ़ा महज़ कुछ शब्दों में बयाँ करती ये पंक्तियाँ अपने आप में एक पूरी कहानी समेटे हुए है | कहानी आपकी क्षण-भंगुर ज़िंदगी की, कहानी एक शहर की और सबसे बड़ी कहानी आपके लोक-परलोक और उस शहर के बीच अनंत सम्बन्ध की जिसे हरिद्वार के नाम से जाना जाता है | आज की कहानी में आपको उसी हरिद्वार के दर्शन होंगें और साथ ही मुलाक़ात होगी वहाँ के एक रोचक किरदार से जिससे आपका कभी न कभी जरूर सामना हुआ होगा और जिन्हें आप पण्डे या तीर्थ पुरोहित के नाम से जानते हैं | इनके पास आपके पूर्वजों का वह लेखा-जोखा मिल सकता है जिससे देख कर आप अचम्भे में पड़ जाएगें | 
तो चलिए शुरू करते हैं बात हरिद्वार की | हरिद्वार दरअसल हिन्दुओं का बहुत ही पवित्र और प्राचीन धार्मिक स्थान है | उत्तराखंड में गौमुख /गंगोत्री से निकली भागीरथी नदी आगे रुद्रप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर गंगा का रूप लेती है तो ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों से लगभग 250 कि.मी की यात्रा इठलाती, बल खा कर, हिलोरे  लेेती जब मैदानी इलाके में आकर शांत भाव ग्रहण करती है वह गंगा का प्रवेश द्वार हरिद्वार ही है | एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार धन्वन्तरी जब समुद्र मंथन के बाद निकले अमृत को जब कलश में लेकर जा रहे थे तो उसमें से अमृत की कुछ बूंदें जिन चार जगहों पर गिर गयी थीं उनमें से एक हरिद्वार भी था | अन्य तीन स्थान थे – नासिक, प्रयाग और उज्जैन | इन सभी तीर्थ स्थानों की महिमा अपरम्पार है | धार्मिक ग्रंथों के अनुसार हरिद्वार के बारे में यह मान्यता है कि यहाँ गंगा मैय्या में स्नान करने वाला सभी पाप कर्मों से मुक्ति पा जाता है | यहाँ प्राण त्यागने वाला सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है और जिसका भी पिंडदान या अस्थिविसर्जन होता है वह भी सीधे बैकुंठ धाम की प्राप्ति कर लेता है | तीर्थ स्थान है तो सीधी सी बात है कि यहाँ पर पूजा-पाठ और कर्मकांड के लिए आने वाले श्रद्धालु और इन सब धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करवाने वाले पंडित तो होंगे ही | शायद आपने भी सुना तो होगा ही - इन श्रद्धालुओं को कहते हैं यजमान और पंडित जी को – तीर्थ पुरोहित या पंडा | इन तीर्थ-पुरोहितों की कार्य शैली भी उतनी ही अदभुत  है जितनी कि मुम्बई की डब्बे वालों की | फर्क सिर्फ इतना है कि जहां डिब्बे वाले बहुत ही सटीकता और कुशलता से खाने के डिब्बे लोगों के घरों से उनके दूर दराज स्थित दफ्तरों तक समय पर पहुँचा देते हैं, वहीं दूसरी ओर तीर्थ पुरोहितों के पास अपने यजमानों के पूर्वजों की कई पीढ़ियों तक का लेखा-जोखा इतने व्यवस्थित रूप से रखा जाता है कि आज के जमाने के कम्प्यूटरों में रिकार्ड रखने वाले बड़े से बड़े लाइब्रेरियन भी दाँतों तले उंगली दबा लें | 

आपके पुरखों का लेखा-जोखा 
आप हरिद्वार की हरकी पौड़ी पर कदम रखेंगे ही कि आपको एक तरह से घेर लिया जाएगा और ऊपर से पड़ेगी सवालों की बौछार – “ पूजा करवानी है ? कहाँ से आये हो ? कौन सा राज्य .... कौन जिला .... कौन जाति ... कौन सा गौत्र ?” विश्वास कीजिए अगर आप सचमुच किसी धार्मिक अनुष्ठान के उद्देश्य से आए हैं तो पूछे गए हर सवाल का अपना महत्त्व है | आपका जवाब ही आपको पहुंचाएगा आपको उस विशेष पुरोहित तक जिसे आप फेमिली डाक्टर की तर्ज़ पर फेमिली पंडित भी कह सकते हैं | वही फेमिली पंडित जिसके पुरखों तक ने आपके पुरखों के लिए पूजा-पाठ संपन्न करवाया है और आज भी उसके पास इसका लिखित सबूत भी मिल सकता है | यही है आपका तीर्थ पुरोहित | 
तीर्थ पुरोहित पंडित धीरज शर्मा 
इन तीर्थ पुरोहितों के बारे में ही अधिक जानने के लिए मेरी मुलाक़ात हुई हरिद्वार के ही पंडित धीरज शर्मा जी से | वह स्वयं हरिद्वार के प्रख्यात तीर्थ पुरोहितों में से एक हैं | उनसे इस विषय में बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी मिली | प्राचीन काल से ही लोग हरिद्वार की यात्रा करते थे | हरिद्वार एक पवित्र तीर्थ स्थल होने के कारण, यह यात्रा या तो धार्मिक  उद्देश्य से होती थी या परिवार के सदस्यों की मृत्यु होने पर रीति रिवाजों के अनुसार अस्थि विसर्जन करने हेतु | अब से लगभग सैकड़ों वर्षो पहले  न तो आज जैसे यातायात के साधन थे और न ही हरिद्वार में ठहरने के लिए इतने होटल और धर्मशालाएं थी | 
वर्ष  1866 का हरिद्वार का गंगा तट 


आज की हर- की -पैडी में हर हर गंगे 
उस समय तीर्थ यात्री पैदल ही या घोड़ों पर कई –कई दिनों की कठिन यात्रा करके हरिद्वार आते थे | ऐसे समय में उनके राज्य, जिले के लिए सम्बंधित तीर्थ पुरोहित ही उनके लिए पूजा पाठ तो करते ही थे बल्कि जरूरत पड़ने पर उनके रहने-खाने की व्यवस्था भी अपने घरों में ही करते थे | ऐसा प्रगाढ़ और घरेलू किस्म का विश्वास से भरा रिश्ता होता था यजमान और उनके पुरोहित का | तीर्थ यात्री अपने वंश वृक्ष की समस्त जानकारी जैसे बाप-दादा का नाम, आने का प्रयोजन आदि सब कुछ उस बही-खाते में दर्ज करवाते, अपने और साथ आए रिश्तेदारों के हस्ताक्षर भी करते | यही परम्परा पीढी- दर- पीढी से चली आ रही है | अगली बार आने पर यजमान अपने परिवार के विवरण में जरूरी फेरबदल करवा लेते  | यह सब कुछ इसी तरह से है जैसे सरकार द्वारा जन्म - मृत्यु पंजीकरण रिकार्ड| आश्चर्य की बात यह है कि सरकारी रिकार्ड की सुईं तो पचास साल पहले जा कर ही टें बोल जायेगी पर आपके पंडे जी आपके सामने 800 साल पहले का भी खाता आपके सामने पेश कर देंगे | यह बात मैं हवा में नहीं मार रहा हूँ, आपको बाकायदा प्रमाण सहित कह रहा हूँ |
आठ  सौ वर्ष पुराना बही - देवनागरी और उर्दू लिखित 

पहले यह बही भोज पत्रों पर लिखी जाती थी, फिर समय के साथ कागज़ का प्रचलन चला | ताम्र पत्रों पर भी कुछ वंशावलियों का उल्लेख है | हरिद्वार में करीब 2500 तीर्थ पुरोहित हैं | यह सब वे ब्राह्मण पंडित हैं जो पीढी दर पीढी से अपने यजमानों का लेखा-जोखा वंशावलियों के रूप रखते आए हैं | प्रत्येक जिले की पंजिका जिसे बही भी कहते हैं, का विशिष्ट पंडित होता है।इन हाथ से लिखी बही में यजमानों और उनके पूर्वजों का विवरण उनके असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत करने के बाद सहेज कर रखी गयीं हैं। यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं। कई मामलों में तो उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं। 
पंडित जी की गद्दी 

इतना जानने के बाद पंडित धीरज शर्मा जी से पूछ बैठा कि कुछ अपने बारे में भी बताइए | उन्होंने बताया कि उनके भी पीढी-दर-पीढी यही काम चला आ रहा है |उनके पिता का सात भाइयों का परिवार था | अगली पीढी के इच्छुक सदस्य को विरासत में यही काम सौंप दिया जाता है | उनके द्वारा सैकड़ों वर्षो का हस्तलिखित बही जिनमें यजमानों का रिकार्ड होता है वही उनकी पूंजी है | पंडित जी ने एक बहुत दिलचस्प बात भी बताई | वह स्वयं बी.ए , एल.एल.बी हैं , कुछ समय वकालत में भी हाथ आजमाया पर पिता की मृत्यु के बाद उनकी इस विरासत को सम्भाला | कर्मकांड की विधिवत शिक्षा अपने ताऊ जी श्री ज्ञान चंद्र शास्त्री जो कि राष्ट्रपति पुरस्कार से अलंकृत रहे और ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन से सम्बद्ध रहे , से प्राप्त की | अपने इस पवित्र सेवा कार्य से पूरी तरह से संतुष्ट हैं | बच्चे पढाई कर रहे हैं – बड़ा बी.सी.ए में और छोटा नवीं कक्षा में | अभी से कुछ नहीं कह सकते कि बच्चे भी यही गद्दी संभालेंगे, सब कुछ उनकी इच्छा पर है | अगर ऐसा होता है तो गद्दी की व्यवस्था परिस्थितियों के अनुसार की जायेगी | अपने रोचक अनुभवों को बताते हुए पंडित जी बताते हैं कि संपत्ति की विरासत को लेकर उपजे मुकदमें के चक्कर में एक बार उन्हें अपनी बही (रिकार्ड) के साथ यमुना नगर की कोर्ट में पेशी पर जाना पड़ा था | बही में दर्ज विवरण को कानूनी मान्यता प्राप्त है | मुझे लगता है कोर्ट में उस समय पंडित जी ने एक बारगी माथे पर पसीना पोछते हुए एक बारगी सोचा तो जरूर होगा – बुरे फँसे पुरोहिताई में | 

पंडित धीरज शर्मा जी हरिद्वार में समाज सेवा के कार्यों में भी अत्यंत व्यस्त रहते हैं | किसी भी कठिनाई या समस्या की हालत में उनसे निसंकोच संपर्क 9760339460 नंबर पर किया जा सकता है | उन्होंने  एक अपील भी की है | वह कहते हैं कि अब संयुक्त परिवार रहे नहीं, उनकी जगह नाभकीय परिवारों ने ले ली है यानि पति-पत्नी और बच्चे | ऐसे समय में अपनी पीढी का लेखा-जोखा भविष्य के लिए सुरक्षित रखने के लिए, जब भी हरिद्वार आयें, अपने पुरखों, दादा-दादी और अपने कुनबे के अन्य सदस्यों के नाम, रहने के पुराने जिले के नाम, परिवार में हुए शादी -ब्याह और मृत्यु की पूरी जानकारी के साथ आयें| इस जानकारी को अपने तीर्थ पुरोहित के पास दर्ज भी कराएं | आने वाली पीढ़ी के लिए हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं | 
प्राचीन बही
पुराने होते रिकार्ड को नष्ट होने से बचाने के लिए रिकार्ड को कम्प्यूटर में संरक्षित रखने के विषय में मेरी कई अन्य परिचितों से भी बात हुई | इस पर कुछ का मत था कि तकनीकी साधनों का प्रयोग अपनी जगह कुछ हद तक उचित हो सकता है पर यह उस असली बही की जगह कभी नहीं ले सकता | पुरोहित की गद्दी पर बैठ कर बही के उस असली कागज़ में अपने बाप-दादाओं के हस्ताक्षर , उनके परिवार का लेखा-जोखा देख कर भावना यजमान के मन में उमड़ती है कि इसी जगह पर मेरे पुरखे आकर अपना ब्योरा दर्ज करवा कर गए थे | कंप्यूटर के स्क्रीन पर उन कागजात की आभासी तस्वीर शायद भावनाओं का वह रोमांच पैदा न कर सके | नए ज़माने की तेज़ रफ़्तार का वैसे तो मैं भी समर्थक हूँ पर लगता है यहाँ यजमान जी भी  शायद ठीक कह रहे हैं | 

( आभार : इस लेख में संग्रहित सामग्री के लिए श्री संजय कुमार झाड़, गंगा सभा, हरिद्वार एवं श्री राजेश शर्मा, हरिद्वार   का विशेष योगदान रहा )

Tuesday, 5 February 2019

अनिल भैया : छुक –छुक- छैयां




आज के इस शीर्षक को पढ़ कर शायद एक बारगी तो आपका अच्छा-भला दिमाग भी चकरा गया होगा | इस छुक –छुक-छैयां में समाई हुई हैं रेलगाड़ी की ढेरों रूमानियत से भरपूर बचपन की यादें, वे यादें जो जुड़ी हुई हैं दूर-दराज के छोटे-मोटे रेलवे स्टेशनों पर बिताए बचपन की जहाँ मेरे नाना स्टेशन मास्टर हुआ करते थे | मेरे उस बचपन की बानगी से अगर आप अब तक अनजान हैं तो संस्मरण कण-कण में भगवान (भाग- 1 ):  बचपन की बहार - पथरी की पुकार को भी अवश्य पढ़ लीजिएगा, जिसका लिंक शीर्षक के साथ ही दिया हुआ है |
रेलगाड़ी से जुड़ी कभी एक जीवन-सीख देने वाली कविता भी पढी थी :
**********
अगर तुम्हारा पथ
निश्चित है
तब तो घने अँधेरे में भी
पहुँच जाओगे अपनी मंजिल
जैसे ट्रेने दौड़ लगातीं
रातों में भी
पहुँचा करती हैं स्टेशन |


अगर नहीं
तो भरी दोपहरी में भी
अपना पथ भूलोगे
जैसे नावें भटका करती हैं
सागर में |

********
( साभार : स्व० श्री रमेश कौशिक, कविता संग्रह: मैं यहाँ हूँ ) 
******** सो ज़ाहिर सी बात है रेल तो आज तक मेरे दिलो-दिमाग में छुक-छुक-छैय्याँ कर ही रही है | 

उन्हीं यादों को फिर से ताज़ा करने के लिए बैठे-बिठाए दिमाग में फितूर उठा कि चलो रेल म्यूजियम चलते हैं | नई दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित रेल म्यूजियम, भारतीय रेल के इतिहास और विकास दोनों को ही बहुत आकर्षक और मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करता है | यहीं का एक प्रमुख आकर्षण है छोटी से रेलगाड़ी जिसमें बैठ कर बच्चे और बड़े सभी एक सामान आनंदित होते हैं | उस छोटी सी रेलगाड़ी के छोटे से स्टेशन के छोटे से प्लेटफार्म पर बच्चे और बड़ों की भीड़ में चहलकदमी करते हुए दिल के किसी कोने से आवाज उठी कहाँ है वह शख्स जो इस छोटी सी खिलौना ट्रेन को चलाता है और सभी को बहुत बड़ी खुशी दे रहा है | मन में एक धूमिल सी तस्वीर थी कि कैसा होगा वह इंसान – शायद ढीले-ढाले बेतरतीब से कपड़ों में अधेड़ उम्र का, कच्चे-पक्के बालों वाला जिसकी आँखों पर नज़र का मोटा सा चश्मा लगा होगा | इसी दिमागी-तस्वीर से मेल खाता इंसान खोजने की कोशिश कर रहा था पर नाकामयाब रहा | हाँ , अलबत्ता इंजिन के पास ही सूट-बूट पहने एक बहुत ही स्मार्ट, गोरा –चिट्टा नवयुवक दिखाई पड़ा| कुल मिलाकर व्यक्तित्व ऐसा कि एक बार देखकर भी दोबारा नज़र चुम्बक की तरह मजबूरन वापिस खिंची चली जाए | सच में, मुझे संकोचवश शब्द भी नहीं मिल रहे थे कि पूंछ लूँ- “क्या यह रेलगाड़ी आप ही चलाते है ?” समय कम था और मन में उमड़ रहे सवाल कहीं ज्यादा अत: हिम्मत करके सवाल का जवाब मिल ही गया – “आपने सही पहचाना | मैं अनिल सेंगर हूँ जो इस छुक-छुक गाड़ी को चलाता हूँ |” बस फिर क्या था मन में बसे ढेरों सवाल और उन सवालों के बहुत ही विनम्रता से दिए गए शालीन जवाब जो अपनी कहानी खुद ही बयाँ कर रहे हैं, और इसी पर आधारित है आज की कहानी – अनिल भैय्या – छुक-छुक छैयां 
छोटा इंजिन पर जिम्मेदारी बड़ी 

मेरा नाम अनिल सेंगर है | भारतीय रेलवे में काम करता हूँ , लोको पायलेट के पद पर | वैसे मेरी कहानी में कहने को कुछ भी ख़ास नहीं है, पर दूसरी तरह से सोचा जाए तो बहुत कुछ है | मेरा बचपन एक तरह से गाँव, कस्बे और शहर का मिला-जुला खिचडी रूप रहा है | आठवीं तक की पढाई दिल्ली में ही हुई जहां मेरे पिता जी की पोस्टिंग थी जो रेलवे में ही काम करते थे | लिहाजा उसके बाद हाथरस से विज्ञान विषयों से इंटरमीडिएट किया | सच कहूँ तो मुझे एक तरह से नौकरी करने की जल्दी थी | वजह मुझे आजतक खुद भी नहीं पता | अब नतीज़ा यह कि इंटर के बाद जहां मेरे दूसरे साथी बी.ए या बी.एस.सी में दाखिला लेने की जुगाड़ में थे, मैं पहुँच गया आई.टी.आई के तकनीकी कोर्स में दाखिला लेने | जो मेरे पिता ने समझाया मैंने उसी पर आँखें मूंद कर विश्वास ही नहीं, वरन अमल भी किया | आज के जमाने में जब बी.ए , एम्.ए और अब तो एम्.बी.ए की डिग्री लेने की भेड़ –चाल है, ऐसे बेरोज़गारी के समय में भी तकनीकी शिक्षा लेने वाला कभी और कुछ हो- या- न- हो , पर कम-से-कम भूखा तो नहीं मरेगा, ऐसा उनका विश्वास था | उनका विश्वास और भरोसा समय की कसौटी पर खरा उतरा | आई.टी.आई. का कोर्स करने के बाद ही मैं भारतीय रेलवे की नौकरी में वर्ष 2003 में आ गया | शुरुआत में यहाँ के मेंटेनेंस डिपार्टमेंट की वर्कशाप में काम सीखा, काम किया, मेहनत से किया | हाथ और कपड़े तेल और ग्रीस में भरपूर काले - काले पर माथे पर कोई शिकन नहीं | बस मन के कोने में यही एक विश्वास था कि मेहनत रंग जरूर लाएगी – बेशक देर-सवेर ही सही | और कहा जाए तो मेरे मामले में, यह देर भी कुछ ख़ास नहीं रही | साल 2013 मेरे लिए एक खुशी लाया | मैं लोको रनिंग स्टाफ के केडर के लिए चुन लिया गया | आप इसे कुछ यूं समझ सकते हैं – अब निर्धारित ट्रेनिंग पूरी करने के बाद मैं रेलगाड़ी को चला सकता था | 
रेलगाड़ी भी बड़ी और जिम्मेदारी भी बड़ी 
प्रमोशन पर बढ़ा हुआ वेतन अपने साथ ज्यादा खुशियाँ तो लाता ही है पर साथ ही लाता है ज्यादा जिम्मेदारियां और अगर नौकरी रेलवे की है तो उन जिम्मेदारियों में निहित पेशेवर जोखिम | बस यह समझ लीजिए मामला कुछ ऐसा ही है जो आप रेलवे स्टेशन के हर सिग्नल केबिन की दीवार पर लिखा पाते हैं – सावधानी हटी, दुर्घटना हुई | एक छोटी सी भूल, लापरवाही, या किसी भी प्रकार की अपराधिक तोड़फोड़ की गतिविधि, हमारे साथ-साथ हज़ारों यात्रियों की जान-माल का खतरा बन जाता है | घर से ड्यूटी पर जाने के समय से ले-कर जब तक वापिस नहीं आ जाते, घर वालों की सांस आफ़त मे अटकी रहती है | जान से बढ़ कर कुछ प्यारा नहीं होता, इसी लिए मोटी तनख्वाह और एलाउंस जिन्दगी का मोल नहीं हो सकती, ऐसा उन लोगों को जरूर समझना चाहिए जिनकी नज़र लोको पायलेट्स की पगार पर रहती है | अगर मुझसे पूछा जाए तो  शायद इन्हीं सब वजहों से मैं  खुद अपने बच्चों को लोको पायलट के रूप में नहीं देखना चाहता |
निकल पड़े अपने सफ़र पर 
कई बार ऐसी दुखद घटनाएं भी हो जाती हैं जिन पर हम चाह कर भी बचाव नहीं कर पाते | 100 कि.मी. प्रति घंटे की तेज गति से चल रही गाड़ी के आगे अचानक कोई भी आ-जाए, गाडी को तुरंत नहीं रोका जा सकता | हम भी आखिर हैं तो इंसान ही, ऐसी कोई भी दुर्घटना होने पर अन्दर तक बुरी तरह से हिल जाते हैं | अब तक लगभग बीस जीवन मेरी ट्रेन के नीचे आकर समाप्त हुए होंगें | अपने सरपट तेज रफ़्तार दौड़ते इंजिन में घटी सबसे पहली बार की भयानक याद मुझे आज तक ताज़ा है| मैं दिल्ली से ट्रेन लेकर अजमेर तक जा रहा था | रोहतक से कुछ पहले एक पुल के पास , बहुत ही बूढी औरत जल्दबाजी में ट्रेन की पटरी पार करने की कोशिश में नाकामयाब रही और इस बुरी तरह से घबरा गयी कि उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि करे तो क्या करे | मैं बुरी तरह से लगभग पागल-सा होकर लगातार चेतावनी की सीटी बजाये जा रहा था पर कुछ नहीं कर पाया | उस दैत्याकार चिंघाड़ मारते इंजिन ने सरपट दौड़ते हुए उस कमजोर, दुबली-पतली बूढी काया को टक्कर मार कर दूर हवा में मानों उछल कर फेंक दिया | उसकी चीख भी उस इंजिन की गर्जना और पहियों की खटर-पटर के शोरगुल में शायद कहीं गुम हो गयी होगी | ड्यूटी समाप्त होने पर गंतव्य स्टेशन के रिटायरिंग रूम में गया |परेशानी का आलम इस कदर कि न-तो खाना खा पाया और ना- ही एक पल को सो पाया | आँख बंद करते ही उस वृद्धा के क्षत-विक्षत शरीर के चिथड़े हवा में उड़ते नज़र आते |घबराहट के मारे मेरा पूरा शरीर मानों पसीने में भीग रहा था | दिल का कोई कोना कचोट-कचोट कर कह रहा था – जो कुछ भी हो, आखिर उस बूढी की जान गयी तो तुम्हारे इंजिन के पहियों के तले आकर ही-ना | रात की तरह से ही सुबह भी मेरे वरिष्ठ साथी समझाने पर लगे थे कि इस प्रकार की दुर्घटनाएं अक्सर होती ही रहती हैं और अगर पटरी पर दौड़ते इंजिन की नौकरी अगर करनी है तो मन तो मजबूत रखना ही पड़ेगा | मुझे लगता है शायद उस वृद्धा में मुझे अपनी नानी का अक्स नज़र आया था तभी तो वापिस जब अपने घर पहुंचा तो अपनी नानी को एक ही बात तोते की तरह बोले जा रहा था कि पटरी जब भी पार करो, ट्रेन के गुजर जाने के बाद बाद | यही सीख आज भी मैं अपने हर चिर-परिचित को देता हूँ कि जीवन अनमोल है, उसे अपनी लापरवाही से व्यर्थ न गवाओं | 

रही बात रेल म्यूजियम की बच्चा ट्रेन चलाने की, तो जब कभी भी नियमित स्टाफ छुट्टी पर चला जाता है तो ऐसी स्थिति में मेरी ड्यूटी भी लग जाती है | अपने रोजमर्रा के एक ही ढंग के काम से हटकर यहाँ आकर हंसते-खिलखिलाते बच्चों को देखकर मैं पूरी तरह से तरोताज़ा हो जाता हूँ | मुझे अपना खुद का बचपन याद आ जाता है जब मेरे पिता जी ने मुझे इसी बच्चा ट्रेन में सैर करवाई थी | सच मानिए बड़ी ट्रेन की तो बात ही छोडिये , उस वक्त मैंने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि एक दिन इस खेल-गाड़ी को भी मैं स्वयं चलाऊंगा|  मेरी जिन्दगी इस खेल-गाडी और रेल- गाड़ी  के बीच आप सबकी शुभकामनाओं से बहुत ही आनंद से गुज़र रही है |
कड़ी मेहनत के बाद मौज - मस्ती भी जरुरी 
और हाँ..... चलते-चलते एक बात और | मेरा मानना है कि जीवन के प्रति एक सकारात्मक सोच रखिए | अपने और अपने परिवार के बारे में तो सभी सोचते हैं , कुछ देश के बारे में भी सोचिए | मैं स्वयं भारतीय प्रादेशिक सेना में भी अपनी सेवाएं दे रहा हूँ जिसके लिए प्रति वर्ष एक माह की ट्रेनिंग पर भी जाता हूँ | भारतीय फौज के साथ बिताया यह एक माह मुझे पूरे वर्ष के लिए इतने उत्साह और ऊर्जा से भर देता है जिसे मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता | 

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तो दोस्तों , यह थी कहानी हमारे अनिल भैया उर्फ़ छुक-छुक-छैय्याँ की | कैसी लगी ?  आप सबसे मेरा अनुरोध है कि इस जोशीले नौजवान के सुरक्षित और सफल भविष्य के लिए कामना करें | यदि हमारा- आपका  अनिल सुरक्षित रहेगा तभी तो अपनी-अपनी मंजिलों तक पहुँचने का हमारा-आपका सफ़र सुरक्षित होगा |